कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।

Sooraj Krishna Shastri
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कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।

"कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।"

चौपाई का विस्तृत विश्लेषण:

"कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा।
बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।"

यह चौपाई श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड में आती है, जहाँ काकभुशुण्डि जी गरुड़ जी को भक्ति, विश्वास और मोक्ष का मर्म समझा रहे हैं। इस चौपाई में आध्यात्मिक साधना के दो प्रमुख तत्त्वों—विश्वास और भक्ति—का गूढ़ रहस्य बताया गया है।


पहली पंक्ति का विश्लेषण

"कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा।"

इस पंक्ति में "सिद्धि" शब्द का अर्थ है—आध्यात्मिक या सांसारिक सफलता। सिद्धि दो प्रकार की होती है—

  1. सांसारिक सिद्धि – जिसे हम भौतिक उपलब्धियों (शिक्षा, धन, यश, पद, आदि) के रूप में देखते हैं।
  2. आध्यात्मिक सिद्धि – जिसमें आत्म-साक्षात्कार, परमात्मा की प्राप्ति, मुक्ति आदि आते हैं।

यहाँ काकभुशुण्डि जी स्पष्ट करते हैं कि किसी भी प्रकार की सिद्धि के लिए विश्वास अत्यंत आवश्यक है। यदि किसी व्यक्ति में अपने लक्ष्य, अपनी साधना, या ईश्वर के प्रति विश्वास नहीं है, तो वह सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।

विश्वास का महत्त्व

  • भक्ति में विश्वास: यदि भक्त को यह संदेह हो कि प्रभु उसके भजन से प्रसन्न होंगे या नहीं, तो उसकी भक्ति दृढ़ नहीं होगी।
  • सांसारिक जीवन में विश्वास: यदि कोई व्यक्ति अपने कार्य में विश्वास न रखे, तो वह उसे पूरी निष्ठा से नहीं कर पाएगा और असफल हो जाएगा।
  • आध्यात्मिक मार्ग में विश्वास: जब तक साधक को यह विश्वास न हो कि भगवान सच्चे हृदय से पुकारने पर अवश्य कृपा करेंगे, तब तक उसकी साधना में दृढ़ता नहीं आ सकती।

उदाहरण:

  • जब अर्जुन युद्ध से पहले संशय में थे, तो श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता के माध्यम से विश्वास दिलाया कि यदि वे धर्म के मार्ग पर चलते हैं, तो विजय निश्चित है।
  • प्रहलाद जी को अपने ईश्वर पर अटूट विश्वास था, इसलिए वे अग्नि, जल, विष और हथियारों से भी सुरक्षित रहे।

दूसरी पंक्ति का विश्लेषण

"बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।"

इस पंक्ति में भव (संसार), भय (मृत्यु, जन्म-मरण चक्र) और नाश (मोक्ष) का संबंध समझाया गया है।

  • "हरि भजन" का अर्थ है भगवान की भक्ति, उनके नाम का स्मरण, उनकी सेवा और प्रेम।
  • "भव भय" का अर्थ है जन्म-मरण का चक्र और संसार के दुख-दर्द।

भक्ति से भय का नाश क्यों?

  • जब मनुष्य ईश्वर की भक्ति में लीन हो जाता है, तो उसे संसार का भय नहीं रहता।
  • संसार में भय कई प्रकार के होते हैं—मृत्यु का भय, कष्टों का भय, अपमान का भय, असफलता का भय।
  • भक्त को यह विश्वास हो जाता है कि भगवान जो भी करेंगे, वह उसके लिए अच्छा ही होगा, जिससे उसके सभी भय समाप्त हो जाते हैं।

उदाहरण:

  1. गजेंद्र मोक्ष कथा – गजेंद्र को ग्राह ने पकड़ लिया था, परंतु उसने हरि भजन किया और श्रीहरि स्वयं उसकी रक्षा के लिए आए।
  2. द्रौपदी की भक्ति – जब द्रौपदी ने श्रीकृष्ण को पुकारा, तो उनकी लज्जा की रक्षा हुई।

श्रद्धा और विश्वास की महिमा

काकभुशुण्डि जी गरुड़ जी को उपदेश देते हुए कहते हैं कि मोक्ष या किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सबसे पहले विश्वास को दृढ़ करना आवश्यक है। इसके पश्चात ईश्वर का भजन करने से ही संसार के भय से मुक्ति संभव होती है।

1. विश्वास और भक्ति का महत्व

कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा।
बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।

अर्थात्, बिना विश्वास के कोई भी सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती और बिना हरि-भजन के संसार का भय नष्ट नहीं हो सकता।

काकभुशुण्डि जी गरुड़ जी को समझाते हैं कि चैन, सुख और भक्ति के लिए विश्वास अत्यंत आवश्यक है। बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती और बिना भक्ति के भगवान श्रीराम द्रवित नहीं होते। जब तक श्रीराम की कृपा नहीं होगी, तब तक जीव को विश्राम (मोक्ष) भी नहीं मिलेगा।

बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥

2. विश्वास क्या है?

