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यह चित्र श्रीमद्भागवत महापुराण के चतुर्थ स्कंध, प्रथम अध्याय के आधार पर बनाया गया है। यह सृष्टि की दिव्य प्रक्रिया, मनु और उनकी संतानों, और अत्रि मुनि की तपस्या को प्रदर्शित करता है। |
भागवत चतुर्थ स्कंध, प्रथम अध्याय (हिन्दी अनुवाद)
यहाँ श्रीमद्भागवत महापुराण के चतुर्थ स्कंध, प्रथम अध्याय का सरल और व्यवस्थित हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है।
श्लोक 1
मैत्रेय उवाच
मनोस्तु शतरूपायां तिस्रः कन्याश्च जज्ञिरे।
आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति विश्रुताः॥
अनुवाद:
(मैत्रेय मुनि बोले) - स्वायम्भुव मनु और उनकी पत्नी शतरूपा से तीन कन्याएँ उत्पन्न हुईं, जिन्हें आकूति, देवहूति और प्रसूति के नाम से जाना गया।
श्लोक 2
आकूतिं रुचये प्रादादपि भ्रातृमतीं नृपः।
पुत्रिकाधर्ममाश्रित्य शतरूपानुमोदितः॥
अनुवाद:
राजा मनु ने पुत्रिका धर्म का पालन करते हुए अपनी बड़ी बेटी आकूति का विवाह अपने भाई ऋषि रुचि से किया। इस निर्णय में शतरूपा ने सहमति दी।
श्लोक 3
प्रजापतिः स भगवान् रुचिस्तस्यामजीजनत्।
मिथुनं ब्रह्मवर्चस्वी परमेण समाधिना॥
अनुवाद:
प्रजापति रुचि ने अपनी पत्नी आकूति से योग और समाधि के माध्यम से एक दिव्य जोड़ी (पुत्र और पुत्री) को जन्म दिया।
श्लोक 4
यस्तयोः पुरुषः साक्षात् विष्णुर्यज्ञस्वरूपधृक्।
या स्त्री सा दक्षिणा भूतेरंशभूतानपायिनी॥
अनुवाद:
उनमें से जो पुत्र था, वह स्वयं भगवान विष्णु का यज्ञस्वरूप था, और जो पुत्री थी, वह दक्षिणा के रूप में यज्ञ की पूर्ति करने वाली शक्ति थी।
श्लोक 5
आनिन्ये स्वगृहं पुत्र्याः पुत्रं विततरोचिषम्।
स्वायम्भुवो मुदा युक्तो रुचिर्जग्राह दक्षिणाम्॥
अनुवाद:
मनु ने अपनी पुत्री के पुत्र (भगवान विष्णु) को अपने घर लाया और रुचि ने प्रसन्नता से अपनी पुत्री (दक्षिणा) को पत्नी के रूप में स्वीकार किया।
श्लोक 6
तां कामयानां भगवान् उवाह यजुषां पतिः।
तुष्टायां तोषमापन्नो जनयद् द्वादशात्मजान्॥
अनुवाद:
यज्ञपति भगवान ने अपनी पत्नी दक्षिणा के साथ आनंदपूर्वक बारह पुत्रों को जन्म दिया, जब वे प्रसन्न हुईं।
श्लोक 7
तोषः प्रतोषः सन्तोषो भद्रः शान्तिरिडस्पतिः।
इध्मः कविर्विभुः स्वह्नः सुदेवो रोचनो द्विषट्॥
अनुवाद:
उन बारह पुत्रों के नाम हैं: तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शांति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वाह्न, सुदेव और रोचन।
श्लोक 8
