भागवत प्रथम स्कन्ध,चतुर्थ अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
भागवत प्रथम स्कन्ध,चतुर्थ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) यहाँ प्रस्तुत है। जिसमें भागवत प्रथम स्कन्ध, चतुर्थ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सम्पूर्ण श्लोकों के साथ क्रमशः का अर्थ दिया गया है।
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यह चित्र महर्षि वेदव्यास को सरस्वती नदी के किनारे ध्यानमग्न दर्शाता है, जहाँ नारद मुनि अपनी वीणा के साथ उनसे मिलने आ रहे हैं। यह दृश्य आध्यात्मिक ऊर्जा और प्राचीन ज्ञान से भरपूर है। |
श्रीमद्भागवत महापुराण के चतुर्थ अध्याय का हिन्दी अनुवाद
श्लोक 1:
इति ब्रुवाणं संस्तूय मुनीनां दीर्घसत्रिणाम् ।
वृद्धः कुलपतिः सूतं बह्वृचः शौनकोऽब्रवीत् ॥
अनुवाद:
सूतजी की बातों की प्रशंसा करते हुए, दीर्घकालीन यज्ञ करने वाले मुनियों के कुलपति और विद्वान शौनक ने कहा।
श्लोक 2:
सूत सूत महाभाग वद नो वदतां वर ।
कथां भागवतीं पुण्यां यदाह भगवान् शुकः ॥
अनुवाद:
हे सूतजी! आप धन्य हैं। हमें कृपया वह पवित्र भागवत कथा सुनाइए, जिसे भगवान शुकदेव ने कहा था।
श्लोक 3:
कस्मिन् युगे प्रवृत्तेयं स्थाने वा केन हेतुना ।
कुतः सञ्चोदितः कृष्णः कृतवान् संहितां मुनिः ॥
अनुवाद:
यह कथा किस युग में प्रकट हुई? कहाँ और किस कारण से महर्षि व्यास ने इसे लिखा? कृपया बताइए।
श्लोक 4:
तस्य पुत्रो महायोगी समदृङ् निर्विकल्पकः ।
एकान्तमतिः उन्निद्रो गूढो मूढ इवेयते ॥
अनुवाद:
महर्षि व्यास के पुत्र शुकदेव महायोगी थे। वे समदृष्टि, एकाग्रचित्त और सांसारिक चेतना से रहित थे। वे सामान्य दृष्टि से मूर्ख या विचित्र प्रतीत होते थे।
श्लोक 5:
दृष्ट्वानुयान्तमृषिमात्मजमप्यनग्नं
देव्यो ह्रिया परिदधुर्न सुतस्य चित्रम् ।
तद्वीक्ष्य पृच्छति मुनौ जगदुस्तवास्ति
स्त्रीपुम्भिदा न तु सुतस्य विविक्तदृष्टेः ॥
अनुवाद:
जब शुकदेवजी वस्त्र धारण किए बिना विचरण करते थे, तो देवियाँ भी उनके सामने लज्जा का अनुभव नहीं करती थीं। जब यह देखा गया, तब मुनियों ने कहा कि उनके हृदय में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं है।
श्लोक 6:
कथमालक्षितः पौरैः संप्राप्तः कुरुजाङ्गलान् ।
उन्मत्तमूकजडवद् विचरन् गजसाह्वये ॥
अनुवाद:
शुकदेवजी, पौरवों द्वारा पहचान में नहीं आते थे। वे कुरु प्रदेश के जंगलों में उन्मत्त, मूक और जड़वत गजसाह्वय (हस्तिनापुर) पहुँचे।
श्लोक 7:
कथं वा पाण्डवेयस्य राजर्षेर्मुनिना सह ।
संवादः समभूत् तात यत्रैषा सात्वती श्रुतिः ॥
अनुवाद:
हे तात! पांडव वंश के राजा परीक्षित और शुकदेव मुनि के बीच वह संवाद कैसे हुआ, जिसमें यह सात्वती श्रुति (भागवत कथा) प्रकट हुई?
