श्रीमद्भागवत माहात्म्य – द्वितीय अध्याय (प्रत्येक श्लोक का हिंदी अनुवाद),श्लोक 1 नारद उवाच वृथा खेदयसे बाले अहो चिन्तातुरा कथम्। श्रीकृष्णचरणाम्भोजं स
Here is the depiction of Suta Ji seated gracefully, delivering his discourse under a grand banyan tree to Shaunak Rishi and the assembly of 88,000 sages. |
श्रीमद्भागवत माहात्म्य – द्वितीय अध्याय
(प्रत्येक श्लोक का हिंदी अनुवाद)
श्लोक 1
नारद उवाच
वृथा खेदयसे बाले अहो चिन्तातुरा कथम्।
श्रीकृष्णचरणाम्भोजं स्मर दुःखं गमिष्यति॥
अनुवाद:
नारद जी ने कहा: हे बाले! तुम व्यर्थ में चिंतित होकर अपने को दुःखी क्यों कर रही हो? श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्मरण करो, जिससे तुम्हारा दुःख अवश्य ही समाप्त हो जाएगा।
श्लोक 2
द्रौपदी च परित्राता येन कौरवकश्मलात्।
पालिता गोपसुन्दर्यः स कृष्णः क्वापि नो गतः॥
अनुवाद:
जिसने कौरवों के संकट से द्रौपदी की रक्षा की और गोपियों का पालन किया, वह श्रीकृष्ण कहीं भी नहीं गए हैं; वे सदा उपस्थित हैं।
श्लोक 3
त्वं तु भक्तिः प्रिया तस्य सततं प्राणतोऽधिका।
त्वयाऽऽहूतस्तु भगवान् याति नीचगृहेष्वपि॥
अनुवाद:
तुम श्रीकृष्ण की प्रिय भक्त हो और उन्हें अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय हो। जब तुम उन्हें पुकारती हो, तो वे नीच से नीच स्थान पर भी आ जाते हैं।
श्लोक 4
सत्यादित्रियुगे बोध वैराग्यौ मुक्तिसाधकौ।
कलौ तु केवला भक्तिः ब्रह्मसायुज्यकारिणी॥
अनुवाद:
सत्ययुग और अन्य युगों में ज्ञान और वैराग्य मुक्ति के साधन थे, परंतु कलियुग में केवल भक्ति ही मुक्ति का मार्ग है और ब्रह्म से सायुज्य प्रदान करती है।
श्लोक 5
इति निश्चित्य चिद्रूपः सद्रूपां त्वां ससर्ज ह।
परमानन्दचिन्मूर्ति सुंदरीं कृष्णवल्लभाम्॥
अनुवाद:
इस प्रकार, चैतन्य स्वरूप श्रीकृष्ण ने तुम्हें चिद्रूपा (चेतनारूपा) बनाकर उत्पन्न किया। तुम परमानंद की मूर्ति हो और श्रीकृष्ण को अत्यंत प्रिय हो।
श्लोक 6
बद्ध्वांजलिं त्वया पृष्टं किं करोमीति चैकदा।
त्वां तदाऽऽज्ञापयत् कृष्णो मद्भक्तान् पोषयेति च॥
अनुवाद:
तुमने विनम्रता से श्रीकृष्ण से पूछा कि मुझे क्या करना चाहिए? तब श्रीकृष्ण ने तुम्हें आदेश दिया कि मेरे भक्तों का पोषण करो।
श्लोक 7
अंगीकृतं त्वया तद्वै प्रसन्नोऽभूत् हरिस्तदा।
मुक्तिं दासीं ददौ तुभ्यं ज्ञानवैराग्यकौ इमौ॥
अनुवाद:
तुमने श्रीकृष्ण के आदेश को स्वीकार किया, जिससे वे प्रसन्न हुए। उन्होंने मुक्ति को तुम्हारी दासी के रूप में और ज्ञान तथा वैराग्य को तुम्हारे सहायक के रूप में प्रदान किया।
श्लोक 8
पोषणं स्वेन रूपेण वैकुण्ठे त्वं करोषि च।