तुषिता नाम ते देवा आसन् स्वायम्भुवान्तरे।
मरीचिमिश्रा ऋषयो यज्ञः सुरगणेश्वरः॥
अनुवाद:
स्वायम्भुव मन्वंतर में ये बारह पुत्र तुषित नामक देवता बने। मरीचि और अन्य ऋषियों के साथ भगवान यज्ञ इन देवताओं के अधिपति थे।
श्लोक 9
प्रियव्रतोत्तानपादौ मनुपुत्रौ महौजसौ।
तत्पुत्रपौत्रनप्तॄणां अनुवृत्तं तदन्तरम्॥
अनुवाद:
स्वायम्भुव मनु के दो पुत्र थे—प्रियव्रत और उत्तानपाद। इन दोनों के पुत्रों, पौत्रों और प्रपौत्रों ने मन्वंतर में धर्म का पालन करते हुए शासन किया।
श्लोक 10
देवहूतिमदात् तात कर्दमायात्मजां मनुः।
तत्संबन्धि श्रुतप्रायं भवता गदतो मम॥
अनुवाद:
मनु ने अपनी दूसरी पुत्री देवहूति का विवाह ऋषि कर्दम से किया। उनके वंश की कहानी आप पहले सुन चुके हैं।
श्लोक 11
दक्षाय ब्रह्मपुत्राय प्रसूतिं भगवान्मनुः।
प्रायच्छद्यत्कृतः सर्गः त्रिलोक्यां विततो महान्॥
अनुवाद:
मनु ने अपनी तीसरी पुत्री प्रसूति का विवाह ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष से किया। दक्ष ने सृष्टि का विस्तार करके तीनों लोकों को समृद्ध किया।
श्लोक 12
याः कर्दमसुताः प्रोक्ता नव ब्रह्मर्षिपत्नयः।
तासां प्रसूतिप्रसवं प्रोच्यमानं निबोध मे॥
अनुवाद:
कर्दम ऋषि और देवहूति की नौ पुत्रियाँ थीं, जिनका विवाह नौ ब्रह्मर्षियों से हुआ। अब उनके वंश का वर्णन सुनो।
श्लोक 13
पत्नी मरीचेस्तु कला सुषुवे कर्दमात्मजा।
कश्यपं पूर्णिमानं च ययोः आपूरितं जगत्॥
अनुवाद:
कर्दम ऋषि की पुत्री कला, मरीचि ऋषि की पत्नी बनी। उनसे दो पुत्र हुए—कश्यप और पूर्णिमा। इन दोनों की संतानों से समस्त जगत भर गया।
श्लोक 14
पूर्णिमासूत विरजं विश्वगं च परन्तप।
देवकुल्यां हरेः पाद शौचाद्याभूत्सरिद्दिवः॥
अनुवाद:
पूर्णिमा से विरज और विश्वग नाम के पुत्र उत्पन्न हुए। और श्रीहरि के चरण कमलों को धोने के जल से गंगा नदी (देवकुल्या) का प्रादुर्भाव हुआ।
श्लोक 15
अत्रेः पत्न्यनसूया त्रीन् जज्ञे सुयशसः सुतान्।
दत्तं दुर्वाससं सोमं आत्मेशब्रह्मसम्भवान्॥
अनुवाद:
अत्रि मुनि की पत्नी अनुसूया ने तीन अद्भुत पुत्रों को जन्म दिया—दत्तात्रेय (भगवान विष्णु के अंश), दुर्वासा (भगवान शिव के अंश) और चंद्र (ब्रह्माजी के अंश)।
श्लोक 16
विदुर उवाच
अत्रेर्गृहे सुरश्रेष्ठाः स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः।
किञ्चित् चिकीर्षवो जाता एतदाख्याहि मे गुरो॥
अनुवाद:
विदुर ने पूछा— "हे गुरुदेव! अत्रि मुनि के घर पर ये तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, और महेश) क्यों प्रकट हुए? कृपया मुझे इसके बारे में विस्तार से बताइए।"
