भागवत प्रथम स्कन्ध, षष्ठ अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

Sooraj Krishna Shastri
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 भागवत प्रथम स्कन्ध, षष्ठ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकोॆ का अर्थ यहाँ दिया जा रहा है। भागवत प्रथम स्कन्ध, षष्ठ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के श्लोक के साथ उसका अर्थ भी क्रमशः दिया जा रहा है।

भागवत प्रथम स्कन्ध, षष्ठ अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यह चित्र एक शांतिपूर्ण वन का है, जहाँ एक युवा ऋषि पिप्पल वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न हैं। आस-पास नदी, हरियाली, पक्षी और जानवर हैं। सूर्यास्त का सुनहरा प्रकाश इस दृश्य को और अधिक दिव्यता प्रदान करता है। यह वातावरण अत्यंत शांत और आध्यात्मिक है।



श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध, षष्ठे अध्याय का हिन्दी अनुवाद


श्लोक 1:

एवं निशम्य भगवान् देवर्षेर्जन्म कर्म च ।
भूयः पप्रच्छ तं ब्रह्मन् व्यासः सत्यवतीसुतः ॥

अनुवाद:
देवर्षि नारद का जन्म और कर्म सुनने के बाद, सत्यवती के पुत्र व्यास ने फिर से उनसे प्रश्न किया।


श्लोक 2:

भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टृभिस्तव ।
वर्तमानो वयस्याद्ये ततः किमकरोद्‌भवान् ॥

अनुवाद:
हे नारदजी! जब आपके गुरु भिक्षु विद्वान संसार से चले गए, तब आप अपने जीवन के आगे के समय में क्या करते थे?


श्लोक 3:

स्वायंभुव कया वृत्त्या वर्तितं ते परं वयः ।
कथं चेदमुदस्राक्षीः काले प्राप्ते कलेवरम् ॥

अनुवाद:
आपने स्वायंभुव मन्वंतर के समय किस प्रकार जीवन बिताया और मृत्यु के समय किस प्रकार शरीर का त्याग किया?


श्लोक 4:

प्राक्कल्पविषयामेतां स्मृतिं ते सुरसत्तम ।
न ह्येष व्यवधात्काल एष सर्वनिराकृतिः ॥

अनुवाद:
हे देवश्रेष्ठ! आपकी स्मृति इतनी स्पष्ट है कि पूर्व कल्प की बातें भी आप बता सकते हैं। समय की कोई सीमा आपके ज्ञान को बाधित नहीं कर सकती।


श्लोक 5:

भिक्षुभिर्विप्रवसिते विज्ञानादेष्टृभिर्मम ।
वर्तमानो वयस्याद्ये तत एतदकारषम् ॥

अनुवाद:
नारदजी बोले: जब मेरे गुरु विद्वान भिक्षु संसार से चले गए, तब मैंने अपने जीवन में यह किया।


श्लोक 6:

एकात्मजा मे जननी योषिन्मूढा च किङ्करी ।
मय्यात्मजेऽनन्यगतौ चक्रे स्नेहानुबंधनम् ॥

अनुवाद:
मेरी माता, जो एक साधारण स्त्री और अपनी प्रवृत्तियों में बंधी हुई थी, मुझसे अत्यधिक स्नेह करती थी और केवल मुझ पर निर्भर थी।


श्लोक 7:

सास्वतंत्रा न कल्पासीद् योगक्षेमं ममेच्छती ।
ईशस्य हि वशे लोको योषा दारुमयी यथा ॥

अनुवाद:
मेरी माता स्वयं स्वतंत्र नहीं थी और मेरे योगक्षेम की चिंता करती थी। यह संसार भगवान के अधीन है, और मनुष्य की यह स्थिति काष्ठपुतली के समान है।


श्लोक 8:

अहं च तद्‌ब्रह्मकुले ऊषिवांस्तदपेक्षया ।
दिग्देशकालाव्युत्पन्नो बालकः पञ्चहायनः ॥

अनुवाद:
मैं पाँच वर्ष का बालक था, जो ब्रह्मण कुल में निवास करता था। मुझे दिग्‌देश और समय का कोई ज्ञान नहीं था।


श्लोक 9:

एकदा निर्गतां गेहाद् दुहन्तीं निशि गां पथि ।
सर्पोऽदशत्पदा स्पृष्टः कृपणां कालचोदितः ॥

अनुवाद:
एक रात मेरी माता जब घर से बाहर गाय दुहने गई, तो रास्ते में एक सर्प ने उन्हें डस लिया। वह काल की प्रेरणा से उनकी मृत्यु का कारण बना।


