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Pranam? |
ब्राह्मण पुत्र ब्रह्मचर्याश्रम की अवधि पूरी करके घर लौटा। आँगन में आकर माता के चरण स्पर्श किए और पूछा, "पिताजी कहाँ हैं?" उन्होंने अंदर की ओर संकेत से ही बता दिया।
ब्रह्मचारी अंदर गया। पीछे का दरवाजा खुला था, पर पिताजी का कहीं पता न लगा। परिवार वाले चिंतित हुए। गाँववालों ने भी खोज-बीन की। पूरा वर्ष बीतने पर पिताजी घर लौट आए। पुत्र ने पूछा, "आप कहाँ चले गए थे?"
पिता ने कहा, "जब तुम ब्रह्मचर्य आश्रम से लौटकर अपनी माँ के चरण स्पर्श कर रहे थे, उस समय मैं तुम्हें देख रहा था। मैंने तपस्या से जगमगाते हुए तुम्हारे दीप्त ललाट को देखा। तेजस्वी मुखमंडल अपनी आभा बिखेर रहा था। उसी क्षण मेरी आत्मा ने जब अपने को टटोला, तो पाया कि मैं तुम्हारा प्रणाम लेने योग्य नहीं।
"इतने वर्षों से सांसारिक संघर्ष में रत रहने के कारण मेरा चरित्र मलिन हो गया था, अतः विलंब करना मैंने उचित नहीं समझा और पीछे के द्वार से तपस्या हेतु मैं वनगामी हो गया। एक तपस्वी से प्रणाम कराने का पात्रत्व जब मुझमें आ गया, तो मैं घर लौट आया। वर्ष भर में मेरी तपस्या पूरी हुई। अब तुम सहर्ष मेरे चरण छूकर आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हो।"
प्रणाम लेने का अधिकार उसे है, जो कि प्रणाम करने वाले से अधिक योग्य हो।