जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
अर्थात्, जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, प्रभु वहाँ (उसके लिए) सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं।
भगवान् सब जगह हैं । जहाँ हम हैं, वहीं भगवान् भी हैं । भक्त जहाँ से भगवान् को बुलाता है, वहीं से भगवान् आते हैं । भक्त की भावना के अनुसार ही भगवान् प्रकट होते हैं।
लेकिन -
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन
जानहिं भगत भगत उर चंदन॥
वही आपको जानता है, जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन! हे भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले चंदन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥
जब भगवान् श्रीकृष्ण गोपियों के बीच से अन्तर्धान हो गये तो गोपियाँ पुकारने लगीं।
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जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥ |
हे प्रिय - तुममें अपने प्राण समर्पित कर चुकने वाली हम सब तुम्हारी प्रिय गोपियाँ तुम्हें सब ओर ढूँढ रही हैं, अतएव अब तुम तुरन्त दिख जाओ ।
हरि व्यापक सर्वत्र समाना ।
प्रेम में प्रगट होहिं मैं जाना ।।
भगवान व्यापक हैं उनके लिए जिनके हृदय में प्रीति होती है,उनके हृदय में वे प्रकट होते हैं ।
गोपियों की पुकार सुनकर भगवान् उनके बीच में ही प्रकट हो गये।
तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्मथमन्मथः ॥
ठीक उसी समय उनके बीचो बीच भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हो गये । उनका मुखकमल मन्द-मन्द मुसकान से खिला हुआ था, गले में वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे । उनका यह रूप क्या था, सबके मन को मथ डालने वाले कामदेव के मन को भी मथने वाला था।
इस प्रकार गोपियों ने प्यारे दिख जाओ "दयित दृश्यताम्" ऐसा कहा तो भगवान् वहीं दिख गये । यदि वे कहतीं कि कहीं से आ जाओ, तो भगवान् वहीं से आते ।
"एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापि"
भगवान एक है; वह सबके हृदय में विराजमान है; वह भी दुनिया में हर जगह है।
भगवान् की प्राप्ति साधन के द्वारा होती है यह बात भी यद्यपि सच्ची है, परन्तु इस बात को मानकर चलने से साधक को भगवत्प्राप्ति देर से होती है । यदि साधक का ऐसा भाव हो जाय कि मुझे तो भगवान् अभी मिलेंगे, तो उसे भगवान् अभी ही मिल जायँगे । वे यह नहीं देखेंगे कि भक्त कैसा है, कैसा नहीं है ? काँटों वाले वृक्ष हों, घास हो, खेती हो, पहाड़ हो, रेगिस्तान हो या समुद्र हो; वर्षा सब पर समान रूप से बरसती है । वर्षा यह नहीं देखती कि कहाँ पानी की आवश्यकता है और कहाँ नहीं ? इसी प्रकार जब भगवान् कृपा करते हैं तो यह नहीं देखते कि यह पापी है या पुण्यात्मा ? अच्छा है या बुरा ? वे सब जगह बरस जाते अर्थात् प्रकट हो जाते हैं।
जैसे सूर्य एवं चंद्र सबको अपनी गर्मी एवं शीतलता समान रूप से देते हैं। चाहे राजा हो या रंक।
मया तत्तमिदं सर्वं जगद्व्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित:।।
भगवान एक है वह सबके हृदय में विराजमान है वह भी दुनिया में हर जगह है। ईश्वर दुनिया में हर जगह है। ईश्वर उन सभी चीज़ों में व्याप्त है जो अस्तित्व में हैं और जो अस्तित्व में रहेंगे। एक घटना कहें या कहानी याद आती है –
एक छोटा बच्चा माँ की उंगुली पकड़कर मेले में जा रहा था। एक जगह रंग- बिरंगी मिठाई देखकर बच्चे ने उसकी तरफ उंगुली उठायी पर माँ उसे लेकर आगे बढ़ गयी बच्चा पलट-पलट कर घिसटता हुआ मिठाई की तरफ देखता रहा। ऐसे ही बच्चे ने गुब्बारे को देखकर माँ को लेने को कहा माँ ने मना कर दिया और माँ जल्दी-जल्दी आगे चलने लगी पर बच्चा धीमे-धीमे लिथड़ता हुआ बार-बार पीछे देखता हुआ माँ के साथ चल रहा था। मेले में एक जगह बंदर का खेल दिखा रहा था, अबकी बच्चा माँ से हाथ छुड़ाकर खेल देखने को भाग गया।
जब खेल खत्म हुआ तब उसे माँ की याद आयी लेकिन उसे माँ दूर-दूर तक न दिखी तो वो रोने लगा एक दयालु आदमी (गुरु) ने आकर उसे गोद में उठा लिया और चुप कराने की कोशिश करने लगा। उसने बच्चे को गुब्बारे देने का प्रयास किया बच्चे ने मुँह घुमा लिया आदमी ने मिठाई देनी चाही पर बच्चे ने नही ली वो रोता ही जा रहा था। उसे अब सिर्फ माँ चाहिये थी, मेले की किसी भी चीज में उसकी रुचि नही रह गयी।
इसी तरह हम लोग भी परमात्मा से विमुख होकर संसार रूपी मेले में मगन हो जाते जाते है और अंत समय जब बुढ़ापा आता है या मेले को उपभोग करने की शक्ति और योग्यता नहीं रह जाती तब उसकी याद आती है। जब मेले के साथी साथ छोड़ने लगते है तब उस परम मित्र का ख्याल आता है। लेकिन तब तक शरीर में उसे प्राप्त करने की शक्ति नहीं रह जाती, बहुत देर हो जाती है। इसलिये देर न करो, चल पड़ो उससे मिलने के लिये, पता नहीं कब इस जीवन की शाम हो जाये, इससे पहले प्रभु के धाम की खबर मिल जाये।
तुलसी जसि भवितव्यता तैसी मिलई सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाॅ ले जाइ।।
जैसी भवितव्यता (होनहार ) होती है वैसी हीं सहायता मिलती है। या तो वह सहायता अपने आप स्वयं आ जाती है या वह व्यक्ति को वहाॅ ले जाती है।
इसका तात्पर्य है कि हमारे साथ जो भी होना होता है हमें उसी प्रकार की सहायता अर्थात उसी से समबन्धित सहयोग अपने आप मिल जाता है। यह सहयोग, किसी व्यक्ति के रूप में अथवा परिस्थिति के रूप में हमें उसी घटना की तरफ खींचकर ले जाता है जो हमारे साथ घटित होना है। हमारे द्वारा किये गए पिछले कई जन्मों के कर्मों के निर्धारण अनुसार होनहार हमारे लिए अच्छी भी हो सकती है और हमारे लिए हानिकारक भी। यदि हमें किसी कार्य को करने से लाभ होना है तो उसी प्रकार के सहयोगी हमें अपने आप मिल जाते हैं। इसी प्रकार यदि हानि होना है तो भी इस प्रकार की परिस्थितयां अपने आप निर्मित होती हैं जो कि हम समझ नहीं सकते हैं।
यदि हम अच्छी विचारधारा के साथ सद्कर्म करते रहेंगे तो हमारे साथ होनी अच्छी ही घटित होगी जिसके लिए सहायता अपने आप मिलती जाएगी।