श्लोक 10:

तदा तदहमीशस्य भक्तानां शमभीप्सतः ।
अनुग्रहं मन्यमानः प्रातिष्ठं दिशमुत्तराम् ॥

अनुवाद:
तब मैंने इसे भगवान का अनुग्रह मानते हुए, जो अपने भक्तों के कल्याण की इच्छा करते हैं, उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया।


श्लोक 11:

स्फीताञ्जनपदांस्तत्र पुरग्रामव्रजाकरान् ।
खेटखर्वटवाटीश्च वनान्युपवनानि च ॥

अनुवाद:
मैंने यात्रा के दौरान घनी बस्तियों, नगरों, गाँवों, खेतों, किलेबंदी और उपवनों को पार किया।


श्लोक 12:

चित्रधातुविचित्राद्रीन् इभभग्नभुजद्रुमान् ।
जलाशयान् शिवजलान् नलिनीः सुरसेविताः ॥

अनुवाद:
मुझे विचित्र खनिजों वाले पर्वत, हाथियों द्वारा तोड़े गए वृक्ष, पवित्र जलाशय और देवताओं द्वारा पूजित सुंदर कमल के सरोवर दिखे।


श्लोक 13:

चित्रस्वनैः पत्ररथैः विभ्रमद् भ्रमरश्रियः ।
नलवेणुशरस्तम्ब कुशकीचकगह्वरम् ॥

अनुवाद:
भँवरों की गुंजन वाले पत्ररथ, नल, बांस, और कुशा-किकट के समूह से भरे वन मुझे दिखे।


श्लोक 14:

एक एवातियातोऽहं अद्राक्षं विपिनं महत् ।
घोरं प्रतिभयाकारं व्यालोलूकशिवाजिरम् ॥

अनुवाद:
मैं अकेला यात्रा करता हुआ एक बड़े जंगल में पहुँचा, जो भयानक था और जहाँ हिंसक जानवर और उल्लुओं की आवाजें गूँज रही थीं।


श्लोक 15:

परिश्रान्तेन्द्रियात्माहं तृट्परीतो बुभुक्षितः ।
स्नात्वा पीत्वा ह्रदे नद्या उपस्पृष्टो गतश्रमः ॥

अनुवाद:
मेरी इंद्रियाँ थक चुकी थीं। मैं प्यास और भूख से व्याकुल था। एक नदी के ह्रद में स्नान और जलपान करके मैंने अपनी थकान दूर की।


श्लोक 16:

तस्मिन्निर्मनुजेऽरण्ये पिप्पलोपस्थ आश्रितः ।
आत्मनात्मानमात्मस्थं यथाश्रुतमचिन्तयम् ॥

अनुवाद:
उस निर्जन वन में, मैंने पिप्पल वृक्ष के नीचे बैठकर आत्मा को अपने भीतर ध्यानस्थ किया, जैसा मैंने सुना था।


श्लोक 17:

ध्यायतश्चरणांभोजं भावनिर्जितचेतसा ।
औत्कण्ठ्याश्रुकलाक्षस्य हृद्यासीन्मे शनैर्हरिः ॥

अनुवाद:
भगवान के चरण कमलों का ध्यान करते हुए, भावपूर्ण और एकाग्रचित्त के साथ, मेरी आँखों से प्रेम के आँसू बहने लगे। धीरे-धीरे भगवान मेरे हृदय में प्रकट हुए।


श्लोक 18:

प्रेमातिभरनिर्भिन्न पुलकाङ्गोऽतिनिर्वृतः ।
आनंदसंप्लवे लीनो नापश्यमुभयं मुने ॥

अनुवाद:
प्रेम से मेरा शरीर पुलकित हो गया और मैं अत्यधिक आनंद में डूब गया। उस समय मैं संसार और भगवान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं देख सका।


श्लोक 19:

रूपं भगवतो यत्तन् मनःकान्तं शुचापहम् ।
अपश्यन् सहसोत्तस्थे वैक्लव्याद् दुर्मना इव ॥

अनुवाद:
भगवान का वह रूप, जो मन को मोहित करता है और दुखों को हरता है, अचानक विलुप्त हो गया। मैं वैक्लव्य के कारण व्याकुल हो गया।


श्लोक 20:

दिदृक्षुस्तदहं भूयः प्रणिधाय मनो हृदि ।
वीक्षमाणोऽपि नापश्यं अवितृप्त इवातुरः ॥

अनुवाद:
मैं फिर से उस रूप को देखने की इच्छा से मन को एकाग्र कर ध्यान करने लगा, लेकिन उसे देख नहीं सका। मैं उस आनंद से वंचित होने के कारण बेचैन हो गया।


