Vyakarana Aur Kavya Ka Mool Tatva – भूख-प्यास और ज्ञान का वास्तविक सम्बन्ध | Sanskrit Niti Shloka Explained

Sooraj Krishna Shastri
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“भूख-प्यास और ज्ञान के असली सम्बन्ध पर आधारित संस्कृत नीति श्लोक—व्याकरण, काव्य और विद्या का व्यावहारिक महत्व सरल भाषा में विस्तृत व्याख्या।”

“जानें कैसे संस्कृत नीति श्लोक ‘बुभुक्षितैर्व्याकरणं न भुज्यते…’ मानव के मूलभूत आवश्यकताओं और ज्ञान की उपयोगिता का गहरा संदेश देता है। श्लोक का अनुवाद, शब्दार्थ, व्याकरण, आधुनिक सन्दर्भ और नीति कथा सहित पूर्ण विश्लेषण।”

Vyakarana Aur Kavya Ka Mool Tatva – भूख-प्यास और ज्ञान का वास्तविक सम्बन्ध | Sanskrit Niti Shloka Explained


1. श्लोक (देवनागरी)

बुभुक्षितैर्व्याकरणं न भुज्यते
पिपासितैः काव्यरसो न पीयते ।
न विद्यया केनचिदुद्धृतं कुलम्
हिरण्यमेवार्जय निष्फलाः कलाः ॥


2. IAST (IAST/transliteration)

bubhukṣitair vyākaraṇaṁ na bhujyate
pipāsitair kāvyaraso na pīyate |
na vidyayā kenacid uddhṛtaṁ kulaṁ
hiraṇyameva ārjaya niṣphalāḥ kalāḥ ||


3. हिन्दी अनुवाद (भावानुवाद)

भूखे लोगों के लिए व्याकरण का ज्ञान उपयोगी नहीं होता;
प्यासे लोगों के लिए काव्यरस पीने योग्य नहीं होता।
जिस परिवार को केवल ज्ञान के बल पर उठाया गया हो, वह ठोस नहीं रहता—
इसलिए केवल कला-ज्ञान से जब धन न हो तो वे कला-व्यवसाय निष्फल (अफलद) सिद्ध होते हैं।

(सरल भाषा): “जब पेट भरा न हो और प्यास न बुझी हो तो शुद्ध शास्त्र और सुन्दर काव्य का भोग/लाभ नहीं होता। केवल विद्या-खानदान से परिवार की भलाई नहीं हो सकती; धन कमाना भी आवश्यक है — अन्यथा कलाएँ व्यर्थ हैं।”

Vyakarana Aur Kavya Ka Mool Tatva – भूख-प्यास और ज्ञान का वास्तविक सम्बन्ध | Sanskrit Niti Shloka Explained
Vyakarana Aur Kavya Ka Mool Tatva – भूख-प्यास और ज्ञान का वास्तविक सम्बन्ध | Sanskrit Niti Shloka Explained

4. शब्दार्थ (Word-by-word)

  • बुभुक्षितैः — भूखी अवस्थाओं से ग्रस्त लोगों (locative/ablative/ instrumental plural sense: “for/of the hungry”)
  • व्यातकरणं — व्याकरण (grammar / linguistic rules)
  • न भुज्यते — न खाया/उपयोगी होता है (‘is not eaten’ / ‘is not enjoyed/used’)
  • पिपासितैः — प्यासे लोगों द्वारा / पिपासितः = thirsty (instr./loc. pl.)
  • काव्यरसो — काव्य-रस (poetic relish/essence of poetry)
  • न पीयते — न पिया जाता / न रुचता (is not drunk/enjoyed)
  • न विद्यया — विद्या से नहीं (not by/with knowledge)
  • केनचित् उद्धृतं — किसी के द्वारा उठाया गया / किसीसे स्थापित किया गया
  • कुलम् — कुल, वंश, परिवार
  • हिरण्यमेव — केवल हिरण्यम् (धन मात्र) — ‘only gold / money’
  • आर्जय — आर्जय = अर्जन करना (to earn/obtain) — here as verbal root form; contextually “(यदि) केवल धन अर्जित करो” or “earn wealth”
  • निष्फलाः कलाः — निष्फल (फलहीन) कलाएँ (arts become fruitless)

नोट: श्लोक रचना में कुछ लघु-समास/छन्द-सम्वन्धित रूप हैं; ऊपर अर्थ सुस्पष्ट रखने का प्रयास किया गया है।


5. व्याकरणात्मक और भाषागत विश्लेषण (मुख्य बिंदु)