भूमौ भक्तविपोषाय छायारूपं त्वया कृतम्॥
अनुवाद:
तुम अपने वास्तविक रूप में वैकुण्ठ में भक्तों का पालन करती हो, और पृथ्वी पर भक्तों के पालन के लिए तुमने छाया रूप धारण किया।
श्लोक 9
मुक्तिं ज्ञानं विरक्तिं च सह कृत्वा गता भुवि।
कृतादि द्वापरस्यान्तं महानन्देन संस्थिता॥
अनुवाद:
तुम मुक्ति, ज्ञान और वैराग्य के साथ पृथ्वी पर आईं और कृत (सत्य) युग से द्वापर युग के अंत तक महान आनंद के साथ स्थिर रहीं।
श्लोक 10
कलौ मुक्तिः क्षयं प्राप्ता पाखण्डामयपीडिता।
त्वदाज्ञया गता शीघ्रं वैकुण्ठं पुनरेव सा॥
अनुवाद:
कलियुग में, पाखंड और अधर्म के कारण मुक्ति दुर्बल हो गई और तुम्हारे आदेश पर वह पुनः वैकुण्ठ को लौट गई।
श्लोक 11
स्मृता त्वयापि चात्रैव मुक्तिरायाति याति च।
पुत्रीकृत्य त्वयेमौ च पार्श्वे स्वस्यैव रक्षितौ॥
अनुवाद:
जब तुम मुक्ति का स्मरण करती हो, तो वह तुरंत तुम्हारे पास आ जाती है। तुमने ज्ञान और वैराग्य को अपने पुत्रों के रूप में स्वीकार कर उन्हें अपने पास रखा।
श्लोक 12
उपेक्षातः कलौ मन्दौ वृद्धौ जातौ सुतौ तव।
तथापि चिन्तां मुञ्च त्वं उपायं चिन्तयाम्यहम्॥
अनुवाद:
कलियुग की उपेक्षा के कारण तुम्हारे दोनों पुत्र, ज्ञान और वैराग्य, मंद और वृद्ध हो गए हैं। फिर भी, तुम चिंता मत करो, मैं उपाय सोचता हूँ।
श्लोक 13
कलिना सदृशः कोऽपि युगो नास्ति वरानने।
तस्मिन् त्वां स्थापयिष्यामि गेहे गेहे जने जने॥
अनुवाद:
हे सुंदर मुखवाली! कलियुग जैसा और कोई युग नहीं है। मैं इस युग में तुम्हें प्रत्येक घर और प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में स्थापित करूंगा।
श्लोक 14
अन्यधर्मान् तिरस्कृत्य पुरस्कृत्य महोत्सवान्।
तदा नाहं हरेर्दासो लोके त्वां न प्रवर्तये॥
अनुवाद:
अन्य धर्मों को त्यागकर केवल भक्ति को प्राथमिकता देने के साथ जब महोत्सव आयोजित होंगे, तभी मैं स्वयं भगवान का सेवक कहलाऊँगा।
श्लोक 15
त्वदन्विताश्च ये जीवा भविष्यन्ति कलौ इह।
पापिनोऽपि गमिष्यन्ति निर्भयं कृष्णमन्दिरम्॥
अनुवाद:
कलियुग में जो जीव भक्ति से युक्त होंगे, वे पापी होते हुए भी बिना किसी भय के कृष्ण के मंदिर में प्रवेश करेंगे।
श्लोक 16
येषां चित्ते वसेद्भक्तिः सर्वदा प्रेमरूपिणी।
न ते पश्यन्ति कीनाशं स्वप्नेऽप्यमलमूर्तयः॥
अनुवाद:
जिनके चित्त में भक्ति प्रेमरूप में सदैव वास करती है, वे अमंगल रूप वाले यमराज को स्वप्न में भी नहीं देखेंगे।
श्लोक 17
न प्रेतो न पिशाचो वा राक्षसो वासुरोऽपि वा।
भक्तियुक्तमनस्कानां स्पर्शने न प्रभुर्भवेत्॥
अनुवाद:
जो भक्ति से युक्त मन वाले होते हैं, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या असुर भी छूने का साहस नहीं कर सकते।
श्लोक 18