श्लोक 17
मैत्रेय उवाच
ब्रह्मणा चोदितः सृष्टौ अत्रिर्ब्रह्मविदां वरः।
सह पत्न्या ययावृक्षं कुलाद्रिं तपसि स्थितः॥
अनुवाद:
(मैत्रेय मुनि ने कहा) -सृष्टि की वृद्धि के लिए ब्रह्माजी के आदेश पर अत्रि मुनि अपनी पत्नी अनुसूया के साथ तपस्या करने के लिए कुलाचल पर्वत पर गए।
श्लोक 18
तस्मिन् प्रसूनस्तबक पलाशाशोककानने।
वार्भिः स्रवद्भिरुद्घुष्टे निर्विन्ध्यायाः समन्ततः॥
अनुवाद:
वह स्थान फूलों के गुच्छों, पलाश, और अशोक के पेड़ों से भरा हुआ था, जहाँ से निर्मल जल बह रहा था और वहाँ की हर दिशा पवित्र ध्वनियों से गूँज रही थी।
श्लोक 19
प्राणायामेन संयम्य मनो वर्षशतं मुनिः।
अतिष्ठत् एकपादेन निर्द्वन्द्वोऽनिलभोजनः॥
अनुवाद:
अत्रि मुनि ने प्राणायाम के द्वारा अपने मन को संयमित किया और सौ वर्षों तक एक पैर पर खड़े होकर तपस्या की। उन्होंने केवल वायु को भोजन के रूप में ग्रहण किया।
श्लोक 20
शरणं तं प्रपद्येऽहं य एव जगदीश्वरः।
प्रजां आत्मसमां मह्यं प्रयच्छत्विति चिन्तयन्॥
अनुवाद:
उन्होंने भगवान से प्रार्थना की, "मैं उस जगदीश्वर की शरण में हूँ, जो सृष्टि का पालन करता है। कृपया मुझे ऐसी संतान प्रदान करें, जो मेरे समान हो।"
श्लोक 21
तप्यमानं त्रिभुवनं प्राणायामैधसाग्निना।
निर्गतेन मुनेर्मूर्ध्नः समीक्ष्य प्रभवस्त्रयः॥
अनुवाद:
अत्रि मुनि के प्रचंड तप के कारण तीनों लोक तप की अग्नि से जलने लगे। यह देख ब्रह्मा, विष्णु, और महेश प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हुए।
श्लोक 22
अप्सरोमुनिगन्धर्व सिद्धविद्याधरोरगैः।
वितायमानयशसः तदा आश्रमपदं ययुः॥
अनुवाद:
अप्सराएँ, मुनि, गंधर्व, सिद्ध, विद्याधर और नागगण भी अत्रि मुनि के आश्रम में आए और उनके तप की महिमा का गान करने लगे।
श्लोक 23
तत्प्रादुर्भावसंयोग विद्योतितमना मुनिः।
उत्तिष्ठन्नेकपादेन ददर्श विबुधर्षभान्॥
अनुवाद:
देवताओं के प्रकट होने से अत्रि मुनि का मन आलोकित हो गया। एक पैर पर खड़े हुए उन्होंने उन देवताओं को देखा।
श्लोक 24
प्रणम्य दण्डवद्भूमौ उपतस्थेऽर्हणाञ्जलिः।
वृषहंससुपर्णस्थान् स्वैः स्वैश्चिह्नैश्च चिह्नितान्॥
अनुवाद:
अत्रि मुनि ने देवताओं—ब्रह्मा, विष्णु और शिव को पहचानकर दंडवत प्रणाम किया। उन्होंने अपने चिह्नों (हंस, वृषभ और गरुड़) से युक्त देवताओं का सम्मानपूर्वक अभिवादन किया।
श्लोक 25
कृपावलोकेन हसद् वदनेनोपलम्भितान्।
तद् रोचिषा प्रतिहते निमील्य मुनिरक्षिणी॥
अनुवाद:
उनके कृपापूर्ण दर्शन और मुस्कुराते हुए चेहरों से प्रसन्न होकर, मुनि अत्रि ने अपनी आँखें बंद कर लीं, क्योंकि उनकी आभा से चारों ओर का प्रकाश तेजस्वी हो गया था।
श्लोक 26
चेतस्तत्प्रवणं युञ्जन् अस्तावीत्संहताञ्जलिः।
श्लक्ष्णया सूक्तया वाचा सर्वलोकगरीयसः॥
अनुवाद:
मुनि ने अपना मन देवताओं पर एकाग्र कर लिया और श्रद्धा के साथ हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की। उनकी वाणी कोमल और मधुर थी, जिससे सभी लोकों के स्वामी संतुष्ट हुए।
श्लोक 27
अत्रिरुवाच
विश्वोद्भवस्थितिलयेषु विभज्यमानैः।
मायागुणैरनुयुगं विगृहीतदेहाः।
ते ब्रह्मविष्णुगिरिशाः प्रणतोऽस्म्यहं वः।
तेभ्यः क एव भवतां मे इहोपहूतः॥
अनुवाद:
(अत्रि मुनि ने कहा)"आप तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, और महेश) माया के गुणों के अनुसार सृष्टि, पालन और संहार का कार्य करते हैं। मैं आप सभी को प्रणाम करता हूँ। लेकिन मुझे समझ नहीं आता कि आप तीनों में से किसे मैंने बुलाया है।"
श्लोक 28
एको मयेह भगवान् विविधप्रधानैः।
चित्तीकृतः प्रजननाय कथं नु यूयम्।
अत्रागतास्तनुभृतां मनसोऽपि दूराद्।
ब्रूत प्रसीदत महानिह विस्मयो मे॥
अनुवाद:
"मैंने तो केवल एक भगवान का आह्वान किया था, जो संतान प्रदान कर सकते हैं। लेकिन आप तीनों कैसे आ गए? यह मेरे लिए आश्चर्यजनक है। कृपया मुझे समझाइए और कृपा करें।"
श्लोक 29
मैत्रेय उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा त्रयस्ते विबुधर्षभाः।
प्रत्याहुः श्लक्ष्णया वाचा प्रहस्य तं ऋषिं प्रभो॥
अनुवाद:
(मैत्रेय मुनि ने कहा) -अत्रि मुनि के विनम्र वचनों को सुनकर तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, और महेश) मुस्कुराए और कोमल वाणी में उनसे बोले।
श्लोक 30
देवा ऊचुः
यथा कृतस्ते सङ्कल्पो भाव्यं तेनैव नान्यथा।
सत्सङ्कल्पस्य ते ब्रह्मन् यद्वै ध्यायति ते वयम्॥
अनुवाद:
(देवताओं ने कहा)"हे मुनि! जैसा आपका संकल्प था, वैसा ही होगा। आप सत्य-संकल्प वाले हैं। आपने जिस भी भगवान का ध्यान किया, हम वही हैं।"
श्लोक 31
अथास्मद् अंशभूतास्ते आत्मजा लोकविश्रुताः।
भवितारोऽङ्ग भद्रं ते विस्रप्स्यन्ति च ते यशः॥
अनुवाद:
"आपके पुत्र हमारे अंश होंगे। वे संसार में प्रसिद्ध होंगे और आपके परिवार को गौरव प्रदान करेंगे।"
श्लोक 32
एवं कामवरं दत्त्वा प्रतिजग्मुः सुरेश्वराः।
सभाजितास्तयोः सम्यग् दम्पत्योर्मिषतोस्ततः॥
अनुवाद:
यह कहकर तीनों देवता (ब्रह्मा, विष्णु, और महेश) आशीर्वाद देकर अपने-अपने लोकों को लौट गए। अत्रि मुनि और अनुसूया ने उनकी पूजा की।
