भागवत तृतीय स्कंध, चतुर्थ अध्याय( हिन्दी अनुवाद)

Sooraj Krishna Shastri
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भागवत तृतीय स्कंध, चतुर्थ अध्याय( हिन्दी अनुवाद)

यह चित्र उद्धव और विदुर के संवाद का एक कलात्मक प्रस्तुतीकरण है, जो यमुना नदी के तट पर हुआ। यह दृश्य उनकी गहन चर्चा और उस पवित्र क्षण की दिव्यता को दर्शाता है।



भागवत तृतीय स्कंध, चतुर्थ अध्याय( हिन्दी अनुवाद)

 यहां भागवत तृतीय स्कंध, चतुर्थ अध्याय( हिन्दी अनुवाद) के प्रत्येक श्लोक का विस्तारपूर्वक हिन्दी अनुवाद प्रारंभ  कर रहा हूँ:


श्लोक 1

अथ ते तदनुज्ञाता भुक्त्वा पीत्वा च वारुणीम्।
तया विभ्रंशितज्ञाना दुरुक्तैर्मर्म पस्पृशुः ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण के प्रस्थान के बाद, उनकी अनुमति से यदुवंश के सदस्य भोजन करने लगे और वारुणी (मदिरा) का पान करने लगे। लेकिन उस मदिरा के प्रभाव से उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई। उनका ज्ञान और विवेक समाप्त हो गया, और वे कटु वचनों का प्रयोग करके एक-दूसरे को गहरे आघात पहुँचाने लगे। उनके मन में वैर-भाव उत्पन्न हो गया।


श्लोक 2

तेषां मैरेयदोषेण विषमीकृतचेतसाम्।
निम्लोचति रवावासीत् वेणूनामिव मर्दनम् ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
मदिरा के दोष से उनकी चेतना विषम हो गई, यानी उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। सूर्य अस्त हो चुका था, और वातावरण में गहन उदासी छा गई। यदुवंश के लोग ऐसे झगड़ने लगे जैसे बाँसुरी के स्वर टकरा रहे हों। उनके बीच का सामंजस्य और प्रेम समाप्त हो गया।


श्लोक 3

भगवान् स्वात्ममायाया गतिं तां अवलोक्य सः।
सरस्वतीं उपस्पृश्य वृक्षमूलमुपाविशत् ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य माया की इस अद्भुत लीला को देखा, जिसमें यदुवंश के विनाश का समय आ गया था। उन्होंने इस सबको अपने अंतर्यामी दृष्टि से स्वीकार किया और सरस्वती नदी के जल में आचमन करके शांति से एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए।


श्लोक 4

अहं चोक्तो भगवता प्रपन्नार्तिहरेण ह।
बदरीं त्वं प्रयाहीति स्वकुलं सञ्जिहीर्षुणा ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
मैं, उद्धव, जो भगवान श्रीकृष्ण का परम भक्त हूँ, उनसे यह आदेश प्राप्त किया। भगवान, जो शरणागतों के दुखों को हरते हैं, ने मुझसे कहा, "तुम बदरी आश्रम की ओर प्रस्थान करो।" वह अपने कुल (यदुवंश) का अंत करना चाहते थे और मुझे उससे दूर रखना चाहते थे।


श्लोक 5

अथापि तदभिप्रेतं जानन् अहं अरिन्दम।
पृष्ठतोऽन्वगमं भर्तुः पादविश्लेषणाक्षमः ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
हे शत्रुओं के दमन करने वाले (विदुर)! मैं भगवान श्रीकृष्ण की माया को समझ रहा था और उनके संकेत को जानता था। फिर भी, उनके चरणों से अलग होना मेरे लिए असहनीय था, और इस कारण मैं उनके पीछे-पीछे चलने लगा।


श्लोक 6

अद्राक्षमेकमासीनं विचिन्वन् दयितं पतिम्।
श्रीनिकेतं सरस्वत्यां कृतकेतमकेतनम् ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
जब मैंने अपने प्रिय स्वामी श्रीकृष्ण की खोज की, तो देखा कि वे सरस्वती नदी के किनारे एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए हैं। वह स्थान एक अस्थायी निवास था, लेकिन वह भगवान की दिव्यता से पवित्र हो गया था।