श्लोक 21:

एवं यतन्तं विजने मामाहागोचरो गिराम् ।
गंभीरश्लक्ष्णया वाचा शुचः प्रशमयन्निव ॥

अनुवाद:
जब मैं एकांत में भगवान को देखने का प्रयास कर रहा था, तब भगवान, जो वाणी की सीमा से परे हैं, ने गंभीर और कोमल वाणी में मेरी चिंता को शांत किया।


श्लोक 22:

हन्तास्मिन् जन्मनि भवान् मा मां द्रष्टुमिहार्हति ।
अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शोऽहं कुयोगिनाम् ॥

अनुवाद:
भगवान ने कहा: हे पुत्र! इस जन्म में तुम मुझे नहीं देख सकते। जिनके चित्त में विकार शेष हैं, उनके लिए मेरा दर्शन दुर्लभ है।


श्लोक 23:

सकृद् यद् दर्शितं रूपं एतत्कामाय तेऽनघ ।
मत्कामः शनकैः साधु सर्वान् मुञ्चति हृच्छयान् ॥

अनुवाद:
जो रूप मैंने तुम्हें दिखाया है, वह तुम्हारी कामनाओं को शांत करने के लिए था। मेरे प्रति प्रेम के कारण तुम धीरे-धीरे हृदय के समस्त विकारों को त्याग दोगे।


श्लोक 24:

सत्सेवयाऽदीर्घया ते जाता मयि दृढा मतिः ।
हित्वावद्यमिमं लोकं गन्ता मज्जनतामसि ॥

अनुवाद:
संतों की थोड़ी-सी सेवा के कारण तुम्हारी मुझमें दृढ़ बुद्धि हो गई है। इस लोक को त्यागकर तुम मेरे धाम को प्राप्त करोगे।


श्लोक 25:

मतिर्मयि निबद्धेयं न विपद्येत कर्हिचित् ।
प्रजासर्गनिरोधेऽपि स्मृतिश्च मदनुग्रहात् ॥

अनुवाद:
तुम्हारी मुझमें जो बुद्धि स्थिर हो चुकी है, वह कभी विचलित नहीं होगी। सृष्टि के उत्पन्न और नष्ट होने पर भी मेरी कृपा से तुम्हें स्मृति बनी रहेगी।

श्लोक 26:

एतावदुक्त्वोपरराम तन्महद्
भूतं नभोलिङ्गमलिङ्गमीश्वरम् ।
अहं च तस्मै महतां महीयसे
शीर्ष्णावनामं विदधेऽनुकंपितः ॥

अनुवाद:
भगवान ने यह कहते हुए अपना संवाद समाप्त किया। वे परम चेतना, स्वरूप रहित, और सर्वव्यापी हैं। मैं उनके प्रति अनुग्रहित होकर अपना मस्तक झुका दिया।


श्लोक 27:

नामान्यनन्तस्य हतत्रपः पठन्
गुह्यानि भद्राणि कृतानि च स्मरन् ।
गां पर्यटन् तुष्टमना गतस्पृहः
कालं प्रतीक्षन् विमदो विमत्सरः ॥

अनुवाद:
मैं भगवान अनंत के पवित्र नामों का पाठ करता रहा, उनके गुप्त और कल्याणकारी कार्यों का स्मरण करता हुआ पृथ्वी पर विचरण करने लगा। तृप्त, वासनारहित, अहंकार और ईर्ष्या से मुक्त, मैं उनके अनुग्रह की प्रतीक्षा करने लगा।


श्लोक 28:

एवं कृष्णमतेर्ब्रह्मन् असक्तस्यामलात्मनः ।
कालः प्रादुरभूत्काले तडित्सौदामनी यथा ॥

अनुवाद:
हे ब्रह्मन्! जब मेरा मन श्रीकृष्ण के चरणों में लगा और मेरा चित्त पवित्र हो गया, तब मेरे समय का अंत बिजली की चमक की तरह अचानक आ गया।


श्लोक 29:

प्रयुज्यमाने मयि तां शुद्धां भागवतीं तनुम् ।
आरब्धकर्मनिर्वाणो न्यपतत् पांचभौतिकः ॥

अनुवाद:
भगवान की कृपा से मुझे शुद्ध भगवती देह प्राप्त हुई, और मेरा पांच-भौतिक शरीर (भौतिक देह) त्याग दिया गया।


श्लोक 30:

कल्पान्त इदमादाय शयानेऽम्भस्युदन्वतः ।
शिशयिषोरनुप्राणं विविशेऽन्तरहं विभोः ॥

अनुवाद:
कल्प के अंत में, जब भगवान समुद्र के जल में शयन करते हैं, तब उनका प्राणस्वरूप मैं उनके अंदर समा जाता हूँ।


श्लोक 31:

सहस्रयुगपर्यन्ते उत्थायेदं सिसृक्षतः ।
मरीचिमिश्रा ऋषयः प्राणेभ्योऽहं च जज्ञिरे ॥

अनुवाद:
जब भगवान सृष्टि के लिए जागते हैं, तो उनके प्राण से मरीचि जैसे ऋषि और मैं प्रकट होता हूँ।


श्लोक 32:

अंतर्बहिश्च लोकान् त्रीन् पर्येम्यस्कन्दितव्रतः ।
अनुग्रहात् महाविष्णोः अविघातगतिः क्वचित् ॥

अनुवाद:
भगवान महाविष्णु की कृपा से मैं तीनों लोकों में भीतर और बाहर विचरण करता हूँ। मेरी गति कभी भी विघ्न से बाधित नहीं होती।


श्लोक 33:

देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रह्मविभूषिताम् ।
मूर्च्छयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम् ॥

अनुवाद:
भगवान ने मुझे यह देवदत्त वीणा प्रदान की है, जो स्वर-ब्रह्म से युक्त है। मैं इसके द्वारा हरिकथा गाते हुए संसार में विचरण करता हूँ।


श्लोक 34:

प्रगायतः स्ववीर्याणि तीर्थपादः प्रियश्रवाः ।
आहूत इव मे शीघ्रं दर्शनं याति चेतसि ॥

अनुवाद:
भगवान तीर्थपाद, जिनके यश का मैं गान करता हूँ, तुरंत मेरे हृदय में प्रकट हो जाते हैं, मानो उन्हें बुलाया गया हो।


श्लोक 35:

एतद्ध्यातुरचित्तानां मात्रास्पर्शेच्छया मुहुः ।
भवसिन्धुप्लवो दृष्टो हरिचर्यानुवर्णनम् ॥

अनुवाद:
जिनका चित्त संसार के पदार्थों और इंद्रिय-सुख की इच्छा से मुक्त है, उनके लिए भगवान के चरित्र का वर्णन संसार-सागर को पार करने का साधन है।


श्लोक 36:

यमादिभिर्योगपथैः कामलोभहतो मुहुः ।
मुकुंदसेवया यद्वत् तथात्माद्धा न शाम्यति ॥

अनुवाद:
योग के यम-नियम आदि साधनों से मनुष्य को काम और लोभ से छुटकारा मिल सकता है, लेकिन मुकुंद की सेवा से आत्मा को जो शांति मिलती है, वह किसी और उपाय से संभव नहीं है।


श्लोक 37:

सर्वं तदिदमाख्यातं यत्पृष्टोऽहं त्वयानघ ।
जन्मकर्मरहस्यं मे भवतश्चात्मतोषणम् ॥

अनुवाद:
हे पवित्र आत्मा! आपने जो पूछा था, मैंने वह सब कुछ बताया। यह मेरा जन्म और कर्म का रहस्य है, जो आपके आत्मा को तृप्त करेगा।


श्लोक 38:

एवं संभाष्य भगवान् नारदो वासवीसुतम् ।
आमंत्र्य वीणां रणयन् ययौ यादृच्छिको मुनिः ॥

अनुवाद:
इस प्रकार नारदजी ने सत्यवती के पुत्र व्यासजी से संवाद किया। फिर अपनी वीणा बजाते हुए वे अपनी इच्छा से कहीं और चले गए।


श्लोक 39:

अहो देवर्षिर्धन्योऽयं यत्कीर्तिं शार्ङ्गधन्वनः ।
गायन्माद्यन्निदं तंत्र्या रमयत्यातुरं जगत् ॥

अनुवाद:
देवर्षि नारद धन्य हैं, जो भगवान शार्ङ्गधन्वन (श्रीकृष्ण) के यश का गान करते हैं। अपनी वीणा के स्वरों से वे संसार के दुखी जीवों को आनंदित करते हैं।


इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे व्यासनारदसंवादे षष्ठोऽध्यायः समाप्तः।

इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध के व्यास-नारद संवाद का छठा अध्याय समाप्त हुआ।


 भागवत प्रथम स्कन्ध, षष्ठ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकोॆ का अर्थ यहाँ दिया गया है। भागवत प्रथम स्कन्ध, षष्ठ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के श्लोक के साथ उसका अर्थ भी क्रमशः दिया गया।


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