श्लोक 8:
स गोदोहनमात्रं हि गृहेषु गृहमेधिनाम् ।
अवेक्षते महाभागः तीर्थीकुर्वन् तदाश्रमम् ॥
अनुवाद:
महाभाग शुकदेवजी गृहस्थों के घर में केवल एक गाय दुहने जितना समय व्यतीत करते थे, और उस स्थान को तीर्थ बना देते थे।
श्लोक 9:
अभिमन्युसुतं सूत प्राहुर्भागवतोत्तमम् ।
तस्य जन्म महाश्चर्यं कर्माणि च गृणीहि नः ॥
अनुवाद:
हे सूतजी! अभिमन्यु के पुत्र (परीक्षित) को भागवत धर्म में श्रेष्ठ कहा गया है। उनके जन्म और कर्मों का वर्णन हमें बताइए।
श्लोक 10:
स सम्राट् कस्य वा हेतोः पाण्डूनां मानवर्धनः ।
प्रायोपविष्टो गङ्गायां अनादृत्य अधिराट् श्रियम् ॥
अनुवाद:
पाण्डव वंश के गौरव सम्राट परीक्षित ने किस कारण से गंगा तट पर ध्यान लगाकर अपने जीवन का त्याग करने का निश्चय किया, जबकि वे राज्य और वैभव को छोड़ चुके थे?
श्लोक 11:
नमन्ति यत्पादनिकेतमात्मनः
शिवाय हानीय धनानि शत्रवः ।
कथं स वीरः श्रियमङ्ग दुस्त्यजां
युवैषतोत् स्रष्टुमहो सहासुभिः ॥
अनुवाद:
जिनके चरणों के पास शत्रु भी अपने धन का त्याग करके शांति के लिए आते हैं, ऐसे वीर सम्राट ने अपनी दुस्त्यज संपत्ति और जीवन का त्याग क्यों किया?
श्लोक 12:
शिवाय लोकस्य भवाय भूतये
य उत्तमश्लोकपरायणा जनाः ।
जीवन्ति नात्मार्थमसौ पराश्रयं
मुमोच निर्विद्य कुतः कलेवरम् ॥
अनुवाद:
जो लोग भगवान के प्रति समर्पित होते हैं, वे लोक कल्याण के लिए जीते हैं, न कि अपने स्वार्थ के लिए। ऐसे सम्राट ने शरीर का त्याग क्यों किया?
श्लोक 13:
तत्सर्वं नः समाचक्ष्व पृष्टो यदिह किञ्चन ।
मन्ये त्वां विषये वाचां स्नातमन्यत्र छान्दसात् ॥
अनुवाद:
हमें वह सब बताइए जो हमने पूछा है। मैं आपको वेदों और धर्म के अन्य विषयों में पूरी तरह पारंगत मानता हूँ।
श्लोक 14:
सूत उवाच
द्वापरे समनुप्राप्ते तृतीये युगपर्यये ।
जातः पराशराद् योगी वासव्यां कलया हरेः ॥
अनुवाद:
सूतजी बोले: द्वापर युग के अंत में, भगवान की अंश-कलाओं से युक्त पराशर मुनि और सत्यवती के पुत्र महर्षि व्यास का जन्म हुआ।
श्लोक 15:
स कदाचित् सरस्वत्या उपस्पृश्य जलं शुचिः ।
विविक्तदेश आसीन उदिते रविमण्डले ॥
अनुवाद:
एक बार, व्यासजी सरस्वती नदी में स्नान कर शुद्ध हो गए और सूर्योदय के समय एकांत स्थान में ध्यानमग्न होकर बैठे।
श्लोक 16:
परावरज्ञः स ऋषिः कालेनाव्यक्तरंहसा ।
युगधर्मव्यतिकरं प्राप्तं भुवि युगे युगे ॥
अनुवाद:
समस्त प्रकट और अप्रकट तत्वों के ज्ञाता उस ऋषि ने समय के प्रभाव से युग-धर्मों में होने वाले उल्लंघनों को देखा।
श्लोक 17:
भौतिकानां च भावानां शक्तिह्रासं च तत्कृतम् ।
