मन्त्र 18 (ईशावास्य उपनिषद)

Sooraj Krishna Shastri
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मन्त्र 18 (ईशावास्य उपनिषद)
मन्त्र 18 (ईशावास्य उपनिषद)

मन्त्र 18 (ईशावास्य उपनिषद)


मूल पाठ

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।


शब्दार्थ

  1. अग्ने: हे अग्नि देव।
  2. नय: मार्गदर्शन करें।
  3. सुपथा: शुभ मार्ग पर।
  4. राये: धन, संपत्ति (यहाँ आध्यात्मिक संपत्ति)।
  5. अस्मान्: हमें।
  6. विश्वानि: सभी।
  7. देव: हे देव।
  8. वयुनानि: कर्म या ज्ञान।
  9. विद्वान्: जो सब जानने वाला है।
  10. युयोधि: दूर करें।
  11. अस्मत्: हमसे।
  12. जुहुराणम्: छल या पाप।
  13. एनः: दोष या पाप।
  14. भूयिष्ठाम्: अधिक।
  15. ते: आपको।
  16. नमः: प्रणाम।
  17. उक्तिम्: वचन या स्तुति।
  18. विधेम: समर्पित करते हैं।

अनुवाद

हे अग्नि देव, हमें शुभ मार्ग पर ले चलें। हे सर्वज्ञ, हमारे सभी कर्मों का मार्गदर्शन करें। हमारे सभी दोषों और पापों को दूर करें। हम आपको अधिक से अधिक प्रणाम करते हैं और आपकी स्तुति करते हैं।


व्याख्या

यह मन्त्र साधक की प्रार्थना है, जिसमें वह अग्नि (प्रकाश, ज्ञान, और ऊर्जा का प्रतीक) से अपने जीवन को सही मार्ग पर ले जाने की विनती करता है।

  1. अग्नि का प्रतीकात्मक अर्थ:
    अग्नि यहाँ ज्ञान, प्रकाश, और ईश्वर का प्रतीक है। यह वह शक्ति है जो साधक को अंधकार (अज्ञान) से निकालकर प्रकाश (ज्ञान) की ओर ले जाती है।

  2. सुपथा (शुभ मार्ग):
    साधक प्रार्थना करता है कि उसे ऐसा मार्ग दिखाया जाए जो सत्य और धर्म की ओर ले जाए। यह मार्ग मोक्ष और आत्मा की शुद्धता का प्रतीक है।

  3. कर्मों का मार्गदर्शन:
    "विश्वानि वयुनानि विद्वान्" में अग्नि को ज्ञानी और मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार किया गया है। साधक चाहता है कि उसके सभी कर्म सही दिशा में हों और वे पाप या दोष से मुक्त हों।

  4. पापों का नाश:
    साधक अपने जीवन के दोष और पापों को दूर करने के लिए अग्नि से प्रार्थना करता है। यह आत्मा की शुद्धता और ईश्वर के प्रति समर्पण का प्रतीक है।

  5. प्रणाम और स्तुति:
    अन्त में साधक अग्नि (ईश्वर) को अपनी स्तुति और प्रणाम अर्पित करता है, जिससे उसकी प्रार्थना पूर्ण होती है।


आध्यात्मिक संदेश

  1. शुद्ध और सत्य का मार्ग:
    जीवन का उद्देश्य सत्य और धर्म के मार्ग पर चलना है, जो ईश्वर के प्रकाश से संभव है।

  2. कर्म और ज्ञान का समन्वय:
    यह मन्त्र ज्ञान और कर्म के महत्व को संतुलित रूप से अपनाने का संदेश देता है।

  3. दोषमुक्त जीवन:
    साधक को अपने दोषों और पापों से मुक्त होकर ईश्वर के प्रति समर्पित जीवन जीना चाहिए।

  4. ईश्वर के प्रति समर्पण:
    ईश्वर की कृपा और मार्गदर्शन के बिना जीवन को सही दिशा में ले जाना कठिन है।


आधुनिक संदर्भ में उपयोग

  • यह मन्त्र सिखाता है कि हमें अपने जीवन में मार्गदर्शन के लिए ज्ञान और सही आदर्शों का अनुसरण करना चाहिए।
  • कर्मों को दोषरहित और समाज के लिए कल्याणकारी बनाने की प्रेरणा देता है।
  • जीवन में आत्मा की शुद्धता और ईश्वर के प्रति समर्पण का महत्व समझाता है।

विशेष बात

यह मन्त्र जीवन को सही दिशा में ले जाने और आत्मा को शुद्ध करने की गहन प्रार्थना है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम अपने जीवन को सत्य, धर्म, और ईश्वर के प्रति समर्पण के मार्ग पर चलाएं।

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