श्लोक 33
सोमोऽभूद्ब्रह्मणोंऽशेन दत्तो विष्णोस्तु योगवित्।
दुर्वासाः शंकरस्यांशो निबोधाङ्गिरसः प्रजाः॥
अनुवाद:
ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, विष्णु के अंश से योगेश्वर दत्तात्रेय, और शिव के अंश से दुर्वासा मुनि का जन्म हुआ।
श्लोक 34
श्रद्धा त्वङ्गिरसः पत्नी चतस्रोऽसूत कन्यकाः।
सिनीवाली कुहू राका चतुर्थ्यनुमतिस्तथा॥
अनुवाद:
अंगिरा ऋषि की पत्नी श्रद्धा ने चार कन्याओं को जन्म दिया—सिनीवाली, कुहू, राका, और अनुमति।
श्लोक 35
तत्पुत्रावपरावास्तां ख्यातौ स्वारोचिषेऽन्तरे।
उतथ्यो भगवान् साक्षात् ब्रह्मिष्ठश्च बृहस्पतिः॥
अनुवाद:
स्वारोचिष मन्वंतर में श्रद्धा के दो और पुत्र हुए—उतथ्य और बृहस्पति। दोनों महान तपस्वी और ब्रह्मवेत्ता थे।
श्लोक 36
पुलस्त्योऽजनयत्पत्न्यां अगस्त्यं च हविर्भुवि।
सोऽन्यजन्मनि दह्राग्निः विश्रवाश्च महातपाः॥
अनुवाद:
पुलस्त्य ऋषि ने अपनी पत्नी हविर्भुवा से अगस्त्य और विश्रवा जैसे महातपस्वी पुत्रों को जन्म दिया। विश्रवा पिछले जन्म में दह्राग्नि थे।
श्लोक 37
तस्य यक्षपतिर्देवः कुबेरस्त्विडविडासुतः।
रावणः कुम्भकर्णश्च तथान्यस्यां विभीषणः॥
अनुवाद:
पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा से यक्षराज कुबेर का जन्म हुआ। उनकी अन्य पत्नी से रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण जैसे पुत्र हुए।
श्लोक 38
पुलहस्य गतिर्भार्या त्रीनसूत सती सुतान्।
कर्मश्रेष्ठं वरीयांसं सहिष्णुं च महामते॥
अनुवाद:
पुलह ऋषि की पत्नी गती ने तीन पुत्रों को जन्म दिया—कर्मश्रेष्ठ, वरीयान, और सहिष्णु। ये तीनों महान बुद्धिमान और तपस्वी थे।
श्लोक 39
क्रतोरपि क्रिया भार्या वालखिल्यानसूयत।
ऋषीन्षष्टिसहस्राणि ज्वलतो ब्रह्मतेजसा॥
अनुवाद:
क्रतु ऋषि की पत्नी क्रिया ने वालखिल्य ऋषियों को जन्म दिया। वे 60,000 की संख्या में थे और उनका तेज ब्रह्माजी के समान था।
श्लोक 40
ऊर्जायां जज्ञिरे पुत्रा वसिष्ठस्य परंतप।
चित्रकेतुप्रधानास्ते सप्त ब्रह्मर्षयोऽमलाः॥
अनुवाद:
वसिष्ठ ऋषि की पत्नी ऊर्जा ने सात पवित्र ब्रह्मर्षियों को जन्म दिया। उनके प्रमुख चित्रकेतु थे।
श्लोक 41
चित्रकेतुः सुरोचिश्च विरजा मित्र एव च।
उल्बणो वसुभृद्यानो द्युमान् शक्त्यादयोऽपरे॥
अनुवाद:
वसिष्ठ के पुत्रों के नाम इस प्रकार हैं—चित्रकेतु, सुरोचि, विरज, मित्र, उल्बण, वसुभृत, यान, द्युमान और शक्ति।
श्लोक 42
चित्तिस्त्वथर्वणः पत्नी लेभे पुत्रं धृतव्रतम्।