श्लोक 7

श्यामावदातं विरजं प्रशान्तारुणलोचनम्।
दोर्भिश्चतुर्भिः विदितं पीतकौशाम्बरेण च ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण का दिव्य स्वरूप अत्यंत आकर्षक और अद्वितीय था। उनका श्यामवर्ण शरीर उज्ज्वलता और निर्मलता से परिपूर्ण था। उनके नेत्र शांति और प्रेम से भरे हुए थे, जिनकी लालिमा किसी शांत सूर्यास्त जैसी लगती थी। उन्होंने चार भुजाएँ धारण कर रखी थीं, जो उनकी शक्ति और पूर्णता का प्रतीक थीं। उनका पीताम्बर वस्त्र उन्हें और भी दिव्यता प्रदान कर रहा था।


श्लोक 8

वाम ऊरौ अवधिश्रित्य दक्षिणाङ्‌घ्रिसरोरुहम्।
अपाश्रितार्भकाश्वत्थं अकृशं त्यक्तपिप्पलम् ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
भगवान ने अपने बाएँ पैर को दाहिने पैर की जंघा पर रखा हुआ था। उनका यह विश्राम का स्वरूप अत्यंत मनमोहक और शांतिपूर्ण था। वे एक छोटे अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष के नीचे बैठे थे, जो अपने पत्तों को त्याग चुका था। यह दृश्य भगवान की तपस्वी मुद्रा और सादगी को दर्शाता है।


श्लोक 9

तस्मिन् महाभागवतो द्वैपायनसुहृत्सखा।
लोकान् अनुचरन् सिद्ध आससाद यदृच्छया ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
उस समय वहां एक महान भागवत (उद्धव जी) उपस्थित हुए, जो महर्षि वेदव्यास (द्वैपायन) के सखा और उनके दिव्य विचारों के सहयोगी थे। वे अपनी सिद्धि और तप के कारण दिव्य लोकों में विचरण करते हुए यहाँ अनायास ही भगवान के दर्शन के लिए पहुँच गए। यह उनकी भक्ति और भगवान की कृपा का अद्भुत संयोग था।


श्लोक 10

तस्यानुरक्तस्य मुनेर्मुकुन्दः
प्रमोदभावानतकन्धरस्य।
आश्रृण्वतो मां अनुरागहास
समीक्षया विश्रमयन् उवाच ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
उद्धव जी भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गहरे प्रेम और भक्ति से ओतप्रोत होकर उनके चरणों में झुके हुए थे। उनका हृदय प्रेम से भर गया था, और उनकी आँखें भगवान के दर्शन से आनंदित थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने अनुरागपूर्ण हास्य (मुस्कान) और करुणा से उन्हें शांत किया। उनके वचन प्रेम और स्नेह से परिपूर्ण थे, जिससे उद्धव जी का मन स्थिर और शीतल हो गया।


श्लोक 11

श्रीभगवानुवाच
वेदाहमन्तर्मनसीप्सितं ते
ददामि यत्तद् दुरवापमन्यैः।
सत्रे पुरा विश्वसृजां वसूनां
मत्सिद्धिकामेन वसो त्वयेष्टः ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: "हे उद्धव, मैं तुम्हारे हृदय की गुप्त इच्छाओं को भलीभांति जानता हूँ। तुम्हें जो चाहिए, वह मैं तुम्हें दूँगा। यह वही है जो संसार में किसी और को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। पुरातन काल में, जब वसु (देवता) मेरी सिद्धि और कृपा प्राप्त करने के लिए यज्ञ कर रहे थे, तुमने भी उस यज्ञ में मेरी आराधना की थी। तुम्हारी उस आराधना के कारण ही मैं आज तुम्हें यह दुर्लभ वरदान प्रदान कर रहा हूँ।"


श्लोक 12

स एष साधो चरमो भवानां
आसादितस्ते मदनुग्रहो यत्।
यन्मां नृलोकान् रह उत्सृजन्तं
दिष्ट्या ददृश्वान् विशदानुवृत्त्या ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
भगवान ने कहा: "हे साधु उद्धव! यह तुम्हारे जीवन का अंतिम जन्म है। यह मेरा अनुग्रह है कि तुमने मुझे इस प्रकार देखा है। जब मैं इस लोक को छोड़ रहा हूँ, तब तुमने अपनी पवित्र और निष्कलंक भक्ति के कारण मेरा यह स्वरूप देखा है। यह तुम्हारी विशुद्ध निष्ठा और प्रेम का ही फल है।"