न तपोभिर्न वेदैश्च न ज्ञानेनापि कर्मणा।
हरिर्हि साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः॥
अनुवाद:
न तप, न वेदों का अध्ययन, न ज्ञान और न कर्म से भगवान प्राप्त होते हैं। केवल भक्ति से ही भगवान हरि को प्राप्त किया जा सकता है, और इसका प्रमाण गोपियाँ हैं।
श्लोक 19
नृणां जन्मसहस्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिः भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः॥
अनुवाद:
मनुष्यों को सहस्रों जन्मों के बाद भक्ति में प्रीति प्राप्त होती है। परंतु कलियुग में केवल भक्ति ही भगवान कृष्ण को सामने ला सकती है।
श्लोक 20
भक्तिद्रोअकरा ये च ते सीदन्ति जगत्त्रये।
दुर्वासा दुःखमापन्नः पुरा भक्तविनिन्दकः॥
अनुवाद:
जो भक्ति का अपमान करते हैं, वे तीनों लोकों में दुखी रहते हैं। दुर्वासा मुनि ने भी भक्ति का अपमान करने पर कष्ट सहा।
श्लोक 21
अलं व्रतैः अलं तीर्थैः अलं योगैरलं मखैः।
अलं ज्ञानकथालापैः भक्तिरेकैव मुक्तिदा॥
अनुवाद:
व्रत, तीर्थयात्रा, योग, यज्ञ और ज्ञान की चर्चा पर्याप्त नहीं है। केवल भक्ति ही मुक्ति प्रदान करती है।
श्लोक 22
सूत उवाच
इति नारदनिर्णीतं स्वमायात्म्यं निशम्य सा।
सर्वाङ्गपुष्टिसंयुक्ता नारदं वाक्यमव्रवीत्॥
अनुवाद:
सूत जी बोले: इस प्रकार नारद द्वारा कहे गए उपदेश को सुनकर भक्ति देवी, जो समस्त प्रकार की पुष्टि से युक्त थीं, नारद से बोलीं।
श्लोक 23
भक्तिरुवाच
अहो नारद धन्योऽसि प्रीतिस्ते मयि निश्चला।
न कदाचिद्विमुञ्चामि चित्ते स्थास्यामि सर्वदा॥
अनुवाद:
भक्ति देवी बोलीं: हे नारद! तुम धन्य हो। तुमने मुझ पर स्थिर प्रेम दिखाया है। मैं तुम्हें कभी नहीं छोड़ूंगी और सदैव तुम्हारे चित्त में निवास करूंगी।
श्लोक 24
कृपालुना त्वया साधो मद्बाधा ध्वंसिता क्षणात्।
पुत्रयोश्चेतना नास्ति ततो बोधय बोधय॥
अनुवाद:
हे कृपालु साधु! तुम्हारे द्वारा मेरा कष्ट तुरंत समाप्त हो गया। परंतु मेरे पुत्र ज्ञान और वैराग्य में चेतना नहीं है। कृपया उन्हें जगाओ।
श्लोक 25
सूत उवाच
तस्या वचः समाकर्ण्य कारुण्यं नारदो गतः।
तयोर्बोधनमारेभे कराग्रेण विमर्दयन्॥
अनुवाद:
सूत जी बोले: भक्ति के ये वचन सुनकर नारद जी करुणा से भर गए और उन्होंने ज्ञान और वैराग्य को जागृत करने का प्रयास किया।
श्लोक 26
मुखं संयोज्य कर्णान्ते शब्दमुच्चैः समुच्चरन्।
ज्ञान प्रबुध्यतां शीघ्रं रे वैराग्य प्रबुध्यताम्॥
अनुवाद:
नारद जी ने ज्ञान और वैराग्य के कानों के पास अपना मुख रखते हुए जोर से कहा: हे ज्ञान! जागो। हे वैराग्य! शीघ्र जागो।
श्लोक 27
वेदवेदान्तघोषैश्च गीतापाठैर्मुहुर्मुहुः।
बोध्यमानौ तदा तेन कथंचित् चोत्थितौ बलात्॥
अनुवाद:
नारद जी ने वेद और वेदांत के घोष, गीतापाठ, और अन्य उपदेशों के माध्यम से उन्हें बार-बार जगाने का प्रयास किया। इसके बाद वे थोड़ी-बहुत चेतना के साथ उठे।
श्लोक 28
नेत्रैः अनवलोकन्तौ जृम्भन्तौ सालसावुभौ।
बकवत्पलितौ प्रायः शुष्ककाष्ठसमाङ्गकौ॥
अनुवाद:
वे दोनों (ज्ञान और वैराग्य) अपनी आँखें नहीं खोल रहे थे, आलस भरी जंभाई ले रहे थे। वे अत्यंत वृद्ध और शुष्क लकड़ी के समान दुर्बल लग रहे थे।
श्लोक 29
क्षुत्क्षामौ तौ निरीक्ष्यैव पुनः स्वापपरायणौ।
ऋषिश्चिन्तापरो जातः किं विधेयं मयेति च॥
अनुवाद:
उन्हें देखकर नारद जी चिंतित हो गए। वे भूख और थकावट से पीड़ित थे और पुनः सोने के लिए तैयार हो गए। नारद जी सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिए।
श्लोक 30
अहो निद्रा कथं याति वृद्धत्वं च महत्तरम्।
चिन्तयन् इति गोविन्दं स्मारयामास भार्गव॥
अनुवाद:
नारद जी सोचने लगे कि इस निद्रा और वृद्धावस्था को कैसे दूर किया जाए। यह सोचते हुए उन्होंने भगवान गोविंद (श्रीकृष्ण) का स्मरण किया।
श्लोक 31
व्योमवाणी तदैवाभूत् मा ऋषे खिद्यतामिति।
उद्यमः सफलस्तेऽयं भविष्यति न संशयः॥
अनुवाद:
तभी आकाशवाणी हुई: हे ऋषि! चिंता मत करो। तुम्हारा यह प्रयास अवश्य सफल होगा। इसमें कोई संशय नहीं है।
श्लोक 32
एतदर्थं तु सत्कर्म सुरर्षे त्वं समाचर।
तत्ते कर्माभिधास्यन्ति साधवः साधुभूषणाः॥
अनुवाद:
हे देवर्षि! इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए तुम सत्कर्म करो। साधु-संत, जो सज्जनों के आभूषण हैं, तुम्हारे कर्म को पूरा करेंगे।
श्लोक 33
सत्कर्मणि कृते तस्मिन् सनिद्रा वृद्धतानयोः।
गमिष्यति क्षणाद्भक्तिः सर्वतः प्रसरिष्यति॥
अनुवाद:
जब यह सत्कर्म पूरा होगा, तब ज्ञान और वैराग्य की निद्रा और वृद्धावस्था दूर हो जाएगी। भक्ति चारों ओर फैल जाएगी।
श्लोक 34
इत्याकाशवचः स्पष्टं तत्सर्वैरपि विश्रुतम्।
नारदो विस्मयं लेभे नेदं ज्ञातमिति ब्रुवन्॥
अनुवाद:
आकाशवाणी स्पष्ट और सर्वव्यापक थी। नारद जी को यह सुनकर आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा कि मुझे पहले यह ज्ञात नहीं था।
श्लोक 35
नारद उवाच
अनयाऽऽकाशवाण्यापि गोप्यत्वेन निरूपितम्।
किं वा तत्साधनं कार्यं येन कार्यं भवेत् तयोः॥
अनुवाद:
नारद जी बोले: आकाशवाणी ने यह रहस्य प्रकट किया है। लेकिन वह कौन-सा साधन है जिससे ज्ञान और वैराग्य का कल्याण हो सके?
श्लोक 36
क्व भविष्यन्ति सन्तस्ते कथं दास्यन्ति साधनम्।
मयात्र किं प्रकर्तव्यं यदुक्तं व्योमभाषया॥
अनुवाद:
वे संत कहाँ मिलेंगे और किस प्रकार वे इस साधन को प्रदान करेंगे? इस आकाशवाणी का पालन करने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?
