अभिज्ञान-शाकुन्तलम् , चतुर्थ अङ्क, श्लोक संख्या 14 (यस्य त्वया व्रणविरोपण..)

Sooraj Krishna Shastri
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अभिज्ञान-शाकुन्तलम् , चतुर्थ अङ्क, श्लोक संख्या 14 (यस्य त्वया व्रणविरोपण..)

इतः पन्थानं प्रतिपद्यस्व ।

व्या. एवं श. - प्रतिपद्यस्व - प्रति+पद्‌+लोट्‌+म°प्रं०ए०व०.= प्राप्त करो – आ जाओ ।

इधर से मार्ग पर आ जाओ ।

शकुन्तला- (सख्यो प्रति) हला, एषा द्वयोर्युवयोर्हस्ते निक्षेपः ।

शकुन्तला- (दोनों सखियों से) सखियों, यह (लता) तुम दोनों के हाथ मे (मेरी) धरोहर (निक्षेप) है । सख्यौ- अयं जनः कस्य हस्ते समर्पितः । (अअं जणो कस्य हत्ये समप्पिदो ।) (इति वाष्पं विहरतः)।

दोनों सखियाँ - यह जन किसके हाथ में सौपा जा रहा है (अर्थात्‌ हम दोनों को किसके हाथ में सोप रही हो) । (दोनों ओंसू बहाती है) ।

अभिज्ञान-शाकुन्तलम् , चतुर्थ अङ्क, श्लोक संख्या 14 (यस्य त्वया व्रणविरोपण..), Abhigyan shakuntalam , chaturth ank, shloka 14, sooraj krishna
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काश्यपः - अनसूये, अलं रुदित्वा । ननु भवतीभ्यामेव स्थिरीकर्तव्या शकुन्तला । (सर्वे परिक्रामन्ति)।

व्या° एवं श ०- अलं रुदित्वा - यहौँ निषेधार्थक “अलम्‌ के योग में अलं खल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा' से क्त्वा प्रत्यय = मत रोओ । स्थिरीकर्तव्या - स्थिर्‌+च्वि+कृ+तव्यत्‌+टाप्‌ = धैर्य बंधाना चाहिये।

कण्व- अनसूया, रोओ मत । आप दोनों द्वारा शकुन्तला को धैर्य बेधाना चाहिये । (सभी लोग चारो ओर घुमते है)।

शकुन्तला- तात, एषोटजपर्यन्तचारिणी गर्भमन्थरा मृगवधूर्यदाऽनघप्रसवा भवति, तदा मह्यं कमपि प्रियनिवेदयितृकं विसर्जयिष्यथ । (ताद, एषा उड अपज्जन्तचारिणी गन्भमन्थरा मअवहू जदा अणघप्पसवा होई तदा मे कंपि पिअणिवेदइत्तअं विसज्जइस्सह ।)

व्या० एवं श०- उटजपर्यन्तचारिणी - उटजस्य पर्यन्ते चरतीति सा - चर्‌ णिनि+डीप्‌ = कुटी के समीप विचरण करने वाली । गर्भमन्थरा - गर्भेण (गर्भस्य भारेण) मन्थरा तृ०त० = गर्भं के भार से शिथिल । अनघप्रसवा - अविद्यमानम्‌ अघं यस्मिन्‌ स अनघः (नञ्‌ बण्व्री०), अनघः प्रसवः यस्याः सा (ब°त्री०) = निर्विघ्न (सकुशल) प्रसव वाली । प्रियनिवेदयितृकम्‌ प्रियं साधु निवेदयति इति - प्रिय+नि+विद्‌+णिच्‌+तृन्‌+क ~ द्वि°पु०ए०व° = प्रिय समाचार की सूचना देने वाले को-। विसर्जयिष्यथ - वि+सृज्‌+णिच्‌+थ म०पु०ब०व० = भेजियेगा ।

शकुन्तला- हे पिता जी, कुटी के समीप विचरण करने वाली (ओर) गर्भ के कारण मन्द गति वाली यह हरिणी (मृगवधू) जब निर्विष्न (सकुशल) बच्चा पैदा करेगी त (इस) प्रिय समाचार की सूचना देने वाले किसी व्यक्ति को मेरे पास भेजियेगा ।

काश्यपः- नेदं विस्मरिष्यामः । कण्व--इस (बात) को नहीं भूर्लुगा ।

शकुन्तला-(गतिभङ्गं रूपयित्वा) को न खल्वेष निवसने मे सज्जते ? (को णु क्खु एसो णिवसणे मे सज्जइ्‌) (इति परावर्तते) ।

व्या एवं श ०- निवसने = वस्र मे । सज्जते - सस्‌ज+लय्‌+प्र०पु०ए०व० आत्मनेपद = लिपट रहा हे । शकुन्तला-(चलने में रुकावट का अभिनय कर) यह कौन मेरे वस्र में लिपट रहा है 2 (पीछे मुडती हे) ।

काश्यपः- वत्से, कण्व- बेटी,

यस्य त्वया व्रणविरोपणमिङ्गुदीनां

तैलं न्यषिच्यत मुखे कुशसूचिविद्धे ।

श्यामाकमुष्टिपरिवर्धितको जहाति

सोऽयं न पुत्रकृतकः पदवीं मृगस्ते ॥१४॥

अन्वय - यस्य कुशसूचिविद्धे मुखे त्वया व्रणविरोपणम्‌ इङ्गंदीनां तैलं न्यषिच्यत, सः अयं श्यामाकमुष्टिपरिवर्धितकः पुत्रकृतकः मृगः ते पदवीं न जहाति ।