अश्रद्दधानान्निःसत्त्वान् दुर्मेधान् ह्रसितायुषः ॥
अनुवाद:
उन्होंने देखा कि भौतिक तत्वों की शक्ति क्षीण हो रही है और मनुष्यों में श्रद्धा, बल, बुद्धि और आयु कम हो गई है।
श्लोक 18:
दुर्भगांश्च जनान् वीक्ष्य मुनिर्दिव्येन चक्षुषा ।
सर्ववर्णाश्रमाणां यद् दध्यौ हितममोघदृक् ॥
अनुवाद:
अपनी दिव्य दृष्टि से मुनि ने मनुष्यों की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को देखा और समस्त वर्णों और आश्रमों के कल्याण का विचार किया।
श्लोक 19:
चातुर्होत्रं कर्म शुद्धं प्रजानां वीक्ष्य वैदिकम् ।
व्यदधाद् यज्ञसन्तत्यै वेदमेकं चतुर्विधम् ॥
अनुवाद:
उन्होंने देखा कि यज्ञों के शुद्ध वैदिक कर्म लुप्त हो रहे हैं, तब उन्होंने यज्ञों की निरंतरता के लिए वेद को चार भागों में विभाजित किया।
श्लोक 20:
ऋग्यजुःसामाथर्वाख्या वेदाश्चत्वार उद्धृताः ।
इतिहासपुराणं च पञ्चमो वेद उच्यते ॥
अनुवाद:
वेद के चार भाग—ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद बनाए गए। साथ ही, इतिहास और पुराण को पाँचवें वेद के रूप में माना गया।
श्लोक 21:
तत्रर्ग्वेदधरः पैलः सामगो जैमिनिः कविः ।
वैशंपायन एवैको निष्णातो यजुषामुत ॥
अनुवाद:
ऋग्वेद का अध्ययन और संरक्षण महर्षि पाइल ने किया। सामवेद का ज्ञान महर्षि जैमिनि ने ग्रहण किया। यजुर्वेद के निष्णात महर्षि वैशंपायन थे।
श्लोक 22:
अथर्वाङ्गिरसामासीत् सुमन्तुर्दारुणो मुनिः ।
इतिहासपुराणानां पिता मे रोमहर्षणः ॥
अनुवाद:
अथर्ववेद का ज्ञान सुमन्तु मुनि ने ग्रहण किया। इतिहास और पुराणों का ज्ञान मेरे पिता, रोमहर्षण मुनि ने प्राप्त किया।
श्लोक 23:
त एत ऋषयो वेदं स्वं स्वं व्यस्यन्ननेकधा ।
शिष्यैः प्रशिष्यैः तत् शिष्यैः वेदास्ते शाखिनोऽभवन् ॥
अनुवाद:
इन ऋषियों ने वेदों को अपने-अपने ढंग से विभाजित किया। उनके शिष्यों और प्रशिष्यों ने आगे इन्हें और शाखाओं में विस्तारित किया।
श्लोक 24:
त एव वेदा दुर्मेधैः धार्यन्ते पुरुषैर्यथा ।
एवं चकार भगवान् व्यासः कृपणवत्सलः ॥
अनुवाद:
भगवान व्यास ने, जो कृपणवत्सल (दीनों के प्रति करुणा रखने वाले) हैं, वेदों को इस प्रकार व्यवस्थित किया कि दुर्बुद्धि मनुष्य भी उन्हें समझ सकें।
श्लोक 25:
स्त्रीशूद्रद्विजबंधूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा ।
कर्मश्रेयसि मूढानां श्रेय एवं भवेदिह ।
इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम् ॥
अनुवाद:
स्त्रियाँ, शूद्र और द्विजबंधु (अधार्मिक ब्राह्मण) वेद नहीं पढ़ सकते थे। उनके कल्याण के लिए महर्षि व्यास ने कृपा करके महाभारत की रचना की।
