लोकप्रिय सत्य से उच्च सत्य की ओर बढ़ो !
विवेकानंद ने कहा था, 'तुम कह सकते हो कि मूर्ति ही ईश्वर है, लेकिन ईश्वर को मूर्ति समझना भूल है।' हिंदू धर्म के पाखंड का सबसे बड़ा रूप यह है कि धीरे -धीरे मूर्ति ही प्रधान हो गई, ईश्वर की धारणा गायब हो गई। लोगों ने धर्म के द्वार को ही पूरा धर्म समझ लिया।
उन्होंने कहा था की गीता बार - बार कहो तो इससे ध्वनि निकलेगी, त्यागी...त्यागी... त्यागी ! भारत में इतनी हिंसा इसलिए है कि त्याग की भावना मिटती गई है। आज धर्म - धर्म कहने वाले चरम भोगी हैं।
विवेकानंद का अर्थ है -- विवेक का आनंद। विवेक के इन रूपों को विकसित करना जरूरी है -- आत्म विवेक, धर्म विवेक, समाज विवेक, देश विवेक और विश्वविवेक ! 21वीं सदी में विवेक का ह्रास अपने चरम पर है और लोग विवेकानंद के चावल को छोड़कर छिलका खा रहे हैं।
विवेकानंद ने कहा था, 'वे ही सच्चे हरि भक्त हैं जो हरि को सब जीवों में और सब पदार्थों में देखता है। चाहे कोई काबा की ओर मुंह करके घुटने टेक करके उपासना करे या गिरजाघर में अथवा बौद्ध मंदिर में करे, वह जाने -अनजाने उसी परमात्मा की उपासना कर रहा है।... संसार में विरोधी भाव सदा विद्यमान रहेंगे, परंतु इसी लिए एक मनुष्य दूसरे को घृणा की दृष्टि से देखे अथवा लड़े, यह आवश्यक नहीं है।' ( भारत का संसार को संदेश)।
भगिनी निवेदिता ने विवेकानंद के बारे में लिखा है, ' तड़के भोर में, अंधेरा रहते वे जग जाते थे और 'जागो जागो सकले, अमृतेर अधिकारी ' गाते गाते सबको उठा देते थे।...फिर स्वामी जी कार्लाइल का फ्रांसीसी क्रांति से संबंधित कोई अंश पढ़ते और सभी आगे पीछे झूमते हुए दोहराते -- गणतंत्र की जय हो, गणतंत्र की जय हो। ' इससे बोध हो सकता है कि विवेकानंद की नजर में धर्म का क्या अर्थ है। वे ऐसा धर्म चाहते थे जो गणतंत्र को समाप्त न करे, उसे मजबूत करे। वे कहते थे, 'पुरोहित भारतवर्ष के लिए अभिशाप स्वरूप हैं।'
विवेकानंद धार्मिक पाखंडियों को 'चुनाकली की हुई कब्र ' कहते थे। उन्होंने भारत की धार्मिक व्यवस्था को ' पांच हजार साल पुरानी ममी ' कहा था। वे हिंदू धर्म के ' भीतर से आलोचक ' थे और उत्थान के लिए आलोचक थे। पर आज के हालात देखकर लगता है कि उनके प्रयत्न विफल हुए।
कुछ घटनाएं
1) एक बार विवेकानंद कलकत्ता में किसी व्यक्ति के भूख से मरने पर चीख पड़े --- 'मेरा देश, ,मेरा देश '! ऐसे पागलपन के बिना कोई व्यक्ति महान काम नहीं कर सकता।
2) वृंदावन के मार्ग में एक बार उन्होंने किसी को तंबाकू पीते देखा तो उन्होंने चिलम मांगी। व्यक्ति ने कहा, 'मैं भंगी हूं '। विवेकानंद आगे बढ़ गए। पर थोड़ी दूर जाते ही उनके मन ने धिक्कारा, ' तूने जाति, कुल, मान सभी को त्यागकर संन्यास लिया है, फिर भंगी से घृणा क्यों, इतना जाति अभिमान किसलिए? ' वे उल्टे पांव लौट आए। आज के मध्यवर्ग में यह आत्मसंघर्ष नहीं है।
3) विवेकानंद की अंतिम घड़ी आ रही थी। मृत्यु के दो दिन पहले उन्होंने अपने एक शिष्य को उपवास के बाद खुद जिद करके अपने हाथ से भोजन परोसा। उसके खा लेने के बाद खुद उसके हाथ पर जल ढालकर तौलिया से उसका हाथ पोंछा। शिष्य ने प्रतिवाद में कहा -- यह सब तो आपके लिए मुझे करना चाहिए! विवेकानंद ने कहा, ' ईसा ने अपने शिष्यों के चरण धोए थे।'
4) विवेकानंद ने लिखा था, ' कई बार देखा जाता है कि एक आदमी दिन-रात अपने शिष्यों के साथ रहकर उनको नष्ट कर डालता है।' इसके कुछ दिनों बाद वे दुनिया से चले गए! शिष्यों को हमेशा खुला आकाश देना चाहिए!
'भारतीय नवजागरण : एक असमाप्त सफर ' पुस्तक से। वाणी प्रकाशन।
🙏🙏
जवाब देंहटाएं