Sachet Economy की ओर बढ़ता भारत: छोटे पैकेट में बड़ी अर्थव्यवस्था की कहानी

Sooraj Krishna Shastri
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भारत तेजी से Sachet Economy की ओर बढ़ रहा है, जहाँ छोटे-छोटे पैकेट्स FMCG बाजार की रीढ़ बन चुके हैं। जानिए इसके फायदे, नुकसान और आर्थिक प्रभाव।

Sachet Economy की ओर बढ़ता भारत: छोटे पैकेट में बड़ी अर्थव्यवस्था की कहानी


🔹 भूमिका : छोटे पैक, बड़ी सोच

आज का भारत तेजी से एक ऐसी अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है जिसे अर्थशास्त्री “Sachet Economy” कहते हैं।
यह वह व्यवस्था है जहाँ उपभोक्ता उत्पादों को बड़ी मात्रा या बोतलों में नहीं, बल्कि छोटे-छोटे पैकेट्स (sachets) में खरीदना पसंद करता है — ₹1, ₹2, या ₹5 में मिलने वाले शैंपू, तेल, बिस्किट, टूथपेस्ट, कॉफी आदि इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण हैं।

सामान्यतः यह प्रवृत्ति गरीब उपभोक्ताओं के लिए सुविधा का माध्यम मानी जाती है, लेकिन इसके भीतर भारत की आय असमानता, उपभोक्ता व्यवहार, और बाजार नीति की गहरी कहानी छिपी है।


🔹 1. Sachet Economy क्या है?

Sachet Economy का अर्थ है —

“ऐसी अर्थव्यवस्था जिसमें उत्पादों को अत्यंत छोटी इकाइयों में पैक करके बेचा जाए ताकि निम्न आय वर्ग भी उन्हें खरीद सके।”

यह शब्द “Sachetization” से आया है, जिसका मतलब है “बड़ी वस्तुओं को छोटे हिस्सों में विभाजित कर बेचना”।
इसका मुख्य उद्देश्य होता है —

Sachet Economy की ओर बढ़ता भारत: छोटे पैकेट में बड़ी अर्थव्यवस्था की कहानी
Sachet Economy की ओर बढ़ता भारत: छोटे पैकेट में बड़ी अर्थव्यवस्था की कहानी

  • उपभोक्ता तक उत्पाद की पहुँच बढ़ाना
  • बाजार में उत्पाद की स्वीकार्यता बढ़ाना
  • प्रतिस्पर्धा में बने रहना

🔹 2. भारत में Sachetization का आरंभ और विस्तार

भारत में यह प्रवृत्ति 1990 के दशक में FMCG कंपनियों द्वारा शुरू की गई।
Hindustan Unilever, ITC, Godrej, Colgate-Palmolive, Nestle, आदि कंपनियों ने ग्रामीण और निम्न आय वाले उपभोक्ताओं को लक्ष्य बनाकर ₹1-₹2 के पैक लॉन्च किए।

उदाहरण:

  • 1990 में Clinic Plus Shampoo का ₹1 सैशे आया
  • Fair & Lovely, Pepsodent, Tata Tea, Santoor जैसे उत्पाद भी इसी मॉडल पर चले
  • आज भारत में लगभग 60% FMCG बिक्री छोटे पैकिंग्स से होती है

इस मॉडल ने ग्रामीण भारत में खपत का नया अध्याय खोला। जहाँ पहले लोग साबुन या तेल थोक में नहीं खरीद पाते थे, अब वही उत्पाद हर जेब में पहुँच गए।


🔹 3. Sachet Economy का सामाजिक अर्थ

भारत में यह प्रवृत्ति केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक भी है।
गरीब वर्ग भी अब वही ब्रांड उपयोग करता है जो मध्यम या उच्च वर्ग करता है।
यह “उपभोग की समानता” का भाव पैदा करती है —
परंतु, यह समानता सतही है।

क्योंकि—

  • गरीब व्यक्ति प्रति मिलीलीटर या प्रति ग्राम अधिक मूल्य चुकाता है,
  • जबकि अमीर व्यक्ति बड़ा पैक लेकर कम कीमत में अधिक उत्पाद पाता है।

उदाहरण:

पैक का प्रकार मूल्य मात्रा प्रति मिलीलीटर मूल्य
₹1 सैशे ₹1 6 ml ₹166 प्रति लीटर
₹200 बोतल ₹200 650 ml ₹307 प्रति लीटर