श्लोक 26:
एवं प्रवृत्तस्य सदा भूतानां श्रेयसि द्विजाः ।
सर्वात्मकेनापि यदा नातुष्यत् हृदयं ततः ॥
अनुवाद:
इस प्रकार हमेशा प्राणियों के कल्याण में लगे रहने वाले महर्षि व्यास का हृदय तब भी संतुष्ट नहीं हुआ।
श्लोक 27:
नातिप्रसीदद् हृदयः सरस्वत्यास्तटे शुचौ ।
वितर्कयन् विविक्तस्थ इदं प्रोवाच धर्मवित् ॥
अनुवाद:
सरस्वती नदी के पवित्र तट पर एकांत में ध्यानमग्न रहते हुए भी उनके हृदय में संतोष नहीं था। वे सोचने लगे और अपने विचार प्रकट किए।
श्लोक 28:
धृतव्रतेन हि मया छन्दांसि गुरवोऽग्नयः ।
मानिता निर्व्यलीकेन गृहीतं चानुशासनम् ॥
अनुवाद:
मैंने व्रत का पालन करते हुए वेदों का आदर किया, गुरुओं और अग्नियों की पूजा की, और उनके निर्देशों का पालन किया।
श्लोक 29:
भारतव्यपदेशेन ह्याम्नायार्थश्च दर्शितः ।
दृश्यते यत्र धर्मादि स्त्रीशूद्रादिभिरप्युत ॥
अनुवाद:
महाभारत के माध्यम से मैंने वेदों का अर्थ प्रकट किया, जिसे स्त्रियाँ, शूद्र और अन्य लोग भी समझ सकते हैं।
श्लोक 30:
तथापि बत मे दैह्यो ह्यात्मा चैवात्मना विभुः ।
असंपम्पन्न इवाभाति ब्रह्मवर्चस्य सत्तमः ॥
अनुवाद:
फिर भी, मुझे ऐसा लगता है कि मेरे हृदय में ब्रह्मतेज की कमी है। आत्मा पूरी तरह से तृप्त नहीं है।
श्लोक 31:
किं वा भागवता धर्मा न प्रायेण निरूपिताः ।
प्रियाः परमहंसानां त एव ह्यच्युतप्रियाः ॥
अनुवाद:
क्या मैंने भागवत धर्मों का सही ढंग से निरूपण नहीं किया? वे धर्म, जो परमहंसों और भगवान अच्युत को प्रिय हैं।
श्लोक 32:
तस्यैवं खिलमात्मानं मन्यमानस्य खिद्यतः ।
कृष्णस्य नारदोऽभ्यागाद् आश्रमं प्रागुदाहृतम् ॥
अनुवाद:
जब वे इस प्रकार असंतोष का अनुभव कर रहे थे, तब भगवान कृष्ण के प्रिय भक्त नारद मुनि उनके आश्रम में आए।
श्लोक 33:
तमभिज्ञाय सहसा प्रत्युत्थायागतं मुनिः ।
पूजयामास विधिवत् नारदं सुरपूजितम् ॥
अनुवाद:
महर्षि व्यास ने नारद मुनि को पहचान लिया और तुरंत उठकर उनका स्वागत किया। उन्होंने विधिपूर्वक उनकी पूजा की, जो देवताओं द्वारा भी पूजनीय हैं।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध के नैमिषीय उपाख्यान का चतुर्थ अध्याय समाप्त हुआ।
भागवत प्रथम स्कन्ध,चतुर्थ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) यहाँ प्रस्तुत ह किया गया। जिसमें भागवत प्रथम स्कन्ध,चतुर्थ अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सम्पूर्ण श्लोकों के साथ क्रमशः उसका अर्थ भी दिया गया है।