श्लोक 13

पुरा मया प्रोक्तमजाय नाभ्ये
पद्मे निषण्णाय ममादिसर्गे।
ज्ञानं परं मन्महिमावभासं
यत्सूरयो भागवतं वदन्ति ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"प्राचीन काल में, जब मैंने सृष्टि की रचना के समय ब्रह्मा जी को अपने नाभि-कमल पर उत्पन्न किया था, तब मैंने उन्हें एक दिव्य ज्ञान प्रदान किया। वह ज्ञान मेरे महिमामंडित स्वरूप को प्रकाशित करता है। यह वही ज्ञान है, जिसे महान ऋषि और संत 'भागवत' कहते हैं। यह ज्ञान आत्मा का परम प्रकाश और ब्रह्माण्ड का रहस्य प्रकट करता है।"


श्लोक 14

इत्यादृतोक्तः परमस्य पुंसः
प्रतिक्षणानुग्रहभाजनोऽहम्।
स्नेहोत्थरोमा स्खलिताक्षरस्तं
मुञ्चञ्छुचः प्राञ्जलिराबभाषे ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
श्रीकृष्ण की इन प्रेमपूर्ण और गहन वचनों को सुनकर मैं, उद्धव, अत्यंत आनंदित हुआ। मेरा प्रत्येक क्षण उनके अनुग्रह से परिपूर्ण था। उनके प्रति मेरे हृदय में असीम स्नेह और भक्ति उत्पन्न हुई। मेरी आँखें आंसुओं से भर गईं, और मैं प्रेमविह्वल होकर उनके चरणों में झुक गया। मैं कांपती हुई वाणी से उनकी स्तुति करने लगा।


श्लोक 15

को न्वीश ते पादसरोजभाजां
सुदुर्लभोऽर्थेषु चतुर्ष्वपीह।
तथापि नाहं प्रवृणोमि भूमन्
भवत्पदाम्भोज निषेवणोत्सुकः ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"हे ईश्वर! आपके चरण कमलों का स्पर्श पाना अत्यंत दुर्लभ है, चाहे वह चार प्रकार के अर्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में ही क्यों न हो। फिर भी, हे प्रभु! मैं किसी अन्य चीज को नहीं अपनाना चाहता हूँ। मेरा मन तो केवल आपके चरणों की सेवा में ही लगा रहता है। आपके प्रति मेरी भक्ति अडिग और अनन्य है।"


श्लोक 16

कर्माण्यनीहस्य भवोऽभवस्य
ते दुर्गाश्रयोऽथारिभयात्पलायनम्।
कालात्मनो यत्प्रमदायुताश्रयः
स्वात्मन् रतेः खिद्यति धीर्विदामिह ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"हे प्रभु! आपके कर्म तो अद्भुत हैं। आप स्वयं निष्क्रिय रहते हुए भी सृष्टि की रचना, पालन और संहार करते हैं। आप जन्म-मरण के बंधनों से परे हैं। फिर भी आपने मनुष्यों की तरह इस संसार में अवतार लिया और उन कठिन परिस्थितियों का सामना किया। आप काल के अधिष्ठाता होते हुए भी उसके प्रभाव से अछूते हैं। आप सबकुछ जानने वाले हैं, फिर भी कभी-कभी ऐसा लगता है कि आप मानो अज्ञानता का अनुभव करते हैं। यह सब केवल आपकी लीला है, जिसे समझ पाना साधारण बुद्धि वालों के लिए अत्यंत कठिन है।"


श्लोक 17

मन्त्रेषु मां वा उपहूय यत्त्वं
अकुण्ठिताखण्डसदात्मबोधः।
पृच्छेः प्रभो मुग्ध इवाप्रमत्तः
तन्नो मनो मोहयतीव देव ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"हे प्रभु! आप, जो पूर्ण आत्मज्ञान के स्वामी हैं और कभी भ्रमित नहीं हो सकते, जब आपने मुझे मंत्रों के माध्यम से बुलाया और फिर मुझसे प्रश्न पूछे, तो वह मेरे लिए अत्यंत आश्चर्यजनक और मोहक था। आप तो सर्वज्ञ हैं, फिर भी आपने एक मुग्ध व्यक्ति की तरह व्यवहार किया। आपकी यह लीला मेरे मन को मोहित कर देती है।"