स्पष्ट है कि छोटा पैक सस्ता दिखता है पर वास्तव में महँगा पड़ता है


🔹 4. आर्थिक दृष्टि से Sachet Economy के लाभ

  1. बाजार का विस्तार: ग्रामीण और निम्न आय वर्ग तक उत्पाद पहुँचाना आसान हुआ।
  2. ब्रांड विजिबिलिटी: हर वर्ग में ब्रांड की पहचान बढ़ी।
  3. कैश फ्लो स्थिर: उपभोक्ता रोज़ाना छोटी खरीद करता है जिससे कंपनियों को निरंतर बिक्री मिलती है।
  4. उपभोक्ता मनोविज्ञान: “कम दाम में खरीदने” का संतोष उपभोक्ता को ब्रांड से जोड़े रखता है।

🔹 5. इसके दुष्प्रभाव और चुनौतियाँ

  1. प्लास्टिक प्रदूषण: छोटे पैकिंग्स पुनर्चक्रण योग्य नहीं होते, जिससे भारी मात्रा में प्लास्टिक कचरा पैदा होता है।
  2. आय असमानता की स्थिरता: गरीब उपभोक्ता कभी “थोक में खरीदने” की क्षमता नहीं बना पाता।
  3. अदृश्य महँगाई: मूल्य तो समान रहता है पर मात्रा धीरे-धीरे घटाई जाती है (Shrinkflation)।
  4. नीतिगत समस्या: टैक्स में कमी (जैसे जीएसटी 18% से 5%) का लाभ उपभोक्ता तक नहीं पहुँच पाता क्योंकि ₹1 पैक का मूल्य व्यावहारिक रूप से घटाया नहीं जा सकता।

🔹 6. सरकारी और संस्थागत पक्ष

2017 में जीएसटी लागू होने के बाद सरकार ने National Anti-Profiteering Authority (NAA) बनाई थी ताकि टैक्स घटने का लाभ ग्राहकों को मिले।
परंतु 2022 में इसे समाप्त कर Competition Commission of India (CCI) को यह कार्यभार दिया गया।
CCI के पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वह हर छोटे FMCG उत्पाद की कीमत पर निगरानी रख सके।
इस कारण उपभोक्ताओं को टैक्स कटौती का प्रत्यक्ष लाभ नहीं मिलता।


🔹 7. Sachetization की सीमा : जब यह खतरनाक बनती है

यह प्रवृत्ति केवल उपभोग तक सीमित नहीं रही।
अब वित्तीय बाजार (Financial Markets) में भी “सैशे मॉडल” लागू हो गया है —
जहाँ छोटे निवेशक ₹1000 से भी Futures & Options में प्रवेश कर सकते हैं।
पर यह जोखिम भरा बाजार है जहाँ 10 में से 9 निवेशक नुकसान उठाते हैं
अर्थात, सैशे सोच यदि जोखिम वाले क्षेत्रों में पहुँच जाए तो यह गरीबी को गहराती है, न कि घटाती।


🔹 8. आगे का मार्ग : नीति और जनजागरूकता

  1. Unit Price Disclosure: हर पैक पर प्रति मिलीलीटर या ग्राम मूल्य लिखना अनिवार्य किया जाए।
  2. Eco-friendly Packaging: छोटे पैक के लिए बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग को बढ़ावा दिया जाए।
  3. Consumer Awareness: जनता को समझाया जाए कि सस्ता दिखने वाला उत्पाद वास्तव में महँगा हो सकता है।
  4. Targeted Subsidy: निम्न आय वर्ग के लिए आवश्यक उत्पादों पर लक्षित रियायतें दी जाएँ।
  5. Digital Sachetization Control: उच्च जोखिम वाले वित्तीय उत्पादों में न्यूनतम आय मानदंड लागू किया जाए।

🔹 निष्कर्ष : छोटे पैकेट में छिपी बड़ी कहानी

भारत की Sachet Economy ने देश के हर कोने में उपभोग का प्रसार किया,
लेकिन इसके साथ यह भी उजागर हुआ कि सस्ता दिखने वाला उपभोग कभी-कभी महँगा पड़ता है

यह मॉडल जहाँ गरीब उपभोक्ता को सुविधा देता है, वहीं यह आय असमानता को भी स्थायी बनाता है।
सैशे इकॉनमी भारत की आर्थिक सृजनशीलता का प्रतीक है,
परंतु इसे संतुलित नीतियों, पारदर्शिता और पर्यावरणीय जिम्मेदारी के साथ नियंत्रित करना अब समय की आवश्यकता है।


📜 सारांश तालिका :

पहलू सकारात्मक पक्ष नकारात्मक पक्ष
उपभोग अधिक लोगों तक उत्पाद पहुँच प्रति यूनिट मूल्य अधिक
पर्यावरण सुविधा प्लास्टिक प्रदूषण
आय वर्ग गरीबों के लिए पहुंच असमानता स्थायी
नीति प्रभाव टैक्स से राहत लाभ उपभोक्ता तक नहीं
समाधान पारदर्शिता, साक्षरता, पर्यावरणीय नीति


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