  1. कृत्य व क्रिया-वाच्य: प्रथम दो पंक्तियाँ निरस्त-अनुभवात्मक (observational) सूचित करती हैं — भूख/प्यास जैसी प्राथमिक आवश्यकताओं के सामने उच्च कला/शिक्षा का अर्थ ह्रास पाता है।
  2. अन्वय-विच्छेद:
    • बुभुक्षितैः व्याकरणं न भुज्यते → “भूखे लोगों के लिए व्याकरण (ज्ञान) उपयोग में नहीं आता।”
    • पिपासितैः काव्यरसो न पीयते → “प्यासे लोगों के लिए काव्यरस का आनंद नहीं लिया जा सकता।”
  3. तीसरी पंक्ति: न विद्यया केनचितुद्धृतं कुलम् — यहाँ विद्यया ablative/instrumental से “विद्या द्वारा/से” या “विद्या से” तथा उद्धृतं = उठाया हुआ/स्थापित किया हुआ; अर्थ: “जो कुल विद्या से केवल प्रतिष्ठित है, वह ...”
  4. चौथी पंक्ति: हिरण्यमेव आरजय निष्फलाः कलाः — संभवतः अर्थ: “(परन्तु) केवल धन अर्जित करो, न कि निष्फल कलाएँ”; या पढ़ा जा सकता है कि “यदि केवल धन ही कमाओ तो कलाएँ निष्फल हो जाएँगी।” श्लोक का क्लिष्ट स्थान है — पर सर्वसाधारण व्याख्या यह है कि कला/विद्या तब ही फलदायी जब वे परिवार/जीवन की भौतिक जरूरतों से मेल खाएँ, अन्यथा वे निष्फल प्रतीत होते हैं।

संक्षेप: वाक्य-रचना में विरोधाभास स्थितियों का उपयोग है — प्राथमिकता क्रम (basic needs → आर्थिक सुरक्षा → कला/ज्ञान) दर्शाने के लिए।


6. भावार्थ / अर्थ की गहनता (खुला विवेचन)

  1. मौलिक तथ्य — मानव-जीव सामान्यतः प्राथमिक जरूरतों (भोजन, जल, सुरक्षा) के पूर्ण होने पर ही मानसिक रूप से सूक्ष्म सुख (काव्य-रुचि, वैचारिक चिंतन, शास्त्र-ज्ञान) ग्रहण करने के लिए सक्ष्म होते हैं।
  2. सामाजिक अर्थ — एक समाज या परिवार जिसमें आर्थिक सुरक्षा न हो, वहाँ विलक्षण कलाएँ या शास्त्रीय ज्ञान तत्काल उपयोगी नहीं लगते; वे अस्थिर/निष्फल बन सकते हैं।
  3. नैतिक-चुनौती — श्लोक कहीं-कहीं व्यावहारिकता की वकालत सा करता दिखता है — “धन कमाओ ताकि कुल संभला रहे” — पर साथ ही यह प्रश्न खड़ा करता है: क्या कला/ज्ञान को आर्थिकता के संदर्भ में मात्र उपयोगी-न-उपयोगी पर तौल दिया जाए?
  4. न्यूनतम-आवश्यकता का सिद्धांत — श्लोक हमें याद दिलाता है कि मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना सर्वोच्च शिक्षा/कला का आनंद या उसका फल दोनों सीमित रह जाते हैं।

7. आधुनिक संदर्भ (Contemporary relevance)

  1. आधुनिक कलाकार/शोधकर्ता की परिस्थितियाँ
    • बहुत से कलाकार, कवि, शोधकर्ता आर्थिक असुरक्षा के कारण अपनी कला/शोध नहीं कर पाते — उनका काव्य-रस/शोध “पीया” नहीं जा सकता क्योंकि रोज़ी-रोटी की चिंता पहले आती है।
  2. गिग इकॉनमी और क्रिएटिव्स
    • आज कलाकारों/रचनाकारों के लिए मॉनेटाइज़ेशन (कमाई के रास्ते) ढूँढना अनिवार्य है — बिना स्थिर आय के कला सीमित हो जाती है।
  3. नीति-संदर्भ
    • welfare policies, stipend, grants, artist fellowships, guaranteed minimum income — ये वही आधुनिक उपाय हैं जो श्लोक की समस्या का समाधान सुझाते हैं: जब प्राथमिक आवश्यकताएँ पूरी हों, तभी कला और ज्ञान विकास कर सकते हैं।
  4. शिक्षा बनाम रोजगार
    • श्लोक का दूसरा विचार यह भी है कि सिर्फ़ ज्ञान (बिना रोजगार के) किसी परिवार का भरण-पोषण नहीं करता — इसलिए कौशल-आधारित शिक्षा, उद्यमिता, और आर्थिक-स्वावलम्बन पर ज़ोर होना आज भी आवश्यक है।
  5. संतुलन का आग्रह
    • निवेश करें: कला/ज्ञान में साथ-साथ आजीविका के व्यावहारिक साधनों पर भी ध्यान दें — यही समकालीन नीतिगत संदेश बनता है।