श्लोक 18

ज्ञानं परं स्वात्मरहःप्रकाशं
प्रोवाच कस्मै भगवान् समग्रम्।
अपि क्षमं नो ग्रहणाय भर्तः
वदाञ्जसा यद् वृजिनं तरेम ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"हे भगवन्! आपने वह उच्चतम ज्ञान प्रदान किया है, जो आत्मा के रहस्यों को प्रकाशित करता है और जीवन के सभी बंधनों को तोड़ देता है। कृपया हमें यह बताएं कि क्या हम इस ज्ञान को पूर्ण रूप से ग्रहण करने के योग्य हैं? कृपया हमें मार्गदर्शन दें ताकि हम संसार के दुखों और कष्टों को पार कर सकें।"


श्लोक 19

इत्यावेदितहार्दाय मह्यं स भगवान् परः।
आदिदेश अरविन्दाक्ष आत्मनः परमां स्थितिम् ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"मेरे हृदय में उठे हुए इन प्रश्नों को सुनकर भगवान, जो कमल नेत्र वाले हैं और जो सर्वश्रेष्ठ हैं, उन्होंने मुझे आत्मा की परम स्थिति के विषय में विस्तार से समझाया। उनका उपदेश मेरे लिए गहन और प्रेरणादायक था।"


श्लोक 20

स एवं आराधितपादतीर्थाद्
अधीततत्त्वात्मविबोधमार्गः।
प्रणम्य पादौ परिवृत्य देवं
इहागतोऽहं विरहातुरात्मा ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"इस प्रकार मैंने भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा की और उनकी कृपा से आत्मज्ञान के गहन मार्ग को समझा। उनके चरणों में प्रणाम करके और उनकी कृपा से प्रेरित होकर, मैं यहाँ आया हूँ। उनके वियोग की पीड़ा मेरे हृदय में बनी हुई है।"


श्लोक 21

सोऽहं तद्दर्शनाह्लाद वियोगार्तियुतः प्रभो।
गमिष्ये दयितं तस्य बदर्याश्रममण्डलम् ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"हे प्रभु! भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से मुझे जो आनंद मिला, वह आज भी मेरे हृदय में बना हुआ है। लेकिन उनके वियोग की पीड़ा भी मेरे मन को व्यथित कर रही है। अब मैं उनके प्रिय बदरी आश्रम की ओर जाने का निश्चय कर चुका हूँ।"


श्लोक 22

यत्र नारायणो देवो नरश्च भगवान् ऋषिः।
मृदु तीव्रं तपो दीर्घं तेपाते लोकभावनौ ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"बदरी आश्रम वह स्थान है, जहाँ नारायण भगवान और नर ऋषि तपस्या करते हैं। वे दोनों देवताओं और मनुष्यों के कल्याण के लिए अपनी मृदु और तीव्र तपस्या में लीन रहते हैं। वह स्थान अत्यंत पवित्र और कल्याणकारी है।"


श्लोक 23

श्रीशुक उवाच
इति उद्धवाद् उपाकर्ण्य सुहृदां दुःसहं वधम्।
ज्ञानेनाशमयत् क्षत्ता शोकं उत्पतितं बुधः ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
श्री शुकदेव जी ने कहा: उद्धव जी के वचन सुनने के बाद विदुर जी को यदुवंश के विनाश की कथा और श्रीकृष्ण के वियोग की पीड़ा अत्यंत कष्टप्रद लगी। लेकिन उन्होंने अपने ज्ञान और विवेक के बल पर अपने शोक को शांत कर लिया। विदुर जी एक ज्ञानी और बुद्धिमान व्यक्ति थे।


श्लोक 24

स तं महाभागवतं व्रजन्तं कौरवर्षभः।
विश्रम्भाद् अभ्यधत्तेदं मुख्यं कृष्णपरिग्रहे ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
जब उद्धव जी वहाँ से प्रस्थान कर रहे थे, तो कौरव वंश में श्रेष्ठ विदुर जी, जो भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गहरी भक्ति रखते थे, ने अत्यंत श्रद्धा और प्रेमपूर्वक उनसे यह मुख्य बात पूछी। विदुर जी को उद्धव जी के श्रीकृष्ण के साथ घनिष्ठ संबंध के बारे में जानने की उत्सुकता थी।


