मन्त्र 15 (ईशावास्य उपनिषद)

Sooraj Krishna Shastri
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मन्त्र 15 (ईशावास्य उपनिषद)
मन्त्र 15 (ईशावास्य उपनिषद)

मन्त्र 15 (ईशावास्य उपनिषद)


मूल पाठ

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।


शब्दार्थ

  1. हिरण्मयेन पात्रेण: स्वर्णिम आवरण से।
  2. सत्यस्य: सत्य का।
  3. अपिहितं: ढका हुआ।
  4. मुखम्: मुख या स्वरूप।
  5. तत्: वह।
  6. त्वम्: आप।
  7. पूषन्: पूषण (सूर्य, जो पोषण करता है)।
  8. अपावृणु: हटा दें।
  9. सत्यधर्माय: सत्य धर्म के लिए।
  10. दृष्टये: दर्शन के लिए।

अनुवाद

सत्य का मुख स्वर्णिम आवरण से ढका हुआ है। हे पूषण (सूर्य), कृपया इसे हटा दें ताकि मैं सत्य धर्म का दर्शन कर सकूं।


व्याख्या

यह मन्त्र सत्य के दर्शन के लिए साधक की प्रार्थना है। इसमें आत्मा और ब्रह्म के बीच के अवरोधों को हटाने की विनती की गई है।

  1. सत्य का स्वर्णिम आवरण:
    सत्य (परमात्मा) का स्वरूप साधारण दृष्टि से दिखाई नहीं देता, क्योंकि वह स्वर्णिम आवरण (अज्ञान, अहंकार, और संसारिक मोह) से ढका हुआ है।

    • "स्वर्णिम आवरण" प्रतीक है उन सांसारिक सुखों और भौतिक आकर्षणों का, जो आत्मा के सत्य स्वरूप को छुपा देते हैं।
  2. पूषण (सूर्य) से प्रार्थना:
    सूर्य को यहाँ परमात्मा और ज्ञान के प्रकाश का प्रतीक माना गया है। साधक सूर्य से प्रार्थना करता है कि वह इस आवरण को हटाए ताकि उसे सत्य का दर्शन हो सके।

  3. सत्यधर्म का लक्ष्य:
    सत्यधर्म का अर्थ है सत्य का पालन और ब्रह्म का साक्षात्कार। यह आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पहचानने का मार्ग है।

  4. दर्शन की लालसा:
    साधक यहाँ सत्य के दर्शन के लिए व्याकुल है और अपने मार्ग में आने वाले सभी अवरोधों को हटाने की प्रार्थना करता है।


आध्यात्मिक संदेश

  • ज्ञान का मार्ग: संसार के मोह, अज्ञान, और अहंकार को हटाकर सत्य का साक्षात्कार ही मानव जीवन का लक्ष्य है।
  • आत्मा की शुद्धता: सत्य का दर्शन केवल तभी संभव है जब साधक अपने भीतर से सभी मानसिक और भौतिक आवरणों को दूर कर ले।
  • प्रार्थना और समर्पण: साधक को अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पूर्ण समर्पण और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करनी चाहिए।

आधुनिक संदर्भ में उपयोग

  • यह मन्त्र सिखाता है कि भौतिकता और मोह से ऊपर उठकर सत्य की खोज करनी चाहिए।
  • आत्म-जागरूकता के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए आत्मविश्लेषण और साधना आवश्यक है।
  • सत्य का दर्शन करने के लिए ईश्वर या गुरु का मार्गदर्शन महत्वपूर्ण है।

विशेष बात

यह मन्त्र साधक की विनम्रता और सत्य को जानने की गहन इच्छा को व्यक्त करता है। सत्य का मुख स्वर्णिम आवरण से ढका हुआ है, लेकिन सच्चे प्रयास और प्रार्थना से इसे हटाया जा सकता है।

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