श्लोक 37
सूत उवाच
तत्र द्वौ अपि संस्थाप्य निर्गतो नारदो मुनिः।
तीर्थं तीर्थं विनिष्क्रम्य पृच्छन् मार्गे मुनीश्वरान्॥
अनुवाद:
सूत जी बोले: नारद जी ने ज्ञान और वैराग्य को वहीं छोड़ दिया और तीर्थों में जाकर अन्य मुनियों से उपाय पूछने लगे।
श्लोक 38
वृत्तान्तः श्रूयते सर्वैः किंचित् निश्चित्य नोच्यते।
असाध्यं केचन प्रोचुः दुर्ज्ञेयमिति चापरे॥
अनुवाद:
मुनियों ने नारद जी के प्रश्न को सुना, परंतु किसी ने इसका स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। कुछ ने इसे असाध्य बताया, तो कुछ ने इसे दुर्ज्ञेय कहा।
श्लोक 39
मूकीभूतास्तथान्ये तु कियन्तस्तु पलायिताः।
हाहाकारो महानासीत् त्रैलोक्ये विस्मयावहः॥
अनुवाद:
कुछ मुनि तो मौन हो गए, जबकि कुछ भाग खड़े हुए। इस घटना से तीनों लोकों में महान हाहाकार और विस्मय छा गया।
श्लोक 40
वेदवेदान्तघोषैश्च गीतापाठैर्विबोधितम्।
भक्तिज्ञानविरागाणां नोदतिष्ठत् त्रिकं यदा॥
अनुवाद:
वेद और वेदांत के घोष तथा गीतापाठ के माध्यम से ज्ञान, भक्ति, और वैराग्य को जगाने का प्रयास किया गया, परंतु ये तीनों स्थिर नहीं हुए।
श्लोक 41
उपायो नापरोऽस्तीति कर्णे कर्णेऽजपञ्जनाः।
योगिना नारदेनापि स्वयं न ज्ञायते तु यत्॥
अनुवाद:
लोग एक-दूसरे से कहते रहे कि इसका कोई अन्य उपाय नहीं है। यहाँ तक कि नारद जैसे महान योगी भी इसका समाधान नहीं जान सके।
श्लोक 42
तत्कथं शक्यते वक्तुं इतरैरिह मानुषैः।
एवं ऋषिगणैः पृष्टैः निर्णीयोक्तं दुरासदम्॥
अनुवाद:
जब नारद जैसे योगी इसका उपाय नहीं जान सके, तो अन्य साधारण मनुष्यों से इसे जानने की संभावना कैसे हो सकती है? ऋषियों ने इसे दुरूह और कठिन बताया।
श्लोक 43
ततश्चिन्तातुरः सोऽथ बदरीवनमागतः।
तपश्चरामि चात्रेति तदर्थं कृतनिश्चयः॥
अनुवाद:
इस समस्या से चिंतित होकर नारद मुनि बदरीवन गए। उन्होंने ठान लिया कि इस समस्या के समाधान के लिए वे तपस्या करेंगे।
श्लोक 44
तावद् ददर्श पुरतः सनकादीन् मुनीश्वरान्।
कोटिसूर्यसमाभासान् उवाच मुनिसत्तमः॥
अनुवाद:
वहाँ नारद जी ने अपने सामने सनक आदि चार मुनियों को देखा, जो करोड़ों सूर्य के समान तेजस्वी थे। नारद जी ने उन्हें प्रणाम कर कहा।
श्लोक 45
नारद उवाच
इदानीं भूरिभाग्येन भवद्भिः संगमोऽभवत्।
कुमारा ब्रुवतां शीघ्रं कृपां कृत्वा ममोपरि॥
अनुवाद:
नारद जी बोले: हे कुमारों! आज मेरे महान सौभाग्य से आपसे भेंट हो रही है। कृपा करके मुझ पर दया करें और मेरी समस्या का समाधान शीघ्र बताएं।
श्लोक 46
भवन्तो योगिनः सर्वे बुद्धिमन्तो बहुश्रुताः।
पञ्चहायनसंयुक्ताः पूर्वेषामपि पूर्वजाः॥
अनुवाद:
आप सभी महान योगी, बुद्धिमान और वेदों के ज्ञाता हैं। आप पाँच वर्ष की आयु में ही ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और पूर्वजों के भी पूर्वज हैं।
श्लोक 47
सदा वैकुण्ठनिलया हरिकीर्तनतत्पराः।