श्लोक 25

विदुर उवाच
ज्ञानं परं स्वात्मरहःप्रकाशं
यदाह योगेश्वर ईश्वरस्ते।
वक्तुं भवान्नोऽर्हति यद्धि विष्णोः
भृत्याः स्वभृत्यार्थकृतश्चरन्ति ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
विदुर जी ने कहा: "हे उद्धव जी! भगवान श्रीकृष्ण, जो योगेश्वर और समस्त सृष्टि के ईश्वर हैं, उन्होंने जो दिव्य ज्ञान प्रदान किया है, वह आत्मा के गहन रहस्यों को प्रकट करता है। कृपया आप हमें उस ज्ञान को विस्तार से बताएं। श्रीकृष्ण के भक्त तो उन्हीं की प्रसन्नता के लिए संसार में विचरण करते हैं और उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। आप इस कार्य के लिए सर्वाधिक योग्य हैं।"


श्लोक 26

उद्धव उवाच
ननु ते तत्त्वसंराध्य ऋषिः कौषारवोऽन्ति मे।
साक्षाद् भगवतादिष्टो मर्त्यलोकं जिहासता ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
उद्धव जी ने कहा: "हे विदुर जी! जो दिव्य ज्ञान आप मुझसे सुनना चाहते हैं, वह ज्ञान श्रीकृष्ण ने कौषारव (मित्र) ऋषि को प्रदान किया था। जब भगवान इस पृथ्वी लोक को छोड़ने वाले थे, तब उन्होंने उस ज्ञान को सीधे उन्हें प्रदान किया। आप उस ऋषि से यह ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।"


श्लोक 27

श्रीशुक उवाच
इति सह विदुरेण विश्वमूर्तेः
गुणकथया सुधया प्लावितोरुतापः।
क्षणमिव पुलिने यमस्वसुस्तां
समुषित औपगविर्निशां ततोऽगात् ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
श्री शुकदेव जी ने कहा: इस प्रकार उद्धव जी ने विदुर जी को भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य गुणों और लीलाओं का अमृतमय वर्णन सुनाया। इस कथा से विदुर जी के हृदय का समस्त संताप (दुःख) शांत हो गया। दोनों ने यमुना के किनारे कुछ समय व्यतीत किया, जो उन्हें एक क्षण जैसा प्रतीत हुआ। उसके बाद उद्धव जी वहाँ से बदरी आश्रम के लिए प्रस्थान कर गए।


श्लोक 28

राजोवाच
निधनमुपगतेषु वृष्णिभोजेषु
अधिरथयूथपयूथपेषु मुख्यः।
स तु कथमवशिष्ट उद्धवो
यद्धरिरपि तत्यज आकृतिं त्र्यधीशः ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
राजा परीक्षित ने पूछा: "हे गुरुदेव (श्री शुकदेव जी)! जब वृष्णि और भोज वंश का विनाश हो गया और श्रीकृष्ण, जो त्रिलोकी के स्वामी हैं, ने अपनी लीला को समाप्त कर दिया, तो उद्धव जी इस विनाश के बाद कैसे जीवित रह सके? वे श्रीकृष्ण के इतने घनिष्ठ भक्त थे, फिर उनका वियोग सहन करना कैसे संभव हुआ?"


श्लोक 29

श्रीशुक उवाच
ब्रह्मशापापदेशेन कालेनामोघवाञ्छितः।
संहृत्य स्वकुलं स्फीतं त्यक्ष्यन् देहमचिन्तयत् ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
श्री शुकदेव जी ने उत्तर दिया: "भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी के शाप का बहाना बनाकर अपने दिव्य वंश का अंत किया। यह उनकी माया का अद्भुत खेल था। उन्होंने अपने यदुवंश को समेटने के बाद स्वयं इस पृथ्वी पर अपने देह को त्यागने का निर्णय किया। यह उनकी इच्छानुसार और पूर्व निर्धारित योजना थी।"


श्लोक 30

अस्मात् लोकादुपरते मयि ज्ञानं मदाश्रयम्।
अर्हत्युद्धव एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वरः ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"भगवान ने कहा था: जब मैं इस संसार से चला जाऊँगा, तब मेरा ज्ञान और मेरी भक्ति उद्धव जी के माध्यम से जीवित रहेगी। उद्धव, जो भक्तों में श्रेष्ठ हैं और मेरे पूर्ण प्रेम और ज्ञान के पात्र हैं, वे ही इस ज्ञान को आगे बढ़ाएंगे।"


