मनु के पुत्र शर्याति नामक एक राजा हुए जो चक्रवर्ती सम्राट थे, उनके तीन पुत्र - "उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण" राजा शर्याति ने उत्तानबर्हि को पूर्व दिशा, भूरिषेण को दक्षिण दिशा एवं आनर्त को सारी पश्चिम दिशा का राज्य देकर कहा - "यह सारी पृथ्वी मेरी है , मैने धर्मपूर्वक इसका पालन किया है तथा बलिष्ठ होकर बलपूर्वक इसका अर्जन किया है , अतः तुम लोग इसका पालन करो, पिता की बात सुनकर ज्ञानी पुत्र आनर्त ने कहा -- "राजन ! यह सारी पृथ्वी आपकी नहीं है , न आपने कभी इसका पालन किया और न ही आपके बल से इसका अर्जन हुआ है, बलिष्ठ तो भगवान श्रीकृष्ण है, अतः यह पृथ्वी उन्हीं की है , उन्होंने ही इसका अर्जन एवं पालन किया है, इसलिए आप अहंकार शून्य होकर हृदय से भगवान श्रीकृष्ण का भजन कीजिए।
पुत्र के बाणों से आहत ज्ञानी शर्याति ने आनर्त से क्रोधपूर्वक कहा - "अरे खोटी बुद्धि वालेबालक ! गुरु की भाँति उपदेश कैसे कर रहे हो, जहाँ तक मेरा राज्य है , वहाँ तक की भूमि पर निवास मत करो, तुमने जिस श्रीकृष्ण की आराधना की है, क्या वे तुम्हारे लिए कोई नयी पूथ्वी दे देंगे।
आनर्त समुद्र तट पर दस हजारो वर्षो तक तपस्या की उनकी प्रेमलक्षणा भक्ति से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण ने वैकुण्ठ से सौ योजन विशाल भूखण्ड मँगाकर समुद्र मे अपने सुदर्शन चक्र की नीँव बनाकर उसी के ऊपर उस भूखण्ड को स्थापित किया, जिस पर राजा आनर्त ने एक लाख वर्षों तक शासन किया वहाँ बैकुण्ठ के समान वैभव भरा हुआ था, यहाँ के महल इतने विशाल थे कि लोगों को द्वार ढूंढने पड़ते थे "द्वार कहाँ है, ऐसा बार - बार पूछे जाने के कारण ही इस नगरी का नाम द्वारिका पड़ा, ऋषियों ने इसे मोक्ष का द्वार कहा है ।
--- गर्गसंहिता से