दध्यञ्चमश्वशिरसं भृगोर्वंशं निबोध मे॥
अनुवाद:
अथर्वण ऋषि की पत्नी चित्ति ने धृतव्रत नामक पुत्र को जन्म दिया। वह दध्यांच मुनि (अश्वशिरा) के रूप में प्रसिद्ध हुए। अब भृगु के वंश का वर्णन सुनो।
श्लोक 43
भृगुः ख्यात्यां महाभागः पत्न्यां पुत्रानजीजनत्।
धातारं च विधातारं श्रियं च भगवत्पराम्॥
अनुवाद:
भृगु ऋषि की पत्नी ख्याति से तीन संतानें हुईं—धाता, विधाता और भगवती लक्ष्मी, जो भगवान विष्णु की शक्ति हैं।
श्लोक 44
आयतिं नियतिं चैव सुते मेरुस्तयोरदात्।
ताभ्यां तयोरभवतां मृकण्डः प्राण एव च॥
अनुवाद:
आयति और नियति नामक दो पुत्रियाँ हुईं, जिनका विवाह मेरु पर्वत के साथ हुआ। उनसे मृकंड ऋषि और प्राण नामक पुत्र उत्पन्न हुए।
श्लोक 45
मार्कण्डेयो मृकण्डस्य प्राणाद्वेदशिरा मुनिः।
कविश्च भार्गवो यस्य भगवानुशना सुतः॥
अनुवाद:
मृकंड ऋषि के पुत्र मार्कंडेय हुए, और प्राण से वेदशिरा मुनि का जन्म हुआ। भार्गव ऋषि के वंश में कवि (शुक्राचार्य) का जन्म हुआ।
श्लोक 46
ते एते मुनयः क्षत्तः लोकान् सर्गैरभावयन्।
एष कर्दमदौहित्र सन्तानः कथितस्तव।
श्रृण्वतः श्रद्दधानस्य सद्यः पापहरः परः॥
अनुवाद:
"हे विदुर! ये सभी मुनि अपनी संतानों के माध्यम से संसार की सृष्टि करते रहे। ये कर्दम ऋषि के वंशज हैं। इनकी कथा सुनने मात्र से श्रद्धालु व्यक्ति के पाप नष्ट हो जाते हैं।"
श्लोक 47
प्रसूतिं मानवीं दक्ष उपयेमे ह्यजात्मजः।
तस्यां ससर्ज दुहितॄः षोडशामललोचनाः॥
अनुवाद:
दक्ष प्रजापति, जो ब्रह्माजी के पुत्र थे, ने स्वायम्भुव मनु की पुत्री प्रसूति से विवाह किया। उनके द्वारा प्रसूति ने सोलह सुंदर और सुशील कन्याओं को जन्म दिया।
श्लोक 48
त्रयोदशादाद्धर्माय तथैकामग्नये विभुः।
पितृभ्य एकां युक्तेभ्यो भवायैकां भवच्छिदे॥
अनुवाद:
इन सोलह कन्याओं में से तेरह का विवाह धर्म के साथ हुआ, एक का अग्नि से, एक का पितरों के साथ और एक का विवाह भगवान शंकर (महादेव) के साथ हुआ।
श्लोक 49
श्रद्धा मैत्री दया शान्तिः तुष्टिः पुष्टिः क्रियोन्नतिः।
बुद्धिर्मेधा तितिक्षा ह्रीः मूर्तिर्धर्मस्य पत्नयः॥
अनुवाद:
धर्म की पत्नियाँ तेरह थीं—श्रद्धा, मैत्री, दया, शांति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री, और मूर्ति।
श्लोक 50
श्रद्धासूत शुभं मैत्री प्रसादं अभयं दया।
शान्तिः सुखं मुदं तुष्टिः स्मयं पुष्टिः असूयत॥
अनुवाद:
श्रद्धा ने शुभ (सौभाग्य), मैत्री ने प्रसाद (संतोष), दया ने अभय (निडरता), शांति ने सुख, तुष्टि ने मुदिता (प्रसन्नता), और पुष्टि ने स्मय (गौरव) को जन्म दिया।