तुलसीदास जी ने विश्वास को परिभाषित करते हुए कहा है—
भवानी शङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्।।

अर्थात्, श्रद्धा और विश्वास के बिना सिद्ध पुरुष भी अपने हृदय में स्थित ईश्वर के दर्शन नहीं कर सकते। श्रद्धा रूपी पार्वती जी और विश्वास रूपी शिव जी को प्रणाम करते हुए तुलसीदास जी यह स्पष्ट करते हैं कि श्रद्धा और विश्वास ईश्वर-प्राप्ति के दो आवश्यक आधार हैं

भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।

अर्थात्, श्रद्धावान, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ही ज्ञान प्राप्त करता है और इस ज्ञान को प्राप्त कर वह शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त कर लेता है।

3. सनातन धर्म में श्रद्धा और विश्वास का स्थान

यह भारत जैसे सनातन धर्म की महिमा है कि श्रद्धा और विश्वास के कारण एक निम्न कोटि का पक्षी (काकभुशुण्डि जी) उच्च कोटि के पक्षी (गरुड़ जी) को रामकथा का रसपान कराता है। यह केवल और केवल सनातन संस्कृति की सोच और विचारधारा का प्रभाव है।

तुलसीदास जी ने भी तो संसार को "सियाराममय" माना—
सिय राम मय सब जग जानी।
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी ॥

4. मन को नियंत्रित करना आवश्यक

श्रद्धा और विश्वास के बिना भक्ति संभव नहीं, किंतु मन को नियंत्रित करना अत्यंत कठिन है। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

अर्थात्, हे अर्जुन! निस्संदेह मन को वश में करना बहुत कठिन है, किंतु अभ्यास और वैराग्य से इसे नियंत्रित किया जा सकता है

योगदर्शन में भी कहा गया है—
अभ्यास वैराग्याभ्यां तन्निरोधः

मन की चंचलता को नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय निरंतर अभ्यास और वैराग्य है।

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥

अर्थात्, जब और जहां भी मन चंचल होकर भटकने लगे, तब उसे वापस नियंत्रित करके ईश्वर में लगाना चाहिए।

5. श्रद्धा की परीक्षा—एक प्रेरक कथा

एक गाँव में कई महीनों तक वर्षा नहीं हुई, जिससे अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई। गाँव के लोग एक साधु महाराज के पास गए और उपाय पूछने लगे। साधु महाराज ने पूछा—

"क्या आप ईश्वर पर विश्वास करते हैं?"

सभी ने उत्तर दिया—"हाँ, हम पूरी श्रद्धा रखते हैं।"

साधु महाराज ने कहा—
"गुरुवार को हम सब मिलकर वर्षा के लिए प्रार्थना करेंगे, लेकिन आपकी श्रद्धा दृढ़ होनी चाहिए कि भगवान हमारी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे।"

गुरुवार को पूरा गाँव मंदिर में एकत्रित हुआ और सबने मिलकर वर्षा के लिए प्रार्थना की। किंतु जब काफी देर बाद भी वर्षा नहीं हुई, तो वे साधु महाराज के पास शिकायत करने पहुंचे।

साधु महाराज ने पूछा—
"मंदिर आते समय आप में से कितने लोग छाता लेकर आए थे?"

सभी लोग चुप हो गए।

तब साधु महाराज बोले—
"यदि आपको विश्वास होता कि आपकी प्रार्थना सफल होगी और वर्षा होगी, तो आप छाता अवश्य लाते। किंतु आपकी श्रद्धा में ही कमी थी, इसलिए ईश्वर ने आपकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की।"

6. श्रद्धा के तीन प्रकार

भगवद्गीता में बताया गया है कि श्रद्धा तीन प्रकार की होती है—

"त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।।"

  1. सात्त्विक श्रद्धा – शुद्ध और ईश्वरमय।
  2. राजसिक श्रद्धा – कर्म प्रधान और भौतिक इच्छाओं से युक्त।
  3. तामसिक श्रद्धा – अज्ञान और नकारात्मकता से भरपूर।

किन्तु मनुष्य के पास यह अधिकार है कि वह अपनी श्रद्धा को उचित प्रयास से परिवर्तित कर सकता है

"राजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा।।"

अर्थात्, कभी-कभी सत्त्वगुण रजोगुण और तमोगुण पर प्रभावी हो जाता है, कभी रजोगुण सत्त्व और तमस पर हावी हो जाता है, और कभी तमोगुण सत्त्व और रजस को परास्त कर देता है।

7. कलियुग में श्रद्धा और विश्वास की महिमा

यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग सबसे उत्तम युग बन सकता है।

"कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥"

अर्थात्, यदि कोई व्यक्ति श्रद्धा और विश्वास के साथ राम-गुणगान करे, तो वह बिना प्रयास के ही भवसागर से पार हो सकता है

निष्कर्ष

श्रद्धा और विश्वास आध्यात्मिक उन्नति के मूल स्तंभ हैं। इनकी अनुपस्थिति में न तो भक्ति संभव है और न ही भगवान की कृपा प्राप्त हो सकती है।

  1. विश्वास के बिना भक्ति अधूरी है।
  2. श्रद्धा और विश्वास से ज्ञान प्राप्त होता है, जो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
  3. संयम, अभ्यास और वैराग्य से मन को नियंत्रित किया जा सकता है।
  4. यदि श्रद्धा सच्ची हो, तो ईश्वर की कृपा अवश्य मिलती है।

अतः, श्रद्धा, विश्वास और भक्ति से युक्त होकर भगवान का स्मरण करें और जीवन को सार्थक बनाएं।


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