लीलामृतरसोन्मत्ताः कथामात्रैकजीविनः॥
अनुवाद:
आप सदा वैकुण्ठ में निवास करते हैं, हरि के कीर्तन में तत्पर रहते हैं, और उनकी लीलाओं के अमृत में डूबे रहते हैं। आप श्रीकृष्ण की कथाओं में ही जीवन जीते हैं।
श्लोक 48
हरिः शरणमेव हि नित्यं येषां मुखे वचः।
अथ कालसमादिष्टा जरा युष्मान्न बाधते॥
अनुवाद:
आपके मुख से सदैव भगवान हरि का नाम सुनाई देता है। यहाँ तक कि काल भी आपकी आयु को नहीं छीन सकता।
श्लोक 49
येषां भ्रूभङ्गमात्रेण द्वारपालौ हरेः पुरा।
भ्रूमौ निपतितौ सद्यो यत्कृपातः पुरं गतौ॥
अनुवाद:
आपकी भृकुटि के संकेत मात्र से ही भगवान हरि के द्वारपाल जय और विजय ने वैकुण्ठ से गिरकर धरती पर जन्म लिया था।
श्लोक 50
अहो भाग्यस्य योगेन दर्शनं भवतामिह।
अनुग्रहस्तु कर्तव्यो मयि दीने दयापरैः॥
अनुवाद:
आज मेरे भाग्य से आप महान संतों का दर्शन हुआ। कृपा करके मुझ जैसे दीन पर दया करें और मेरी सहायता करें।
श्लोक 51
अशरीरगिरोक्तं यत् तत्किं साधनमुच्यताम्।
अनुष्ठेयं कथं तावत् प्रब्रुवन्तु सविस्तरम्॥
अनुवाद:
नारद जी बोले: आकाशवाणी के माध्यम से जो कहा गया है, उस कार्य के लिए कौन-सा साधन उपयोगी होगा? कृपया विस्तार से बताएं कि मुझे उसे कैसे पूरा करना चाहिए।
श्लोक 52
भक्तिज्ञानविरागाणां सुखं उत्पद्यते कथम्।
स्थापनं सर्ववर्णेषु प्रेमपूर्वं प्रयत्नतः॥
अनुवाद:
भक्ति, ज्ञान और वैराग्य के सुख को कैसे प्राप्त किया जा सकता है? इन्हें सभी वर्णों में प्रेमपूर्वक किस प्रकार स्थापित किया जा सकता है?
श्लोक 53
कुमारा ऊचुः
मा चिन्तां कुरु देवर्षे हर्षं चित्ते समावह।
उपायः सुखसाध्योऽत्र वर्तते पूर्व एव हि॥
अनुवाद:
कुमारों ने कहा: हे देवर्षि! चिंता मत करो। अपने मन में हर्ष धारण करो। इसका उपाय पहले से ही विद्यमान है और वह अत्यंत सरल है।
श्लोक 54
अहो नारद धन्योऽसि विरक्तानां शिरोमणिः।
सदा श्रीकृष्णदासानां अग्रणीः योगभास्करः॥
अनुवाद:
हे नारद! तुम धन्य हो। तुम वैराग्यवानों के लिए शिरोमणि हो। तुम सदैव श्रीकृष्ण के दासों में अग्रणी और योग के सूर्य के समान प्रकाशवान हो।
श्लोक 55
त्वयि चित्रं न मन्तव्यं भक्त्यर्थं अनुवर्तिनि।
घटते कृष्णदासस्य भक्तेः संस्थापना सदा॥
अनुवाद:
तुम्हारे लिए कोई कार्य कठिन नहीं है। तुम सदैव भक्ति के लिए प्रयासरत रहते हो। श्रीकृष्ण के दास के रूप में तुम्हारा भक्ति स्थापना का प्रयास सफल होता है।
श्लोक 56
ऋषिर्बहवो लोके पन्थानः प्रकटीकृताः।
श्रमसाध्याश्च ते सर्वे प्रायः स्वर्गफलप्रदाः॥
अनुवाद:
अनेकों ऋषियों ने संसार में विभिन्न मार्ग प्रकट किए हैं, जो परिश्रमसाध्य हैं और मुख्यतः स्वर्ग लोक का फल प्रदान करते हैं।
श्लोक 57
वैकुण्ठसाधकं पन्थाः स तु गोप्यो हि वर्तते।
तस्योपदेष्टा पुरुषः प्रायो भाग्येन लभ्यते॥
अनुवाद:
वैकुण्ठ का साधक मार्ग गोपनीय है। उसका उपदेशक दुर्लभ है और केवल भाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होता है।