8. संवादात्मक नीति-कथा (छोटी कथा — शिक्षक, कवि, व्यापारी)

पात्र: वृद्ध शिक्षक, युवा कवि, व्यापारी मित्र, भूखा मजदूर

दृश्य: गाँव की चौपाल

  • कवि (उत्तेजित): “हमारी कविता और भाषा ही असली समृद्धि है — इससे जीवन महान बनता है।”
  • मजदूर (थोड़ा उदास): “आपकी कविता से मन को सुगंध मिलती है पर मेरी बेटी की भूख नहीं मिटती।”
  • शिक्षक (समझाते हुए): “बेटा, जब पेट नहीं भरा तो कविता का रस मन में नहीं उतरता। हमें पहले मूलभूत ज़रूरतें पूरी करनी होंगी; जब पेट सूखा नहीं रहेगा तब कविता का स्वाद लिया जा सकेगा।”
  • व्यापारी (व्यवहारिक): “हमें कला और ज्ञान दोनों-सोचना चाहिए: कला को बचाने के लिए उसे जीविका देने वाले रास्ते बनाओ—शिक्षा के साथ कौशल और स्वरोजगार भी सिखाओ।”

पाठ: कला और ज्ञान का संरक्षण तभी सार्थक होता है जब लोग आर्थिक रूप से सुरक्षित हों; दोनों को साथ-साथ समर्थन चाहिए।


9. नीति-सुझाव (व्यवहारिक/समाज-स्तरीय समाधान)

  1. आय-सुरक्षा और कला-समर्थन: कलाकारों, शिक्षाविदों को अनुदान, स्टाइपेंड, और marketplace पहुँच दें।
  2. कौशल+ज्ञान का मिश्रण: शिक्षा प्रणाली में कला/ज्ञान के साथ उद्यमिता और livelihood-skills जोड़ें।
  3. स्थानीय अर्थव्यवस्था को मज़बूत करें: ताकि कलाकार व विद्वान अपने हुनर से जीविका कमा सकें (cultural tourism, workshops, online courses)।
  4. सामाजिक दृष्टि: समाज को समझाना कि कला केवल विलासिता नहीं — पर जीविका और पहचान का भी स्रोत हो सकती है।

10. निष्कर्ष (संक्षेप में)

  • श्लोक एक यथार्थवादी दृष्टि प्रस्तुत करता है: मानव की प्राथमिक आवश्यकताएँ पूरी हों तब ही उच्च कला और ज्ञान का भोग/फल सम्भव है।
  • पर इसका अर्थ यह नहीं कि ज्ञान/काव्य/कला असाध्य या अनावश्यक हैं — बल्कि यह कि हमें कला और ज्ञान के साथ-साथ उनकी आर्थिक व्यवहार्यता पर भी ध्यान देना चाहिए।
  • उत्तरदायित्व दोहरा है: व्यक्तिगत स्तर पर जीविका के साधन विकसित करना और सामाजिक/राजनीतिक स्तर पर कलाकारों व शिक्षाविदों के लिए आर्थिक सुरक्षा मुहैया कराना। तभी कला और विद्या फलदायी और स्थायी रहेंगी।

व्याकरण और काव्य संस्कृत श्लोक, 

बुभुक्षितैर्व्याकरणं न भुज्यते अर्थ

Sanskrit Niti Shloka with explanation

ज्ञान का महत्व नीति श्लोक

Sanskrit Shloka on hunger and knowledge

संस्कृत से हिंदी अनुवाद

नीति श्लोक अर्थ सहित

Sanskrit moral shloka explanation

भूख और ज्ञान संबंध

शिक्षा और व्यवहारिक जीवन पर श्लोक

बुभुक्षितैर्व्याकरणं न भुज्यते श्लोक का आधुनिक अर्थ

संस्कृत नीति श्लोक का विस्तृत विश्लेषण

भूखे व्यक्ति के लिए ज्ञान क्यों व्यर्थ है

Sanskrit shloka for practical life meaning

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