श्लोक 31

नोद्धवोऽण्वपि मन्न्यूनो यद्‍गुणैर्नार्दितः प्रभुः।
अतो मद्वयुनं लोकं ग्राहयन् इह तिष्ठतु ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"उद्धव जी मेरे दिव्य गुणों में अंशमात्र भी न्यून नहीं हैं। वे मेरी भक्ति, ज्ञान और विवेक के पूर्ण अधिकारी हैं। अतः मैंने उन्हें आदेश दिया कि वे इस पृथ्वी लोक पर रुककर मेरे ज्ञान और उपदेश को संसार में प्रचारित करें।"


श्लोक 32

एवं त्रिलोकगुरुणा सन्दिष्टः शब्दयोनिना।
बदर्याश्रममासाद्य हरिमीजे समाधिना ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
श्री शुकदेव जी ने कहा: "भगवान श्रीकृष्ण, जो तीनों लोकों के गुरु और ज्ञान के परम स्रोत हैं, ने उद्धव जी को यह निर्देश दिया। उद्धव जी ने उनके आदेश का पालन करते हुए बदरी आश्रम की ओर प्रस्थान किया। वहाँ उन्होंने भगवान नारायण की भक्ति में समाधि लगाकर उन्हें आराधित किया। वे पूर्णतया ध्यानमग्न होकर भगवान की सेवा में लीन हो गए।"


श्लोक 33

विदुरोऽप्युद्धवात् श्रुत्वा कृष्णस्य परमात्मनः।
क्रीडयोपात्तदेहस्य कर्माणि श्लाघितानि च ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"विदुर जी ने उद्धव जी से भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य कार्यों, उनकी अद्भुत लीलाओं और उनके अवतार के उद्देश्यों के बारे में सुना। भगवान श्रीकृष्ण ने, जो परमात्मा हैं, अपने क्रीड़ा स्वरूप में यह देह धारण की थी। विदुर जी ने उनकी महिमा का श्रवण कर उनकी अत्यंत सराहना की।"


श्लोक 34

देहन्यासं च तस्यैवं धीराणां धैर्यवर्धनम्।
अन्येषां दुष्करतरं पशूनां विक्लवात्मनाम् ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"श्रीकृष्ण के इस पृथ्वी लोक से देह त्यागने की कथा सुनकर विदुर जी ने समझा कि यह कथा धीर और स्थिरचित्त व्यक्तियों के लिए धैर्य और साहस को बढ़ाने वाली है। लेकिन कमजोर और अस्थिर मन वाले व्यक्तियों (विकल्प और भय से भरे हुए) के लिए इसे समझना या सहन करना अत्यंत कठिन है।"


श्लोक 35

आत्मानं च कुरुश्रेष्ठ कृष्णेन मनसेक्षितम्।
ध्यायन् गते भागवते रुरोद प्रेमविह्वलः ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"हे कुरुश्रेष्ठ (परीक्षित), विदुर जी ने भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपने गहरे प्रेम के कारण उनके अवतार और उनकी लीलाओं का स्मरण करते हुए ध्यान लगाया। भगवान की दिव्य कथा सुनकर और उनके वियोग की अनुभूति से वे प्रेमविह्वल हो गए और आंसू बहाने लगे। उनका हृदय श्रीकृष्ण की भक्ति और प्रेम में पूर्णतया डूब चुका था।"


श्लोक 36

कालिन्द्याः कतिभिः सिद्ध अहोभिर्भरतर्षभ।
प्रापद्यत स्वःसरितं यत्र मित्रासुतो मुनिः ॥

विस्तृत हिन्दी अनुवाद:
"हे भरतवंशी (परीक्षित)! विदुर जी ने कुछ दिनों तक यमुना के किनारे रहकर भगवान की कथा और उनकी लीला का चिंतन किया। इसके बाद उन्होंने स्वर्गीय गंगा नदी की ओर प्रस्थान किया, जहाँ उन्हें महर्षि मैत्रेय से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। महर्षि मैत्रेय ने भी भगवान श्रीकृष्ण के ज्ञान का गहन अध्ययन किया था।"


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे चतुर्थोऽध्यायः ॥

इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण, जो महान संतों और परमहंसों के लिए परम ग्रंथ है, के तृतीय स्कंध में विदुर और उद्धव के संवाद का यह चौथा अध्याय समाप्त होता है।


यहां भागवत तृतीय स्कंध, चतुर्थ अध्याय( हिन्दी अनुवाद) के प्रत्येक श्लोक का विस्तारपूर्वक हिन्दी अनुवाद सम्पन्न हुआ। 

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