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भागवत कथा- महादेव की सरलता और भस्मासुर(bhasmasur) का अन्त |
आज हम भागवत पुराण के अन्तर्गत महादेव शिव जी की सरलता और भस्मासुर कथा के एक और गहराई भरे रूपांतरण में प्रवेश कर रहे हैं — जो केवल अहंकार या छल की कथा नहीं, बल्कि "गौरी-हरण-लालसा" के भीतर छिपी वासना, लोभ और माया की भी गाथा है।
भागवत कथा- महादेव की सरलता और भस्मासुर(bhasmasur) का अन्त
प्रसंगभूमि
भस्मासुर शकुनि का पुत्र था जिसने अतुल्य शक्ति की प्राप्ति हेतु घोर तप किया। न उसे भोजन चाहिए था, न सुख, न निद्रा। बस एक इच्छा थी — परम शक्ति। तप से प्रसन्न होकर शिव स्वयं प्रकट हुए — और उनके साथ थीं माँ पार्वती।
यह एक विशेष क्षण था, जहाँ भस्मासुर को दो रूपों में ईश्वर दिखाई दिए —
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एक, संहारकर्ता शिव,
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दूसरी, सौंदर्य की मूर्ति गौरी (पार्वती)।
शिव का वरदान
महादेव की सरलता और सहजता देखकर भस्मासुर ने शिव जी से अमरत्व की प्राप्ति का वरदान माँगा पर शिव जी ने समझाते हुए कोई अन्य वर मांगने को कहा। भस्मासुर सोच-विचार करते हुए वरदान माँगता है -
"यस्य यस्य करं शीर्ष्णि धास्ये स म्रियतामिति "(हे प्रभो! ऐसा वर दो कि मैं जिसके सिर पर हाथ रखूं, वह भस्म हो जाए अर्थात् मर जाए।)
महादेव की सरलता और वरदानी स्वभाव होने के कारण, बिना चाल समझे, बोले — तथास्तु।
गौरी हरण की लालसा जागृत होती है
माँ पार्वती उस समय शिव के समीप स्थित थीं। भस्मासुर की दृष्टि माँ पार्वती पर पड़ी। अब तो काम वासना से पीड़ित भस्मासुर केवल वरदान तक सीमित न रहा। जैसे ही उसकी नज़र माँ गौरी के रूप पर पड़ी, उसकी वासना जाग उठी।
वह मन में माँ पार्वती का हरण करने के उद्देश्य से आगे बढ़ने लगा।- गौरीहरणलालसा
कपटपूर्ण आग्रह
भस्मासुर ने शिव जी से पूछा: "हे महादेव! आपने वर दे दिया। अब एक और कृपा करें — मुझे गौरी को भी दीजिए। वह मेरी पत्नी बने।" शिव का मुख कठोर हो गया। पार्वती चकित और क्रोधित थीं। किन्तु शिव कुछ बोले नहीं। उन्होंने केवल कहा, "अब तुम जा सकते हो।"
भस्मासुर का दुस्साहस
भस्मासुर वहाँ से जाने का नाम नहीं ले रहा और बार-बार पार्वती को देखता रहा। उसके मन में अब केवल एक लालसा थी —
"गौरी हरण"।
उसे अब यह लगने लगा कि वह खुद शिव से भी बड़ा है — क्योंकि उसके पास मृत्यु-संवरण का वर है। वह सोचने लगा कि शिव जी को अगर भस्म कर दूँ तो मेरे दो कार्य सिद्ध हो जाएँगें , पहला - पार्वती मेरी पत्नी बन जाएँगी और दूसरा - वरदान का परीक्षण भी हो जाएगा। ऐसा सोचकर शिव जी के मस्तक पर हाथ रखने के लिए उनकी ओर बढ़ा । अब तो शिव जी भागने लगे और कहने लगे - अरे बेटा भस्मासुर यह क्या कर रहे हो। वो तो कुछ सुनने को तैयार नहीं । वह कहने लगा कुछ नहीं महादेव बस आपके द्वारा दिए गए वरदान का परीक्षण करना है और वह भी शिव जी के पीछे-पीछे भागने लगा। त्रैलोक्य घूमने के बाद निराश होकर शिव जी एक वृक्ष की कोटर में उलटे होकर लटक गए और मन ही मन विष्णु से इस स्थिति से बचने के लिए प्रार्थना करने लगे।
मोहिनी बालक का चमत्कार
अब कथा में प्रवेश हुआ मोहिनी बालक का — विष्णु का मायामय रूप। मोहिनी ने भस्मासुर को उसकी ही इच्छा में उलझाकर नृत्य में लपेटा। पहले मोहिनी ने उसकी स्तुति की — उसके सौंदर्य और शक्ति की।
फिर उसने कहा:
"शाकुनेय भवान् व्यक्तं श्रान्तो किं दूरमागतः?"(लगता है आप दूर से आए हैं, वीर हो, थके हो — कुछ विश्राम कर लो।)
वह भस्म हो गया।
अंतिम संदेश
वह गौरी को जीतना चाहता था,पर अपने भीतर छिपे राक्षस से हार गया।
यह कथा हमें सिखाती है:
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ईश्वरीय सौंदर्य पर लालसा करना विनाश का कारण बन सकता है।
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शक्ति का अहंकार यदि वासना से जुड़ जाए, तो उसका अंत अनिवार्य है।
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ईश्वर की कृपा पाने के बाद भी यदि भाव शुद्ध न हो, तो वह कृपा भी शाप बन जाती है।
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