श्लोक 51
योगं क्रियोन्नतिर्दर्पं अर्थं बुद्धिरसूयत।
मेधा स्मृतिं तितिक्षा तु क्षेमं ह्रीः प्रश्रयं सुतम्॥
अनुवाद:
क्रिया ने योग, उन्नति ने दर्प (गर्व), बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम (सुरक्षा), और ह्री ने प्रश्रय (सम्मान) को जन्म दिया।
श्लोक 52
मूर्तिः सर्वगुणोत्पत्तिः नरनारायणौ ऋषी।
अनुवाद:
मूर्ति, जो धर्म की पत्नियों में प्रमुख थीं, ने नर और नारायण ऋषियों को जन्म दिया।
श्लोक 53
ययोर्जन्मन्यदो विश्वं अभ्यनन्दत् सुनिर्वृतम्।
मनांसि ककुभो वाताः प्रसेदुः सरितोऽद्रयः॥
अनुवाद:
नर और नारायण ऋषियों के जन्म पर समस्त विश्व आनंदित हो गया। दिशाएँ शांत हो गईं, वायुओं का प्रवाह मधुर हो गया, नदियाँ निर्मल बहने लगीं, और पर्वत स्थिर और शांत हो गए।
श्लोक 54
दिव्यवाद्यन्त तूर्याणि पेतुः कुसुमवृष्टयः।
मुनयस्तुष्टुवुस्तुष्टा जगुर्गन्धर्वकिन्नराः॥
अनुवाद:
नर-नारायण ऋषियों के जन्म पर देवताओं के वाद्य यंत्र बजने लगे, स्वर्ग से फूलों की वर्षा हुई। मुनियों ने स्तुति की, गंधर्वों और किन्नरों ने गान किया।
श्लोक 55
नृत्यन्ति स्म स्त्रियो देव्य आसीत् परममङ्गलम्।
देवा ब्रह्मादयः सर्वे उपतस्थुरभिष्टवैः॥
अनुवाद:
देवी-देवियों ने नृत्य किया, और उस समय अत्यंत मंगलमय वातावरण था। ब्रह्मा और अन्य देवताओं ने नर-नारायण ऋषियों की स्तुति की।
श्लोक 56
देवा ऊचुः
यो मायया विरचितं निजयात्मनीदं।
खे रूपभेदमिव तत्प्रतिचक्षणाय।
एतेन धर्मसदने ऋषिमूर्तिनाद्य।
प्रादुश्चकार पुरुषाय नमः परस्मै॥
अनुवाद:
(देवताओं ने कहा) -"जो भगवान अपनी माया से विविध रूपों में प्रकट होते हैं, लेकिन स्वयं माया से अछूते रहते हैं। वे ही धर्म के सदन में ऋषि रूप में प्रकट हुए हैं। हम उस परम पुरुष को नमस्कार करते हैं।"
श्लोक 57
सोऽयं स्थितिव्यतिकरोपशमाय सृष्टान्।
सत्त्वेन नः सुरगणान् अनुमेयतत्त्वः।
दृश्याददभ्रकरुणेन विलोकनेन।
यच्छ्रीनिकेतममलं क्षिपतारविन्दम्॥
अनुवाद:
"यह भगवान हमारे लोकों के लिए शांति, स्थिरता, और धर्म की स्थापना करने के लिए प्रकट हुए हैं। उनका करुणामय दृष्टि सभी जीवों का उद्धार करने वाली है। उनके चरण कमल सदा हमें पवित्र करें।"
श्लोक 58
एवं सुरगणैस्तात भगवन्तावभिष्टुतौ।
लब्धावलोकैर्ययतुः अर्चितौ गन्धमादनम्॥
अनुवाद:
हे तात (विदुर), देवताओं ने नर और नारायण ऋषियों की स्तुति की और पूजा की। उनकी स्तुति के पश्चात, नर-नारायण ऋषि गंधमादन पर्वत पर तपस्या के लिए चले गए।
श्लोक 59
तौ इमौ वै भगवतो हरेरंशाविहागतौ।
