उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 33, 34, 35 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण,देव्याः शून्यस्य जगतो द्वादशः परिवत्सरः,नैताः प्रियतमा वाचः स्नेहार्
संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत पाठ:
वासंती:
(स्वगत)
अतिगभीरमापूरणं मन्युभारस्य।
(प्रकाशम्)
देव! अतिक्रान्ते धैर्यमवलम्ब्यताम्।
रामः:
किमुच्यते धैर्यमिति?
देव्याः शून्यस्य जगतो द्वादशः परिवत्सरः।
प्रणष्टमिव नामापि न च रामो न जीवति॥ ३३ ॥
सीता:
अपहरामि च मोहितेव एतैरार्यपुत्रस्य प्रियवचनैः।
तमसा:
एवमेव वत्से!
नैताः प्रियतमा वाचः स्नेहार्द्राः शोकदारुणाः।
एतास्ता मधुनो धाराः श्च्योतन्ति सविषास्त्वयि॥ ३४ ॥
रामः:
अयि वासंति! मया खलु—
यथा तिरश्चीनमलातशल्यं
प्रत्युप्तमन्तः सविषश्च दन्तः।
तथैव तीव्रोऽयि शोकशङ्कुः
मर्माणि कृन्तन्नपि किं न सोढः?॥ ३५ ॥
हिन्दी अनुवाद:
वासंती (स्वगत):
क्रोध और दुःख का भार हृदय में अत्यंत गहराई तक भर चुका है।
(प्रकाश में):
हे देव! जो कुछ हो चुका है, उसके लिए धैर्य धारण करें।
राम:
धैर्य? यह शब्द यहाँ कैसे उचित है?
देवी के बिना यह संसार शून्य हो गया है।
बारह वर्षों का समय बीत गया है,
और ऐसा प्रतीत होता है कि "राम" नाम तक लुप्त हो गया है।
राम अब जीवित नहीं है।
सीता:
मैं जैसे मोहित होकर आर्यपुत्र के इन प्रिय वचनों को ग्रहण कर रही हूँ।
तमसा:
वत्से! यह सच है।
ये प्रिय वचन स्नेह से भरे हुए हैं, लेकिन
शोक से भी उतने ही कष्टकारी हैं।
ये शब्द अमृत की धाराओं की तरह प्रतीत होते हैं,
लेकिन तुम्हारे लिए विष का प्रभाव रखते हैं।
राम:
हे वासंती! मैंने इसे सहा है—
जैसे किसी के भीतर विष से भरा दाँत
या तिरछा बाण गहराई तक धँसा हो।
वैसे ही तीव्र शोक का शूल,
मेरे हृदय को काटता हुआ, मैं उसे सहता रहा हूँ।
शब्द-विश्लेषण
1. अतिक्रान्ते धैर्यमवलम्ब्यताम्
- संधि-विच्छेद: अतिक्रान्ते + धैर्यम् + अवलम्ब्यताम्।
- अतिक्रान्ते: जो बीत चुका है;
- धैर्यम्: साहस या धीरज;
- अवलम्ब्यताम्: सहारा लिया जाए।
- अर्थ: जो बीत चुका है, उसके लिए धैर्य रखा जाए।
2. देव्याः शून्यस्य जगतः द्वादशः परिवत्सरः
- समास: षष्ठी तत्पुरुष समास (देव्याः + शून्यस्य जगतः)।
- देव्याः: देवी (सीता) के बिना;
- शून्यस्य: शून्य हो चुके;
- जगतः: संसार के।
- अर्थ: देवी के बिना शून्य हो चुके संसार के बारह वर्ष।
3. स्नेहार्द्राः शोकदारुणाः
- समास: द्वंद्व समास (स्नेह + आर्द्राः और शोक + दारुणाः)।
- स्नेह: प्रेम;
- आर्द्राः: नम;
- शोक: दुःख;
- दारुणाः: कष्टकारी।
- अर्थ: स्नेह से भरे और दुःख से कष्टकारी।
4. यथा तिरश्चीनमलातशल्यं
- संधि-विच्छेद: यथा + तिरश्चीनम् + अलात + शल्यं।
- तिरश्चीनम्: तिरछा;
- अलात: अग्नि या गरम वस्तु;
- शल्यं: बाण।
- अर्थ: जैसे तिरछा और गरम बाण।
5. शोकशङ्कुः मर्माणि कृन्तन्
- संधि-विच्छेद: शोक + शङ्कुः + मर्माणि + कृन्तन्।
- शोक: दुःख;
- शङ्कुः: नुकीला शूल;
- मर्माणि: हृदय के संवेदनशील हिस्से;
- कृन्तन्: काटता हुआ।
- अर्थ: दुःख का शूल हृदय को काटता हुआ।
व्याख्या:
इस अंश में राम के भीतर का गहरा दुःख और शोक स्पष्ट होता है।
- वासंती: राम को धैर्य रखने के लिए कहती हैं, लेकिन राम इसे असंभव मानते हैं, क्योंकि सीता के बिना उनका जीवन शून्य है।
- सीता: राम के वचनों को सुनकर मोहित हो जाती हैं, लेकिन तमसा समझाती हैं कि ये शब्द स्नेह के साथ शोक का विष भी लिए हुए हैं।
- राम: अपने दुःख की तुलना विषैले दाँत या तिरछे बाण से करते हैं, जो हृदय को चीरता हुआ भी जीवन को समाप्त नहीं करता।
यह अंश मानवीय दुःख, प्रेम, और सहनशीलता को गहराई से व्यक्त करता है।
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