काकः पद्मवने रतिं न कुरुते हंसो न कूपोदके
मूर्खः पण्डितसंगमे न रमते दासो न सिंहासने ।
कुस्त्री सज्जनसंगमे न रमते नीचं जनं सेवते
या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते ॥
कौआ पद्मवन पर प्रेम नहीं रखता, हंस कूए के पानी में, और मूर्ख पंडित के समागम में आनंद पाता नहीं है । वैसे हि सेवक सिंहासन में, और बूरी स्त्री सज्जन समागम में आनंद पाते नहीं, और नीच को भजते हैं । जो जिसका स्वभाव हो, वह उससे छोडा नहीं जाता ।
इन्दुं निन्दति तस्करो गृहपतिं जारो सुशीलं खलः
साध्वीमप्यसती कुलीनमकुलो जह्यात् जरन्तं युवा ।
विद्यावन्तमनक्षरो धनपतिं नीचश्च रूपोज्ज्वलम्
वैरूप्येण हतः प्रबुद्धमबुधो कृष्टं निकृष्टो जनः ॥
चोर चंद्र की निंदा करता है, व्याभिचारी गृहपति की, दृष्ट सुशील की, असती स्त्री साध्वी की, और अकुलीन कुलीन की निंदा करते हैं । युवान वृद्ध का त्याग करता है; अनपढ विद्वान की, नीच धनवान की, कुरुप सुरुप की, अज्ञानी ज्ञानी की, और नीच मनुष्य अच्छे मनुष्य की निंदा करते हैं ।
काकस्य गात्रं यदि काञ्चनस्य
माणिक्यरत्नं यदि चञ्चुदेशे ।
एकैकपक्षे ग्रथितं मणीनाम्
तथापि काको न तु राजहंसः ॥
कौए के अवयव सोने के हो, उनकी चौंच में माणेक हो, और हर पँख मणि से जडी हुई हो, फिर भी कौआ राजहंस नहीं बन सकता ।
नैर्मल्यं वपुषः तवास्ति वसतिः पद्माकरे जायते
मन्दं याहि मनोरमां वद गिरं मौनं च सम्पादय ।
धन्यस्त्वं बक राजहंसपदवीं प्राप्नोषि किं तै र्गुणैः
नीरक्षीरविभागकर्मनिपुणा शक्तिः कथं लभ्यते ॥
तेरा शरीर निर्मल है, तू कमल के समूह में रहता है, तू मंद गति से चलता है, मधुर वाणी बोलता है, और मौन रखता है । हे बगुले ! तू धन्य है । तूने राजहंस की पदवी तो प्राप्त कर ली है, पर क्या केवल इन गुणों से तू पानी और दूध को भिन्न करने की निपुण शक्ति प्राप्त कर सकता है ?
परोपदेशकुशलाः दृश्यन्ते बहवो जनाः ।
स्वभावमतिवर्तन्तः सहस्रेषु अपि दुर्लभाः ॥
दूसरों को उपदेश करने में अनेक लोग कुशल होते हैं, पर उसके मुताबिक वर्तन करनेवाले हज़ारों में एखाद भी दुर्लभ होता है ।
शीलं रक्षतु मेघावी प्राप्तुमिच्छुः सुखत्रयम् ।
प्रशंसां वित्तलाभं च प्रेत्य स्वर्गे च मोदनम् ॥
प्रशंसा, वित्तलाभ और स्वर्ग का आनंद – ये तीन सुख पाने की इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान इन्सान ने शील का रक्षण करना चाहिए ।
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