भारव्ययाय च भुवः कृष्णौ यदुकुरूद्वहौ॥
अनुवाद:
नर और नारायण ऋषि वास्तव में भगवान विष्णु के अंश हैं। वे पृथ्वी का भार कम करने और धर्म की स्थापना करने के लिए अवतरित हुए थे। ये दोनों कृष्ण और अर्जुन के रूप में भी प्रसिद्ध हुए।
श्लोक 60
स्वाहाभिमानिनश्चाग्नेः आत्मजान् त्रीन् अजीजनत्।
पावकं पवमानं च शुचिं च हुतभोजनम्॥
अनुवाद:
अग्निदेव की पत्नी स्वाहा ने तीन पुत्रों को जन्म दिया—पावक, पवमान और शुचि। ये तीनों हवन (यज्ञ) के प्रमुख देवता माने गए।
श्लोक 61
तेभ्योऽग्नयः समभवन् चत्वारिंशच्च पञ्च च।
ते एवैकोनपञ्चाशत् साकं पितृपितामहैः॥
अनुवाद:
इन तीन पुत्रों से 45 अग्नियों की उत्पत्ति हुई। ये 49 अग्नियाँ (तीन मूल पुत्रों के साथ) यज्ञों में उपयोग की जाने वाली अग्नियों के रूप में प्रसिद्ध हैं।
श्लोक 62
वैतानिके कर्मणि यत् नामभिर्ब्रह्मवादिभिः।
आग्नेय्य इष्टयो यज्ञे निरूप्यन्तेऽग्नयस्तु ते॥
अनुवाद:
वेदों के जानकार ब्राह्मण यज्ञों में इन अग्नियों का नाम लेकर हवन करते हैं। ये अग्नियाँ वैदिक कर्मकांडों में प्रमुख भूमिका निभाती हैं।
श्लोक 63
अग्निष्वात्ता बर्हिषदः सौम्याः पितर आज्यपाः।
साग्नयोऽनग्नयस्तेषां पत्नी दाक्षायणी स्वधा॥
अनुवाद:
पितरों के चार प्रमुख वर्ग हैं—अग्निष्वात्त, बर्हिषद, सौम्य और आज्यप। उनकी पत्नी स्वधा थीं, जो दक्ष की पुत्री थीं।
श्लोक 64
तेभ्यो दधार कन्ये द्वे वयुनां धारिणीं स्वधा।
उभे ते ब्रह्मवादिन्यौ ज्ञानविज्ञानपारगे॥
अनुवाद:
स्वधा ने पितरों के लिए दो पुत्रियों को जन्म दिया—वयुना और धारिणी। ये दोनों ज्ञान और विज्ञान की परम ज्ञाता थीं।
श्लोक 65
भवस्य पत्नी तु सती भवं देवमनुव्रता।
आत्मनः सदृशं पुत्रं न लेभे गुणशीलतः॥
अनुवाद:
भगवान शिव की पत्नी सती, जो उनके प्रति पूर्णतः समर्पित थीं, ने अपनी तपस्या के माध्यम से शिव के समान गुणों वाला पुत्र प्राप्त करने की इच्छा की।
श्लोक 66
पितर्यप्रतिरूपे स्वे भवायानागसे रुषा।
अप्रौढैवात्मनात्मानं अजहाद् योगसंयुता॥
अनुवाद:
जब सती ने अपने पिता दक्ष के द्वारा भगवान शिव का अपमान देखा, तो क्रोध और अपमान से भरकर, उन्होंने योगबल के माध्यम से अपने शरीर का त्याग कर दिया।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे विदुरमैत्रेयसंवादे प्रथमोऽध्यायः॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के चतुर्थ स्कंध में विदुर और मैत्रेय संवाद पर आधारित प्रथम अध्याय समाप्त होता है।
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