श्लोक 58
सत्कर्म तव निर्दिष्टं व्योमवाचा तु यत्पुरा।
तदुच्यते श्रृणुष्वाद्य स्थिरचित्तः प्रसन्नधीः॥
अनुवाद:
आकाशवाणी के माध्यम से तुम्हारे लिए जो सत्कर्म निर्दिष्ट किया गया है, वह हम बताते हैं। इसे स्थिर चित्त और प्रसन्न मन से सुनो।
श्लोक 59
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च ते तु कर्मविसूचकाः॥
अनुवाद:
द्रव्ययज्ञ, तप, योगयज्ञ, स्वाध्याय और ज्ञानयज्ञ—ये सभी साधन कर्म मार्ग को इंगित करते हैं।
श्लोक 60
सत्कर्मसूचको नूनं ज्ञानयज्ञः स्मृतो बुधैः।
श्रीमद्भागवतालापः स तु गीतः शुकादिभिः॥
अनुवाद:
बुद्धिमान लोगों ने ज्ञानयज्ञ को सत्कर्म का सूचक बताया है। श्रीमद्भागवत का पाठ और चर्चा ही शुकदेव आदि महर्षियों द्वारा गाया गया श्रेष्ठ ज्ञानयज्ञ है।
श्लोक 61
भक्तिज्ञानविरागाणां तद्घोषेण बलं महत्।
व्रजिष्यति द्वयोः कष्टं सुखं भक्तेर्भविष्यति॥
अनुवाद:
श्रीमद्भागवत की कथा और चर्चा से भक्ति, ज्ञान, और वैराग्य को महान बल मिलेगा। इससे उनके कष्ट दूर होंगे और भक्ति का सुख प्रस्फुटित होगा।
श्लोक 62
प्रलयं हि गमिष्यन्ति श्रीमद्भागवतध्वनेः।
कलेर्दोषा इमे सर्व सिंहशब्दाद् वृका इव॥
अनुवाद:
श्रीमद्भागवत की ध्वनि से कलियुग के सभी दोष नष्ट हो जाएंगे, जैसे सिंह की गर्जना से भेड़िए भाग जाते हैं।
श्लोक 63
ज्ञानवैराग्यसंयुक्ता भक्तिः प्रेमरसावहा।
प्रतिगेहं प्रतिजनं ततः क्रीडां करिष्यति॥
अनुवाद:
भक्ति, जो ज्ञान और वैराग्य से युक्त होकर प्रेमरस को लाती है, प्रत्येक घर और हर व्यक्ति के हृदय में अपनी उपस्थिति से लीला (क्रीड़ा) करेगी।
श्लोक 64
नारद उवाच
वेदवेदान्तघोषैश्च गीतापाठैः प्रबोधितम्।
भक्तिज्ञानविरागाणां नोदतिष्ठत् त्रिकं यदा॥
अनुवाद:
नारद जी बोले: मैंने वेदों और वेदांत के घोष और गीतापाठ से बार-बार भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को जगाने का प्रयास किया, परंतु वे स्थिर नहीं हो सके।
श्लोक 65
श्रीमद्भागवत आलापात् तत्कथं बोधमेष्यति।
तत्कथासु तु वेदार्थः श्लोके श्लोके पदे पदे॥
अनुवाद:
श्रीमद्भागवत की कथा से इनकी चेतना कैसे जागृत होगी? प्रत्येक श्लोक और प्रत्येक शब्द में वेदों का सार समाहित है।
श्लोक 66
छिन्दन्तु संशयं ह्येनं भवन्तोऽमोघदर्शनाः।
विलम्बो नात्र कर्तव्यः शरणागतवत्सलाः॥
अनुवाद:
हे अद्भुत दृष्टिवाले सनकादि मुनियों! आप कृपया इस संशय को दूर करें। शरणागत की सहायता करने में विलंब नहीं होना चाहिए।
श्लोक 67
कुमारा ऊचुः
वेदोपनिषदां सारात् जाता भागवती कथा।
अत्युत्तमा ततो भाति पृथग्भूता फलाकृतिः॥
अनुवाद:
कुमारों ने कहा: वेदों और उपनिषदों के सार से भागवत कथा उत्पन्न हुई है। यह कथा अत्यंत श्रेष्ठ है और पृथक रूप में फलदायक है।
श्लोक 68
आमूलाग्रं रसस्तिष्ठन् नास्ते न स्वाद्यते यथा।