शब्दार्थ- यस्य = जिसके । कुशसूचिविद्धे = कुशो के अग्रभाग (नोक) से बिंधे हये । मुखे = मुख मे । त्वया = तुम्हारे द्वारा । व्रणविरोपणम्‌ = घावों को भरने वाला । इङ्गदीनाम् = इङ्गुदी (हिङ्गो) का । तैलम्‌ = तेल । न्यषिच्यत = लगाया गया था । सः = बह । अयम्‌ = यह । श्यामाकमुष्टिपरिवर्धितकः; = सांवा कौ मुद्धियों (ग्रासों) से वर्धित (बड़ा किया गया) । पुत्रकृतकः = पुत्र की भाति माना गया । मृगः = हरिण । ते = तुम्हारे । पदवीं = मार्ग को । न = नहीं । जहाति = छोड रहा हे । अनुवाद- जिसके कुशो के अग्रभाग (नोक) से बिंधे हुये मुख मे तुम्हे द्वारा घावों को भरने वाला इङ्गुदी (हिङ्गोट) का तेल लगाया गया था, वही यह सांवा की मुट्ठियों (ग्रासों) को खिलाकर बड़ा किया गया (पाला गया) और (तुम्हारे द्वारा) पुत्र की भाँति माना गया हरिण तुम्हारे मार्ग को नहीं छोड़ रहा हे । संस्कृत व्याख्या- यस्य - मृगस्य, कुशसूचिविद्धे - कुशानां दर्भाणां सूचिभिः अग्रभागैः विद्धे क्षते, मुखे - आनने, त्वया - शकुन्तलया, ब्रणविरोपणं ~ क्षतनाशकम्‌ ; इङ्गुदीनां - तापसतरूणाम्‌ , तैलं - स्नेहः, न्यषिच्यत - निषिक्तम्‌ , सः अयम्‌ - एषः, श्यामाकमुष्टिपरिवर्धितकः - श्यामाकानां तृणधान्यमुष्टिपरिपोषितः, पुत्रकृतकः - पुत्रवत्‌ स्वीकृतः, मृगः - हरिणः, ते - तव, पदवीं - मार्ग, न जहाति - न परित्यजति ।

संस्कृत- सरलार्थः - कुशाग्रक्षते यस्य मुखे त्वयां (शकुन्तया) त्रणविरोपणायेङ्गदीतैलं निषिक्तं स एव त्वया श्यामाकमुष्टं पोषितोऽयं मृगशावकस्ते मार्ग न त्यजतीतिभावः ।

व्याकरण- कुशसूचिविद्धे ~ कुशानां सूचिभिः विद्धे (तत्पु०), विद्ध - व्यध+क्तस० । ब्रणविरोपणम्‌ व्रणानां विरोपणम्‌ (त०) - विरोपण - वि+रुह+णिच्‌+ ल्युट्‌ (करणे) रुहः योऽन्यतरस्याम्‌- सूत्र से ह के स्थान मे प । न्यषिच्यत - नि+सिच्‌ (कर्मवाच्य) लड्‌ । यहाँ पर श्राकसितादङः व्यवायेऽपि' सत्र से सिच्‌ के “स्‌' को ष' आदेश । श्यामाकमुष्टिपरिवर्धितकः श्यामकानां मुष्टिमिः परिवर्धितः श्यामाकमुष्टिपरिवर्धितः उससे अनुकम्पा मे कन्‌ प्रत्यय । पुत्रकृतकः - इसकी व्युत्पत्ति दो प्रकार से होती है-(१) कृतकः पुत्रः पुत्रकृतकः 'मयुरव्यंसकादयश्च' से समास होने के कारण कृतक" का बाद में प्रयोग हुआ हे । (२) पुत्रः कृतः, पुत्रकृतः, सुप्सुपा से समास ओर स्वार्थ मे कन्‌' (क) प्रत्यय । जहाति - “हा' लट्‌ प्रणपु०ए०व० ।

कोष- कृतकः स्यात्‌ पुमान्‌ कृष्णखपरे चाप्यसम्भवे पुत्रभेदे कृत्रिमे च त्रिषु" शब्दाब्धिः ।

अलङ्कार- यहाँ मृग के स्वभाव का वर्णन होने से "स्वभावोक्ति" अलङ्कार हे ।

छन्द- पद्य में "वसन्ततिलका" न्द है ।

टिप्पणी-(१) इङ्गदीवृक्ष के फल से मुनि लोग तेल निकालते थे । घाव को भरने के लिये भी उसका उपयोग होता था। शकुन्तला ने मृगशावक के मुख के घाव पर उसे ही लगाकर ठीक किया था । (२) श्यामाक - यह जंगलो का एक धान्यविशेष है, जिसका खाद्य के रूप में मनि लोग उपयोग करते थे । शकुन्तला ने उसी के अन्न को मुट्ठी मे भर-भर कर मृगशावक को खिलाकर उसे बड़ा किया था । (३) शकुन्तला के द्वारा पालित-पोषित वही मृगशावक अतिशय परिचित होने के कारण शकुन्तला के गमन-काल में उसके वस्त्र को पकड़कर उसे जाने से रोक रहा हे ।

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