सभूयः संपृथग्भूतः फले विश्वमनोहरः॥
अनुवाद:
जैसे कोई रसपूर्ण फल मूल से ऊपर तक भरा होता है, लेकिन उसका स्वाद पृथक करने पर ही आनंददायक होता है, उसी प्रकार भागवत कथा है।
श्लोक 69
यथा दुग्धे स्थितं सर्पिः न स्वादायोपकल्पते।
पृथग्भूतं हि तद्गव्यं देवानां रसवर्धनम्॥
अनुवाद:
जैसे दूध में घी स्थित होता है, परंतु उसे पृथक किए बिना उसका स्वाद नहीं मिलता। जब वह पृथक किया जाता है, तो देवताओं के लिए भी स्वाद बढ़ाने वाला बनता है।
श्लोक 70
इक्षूणामपि मध्यान्तं शर्करा व्याप्य तिष्ठति।
पृथग्भूता च सा मिष्टा तथा भागवती कथा॥
अनुवाद:
जैसे गन्ने में अंत तक रस व्याप्त रहता है और जब उससे शर्करा बनाई जाती है, तब उसका स्वाद बढ़ता है, वैसे ही भागवत कथा है।
श्लोक 71
इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम्।
भक्तिज्ञानविरागाणां स्थापनाय प्रकाशितम्॥
अनुवाद:
यह भागवत पुराण, जो ब्रह्म के समान पवित्र है, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की स्थापना के लिए प्रकट किया गया है।
श्लोक 72
वेदान्तवेदसुस्नाते गीताया अपि कर्तरि।
परितापवति व्यासे मुह्यत्यज्ञानसागरे॥
अनुवाद:
वेदों और उपनिषदों के ज्ञाता महर्षि वेदव्यास ने भागवत कथा की रचना की। उन्होंने अज्ञान के समुद्र में डूबे लोगों को इससे मुक्त करने का प्रयास किया।
श्लोक 73
तदा त्वया पुरा प्रोक्तं चतुःश्लोकसमन्वितम्।
तदीयश्रवणात् सद्यो निर्बाधो बादरायणः॥
अनुवाद:
तब आपने (नारद ने) वेदव्यास को चार श्लोकों में इस भागवत का उपदेश दिया। इनका श्रवण करते ही वे निर्बाध हो गए।
श्लोक 74
तत्र ते विस्मयः केन यतः प्रश्नकरो भवान्।
श्रीमद्भागवतं श्राव्य शोकदुःखविनाशनम्॥
अनुवाद:
अब इसमें आपका संशय क्यों है? श्रीमद्भागवत का श्रवण शोक और दुःख को नष्ट करने वाला है।
श्लोक 75
नारद उवाच
यद्दर्शनं च विनिहन्त्यशुभानि सद्यः।
श्रेयस्तनोति भवदुःखदवार्दितानाम्।
निःशेषशेषमुखगीतकथैकपानाः।
प्रेमप्रकाशकृतये शरणं गतोऽस्मि॥
अनुवाद:
नारद जी बोले: भागवत के दर्शन मात्र से अशुभ समाप्त होते हैं। यह कथा भौतिक दुःखों को दूर करके मोक्ष प्रदान करती है। इसलिए मैं आपकी शरण में आया हूँ।
श्लोक 76
भाग्योदयेन बहुजन्मसमर्जितेन।
सत्संगमं च लभते पुरुषो यदा वै।
अज्ञानहेतुकृतमोहमदान्धकार।
नाशं विधाय हि तदोदयते विवेकः॥
अनुवाद:
कई जन्मों के पुण्य से सत्संग प्राप्त होता है। सत्संग के प्रभाव से अज्ञान, मोह और अंधकार का नाश होता है और विवेक का उदय होता है।
इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये कुमारनारदसंवादो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु॥
(इस प्रकार पद्मपुराण के उत्तर खंड में श्रीमद्भागवत माहात्म्य का यह द्वितीय अध्याय, जिसमें नारद और कुमारों का संवाद है, पूर्ण हुआ।)
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