सुन्दरकांड में श्रीहनुमान जी ने लंका का दहन किया परन्तु श्रीराम जी ने तो ऐसा कोई आदेश उन्हें नहीं दिया था। फिर भी श्रीहनुमान जी ने लंका जला डाली। प्रभु ने तो श्रीहनुमान जी को सीताजी के सम्मुख अपने बल और विरह का वर्णन सुनाने के लिए ही भेजा था।
श्रीहनुमान जी हर कार्य को हृदय से विचारकर के किया करते थे जैसे श्रीतुलसीदास जी ने बार बार लिखा कि-
इहाँ पवनसुत हृदयँ बिचारा।
पुर रखवारे देखि बहु कपि कीन्ह बिचार।
तरु पल्लव महुं रहा लुकाई।
करइ बिचार करों का भाई॥
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्ह मुद्रिका डारि जब॥
परन्तु लंका दहन करते समय श्रीहनुमान जी ने तनिक भी विचार नहीं किया। जब श्रीहनुमान जी लंका दहन करके प्रभु श्रीराम जी के पास लौटकर आये तो प्रभु ने पूछा कि आपने लंका जलाते समय विचार क्यों नहीं किया, तो श्रीहनुमान जी बोले कि प्रभु लंका जलाई गयी है या जलवाई गयी है और अगर लंका जलवाई गयी है तो विचार भी जलवाने वाले ने किया होगा। और सत्य यह है कि मेरे पास लंका जलाने की योजना थी ही नहीं। परन्तु आपने मुझसे यह लंका जलवाई।
रावण ने अनजाने में ही त्रिजटा जो जन्म से राक्षसी थी परन्तु तुरीयावस्था को प्राप्त थी जो कि हम माता सीता को कहते हैं, उसे माता सीताजी की सेवा में नियुक्त किया था। तुरीयावस्था की परिभाषा करते हुए कहा जाता है जीवन में एक इच्छा पूर्ण होने के पश्चात् जब तक दूसरी इच्छा का उदय न हो, उसके बीच वाला काल ही तुरीय (समाधि) काल होता है। अर्थात् त्रिजटा एक पवित्र और उच्च अवस्था को प्राप्त कर चुकी थी।
जब सारी राक्षसियाँ श्रीसीता जी को डराने लगी, तो त्रिजटा ने कहा मैंने एक स्वप्न देखा है कि एक वानर आया हुआ है और वह लंका को जलाएगा। त्रिजटा की यह बात सुनकर श्रीहनुमान जी बड़े आश्चर्यचकित होकर सोचने लगे कि मैं तो बहुत छिपकर आया था पर धन्य है यह त्रिजटा जिसने सपने में भी देख लिया।
परन्तु लंका दहन की बात सुनकर बड़ी दुविधा में पड़ गए। प्रभु ने तो इस पर कुछ नहीं कहा, और त्रिजटा के स्वप्न को अन्यथा भी नहीं ले सकते क्योंकि यह सत्य ही कह रही है कि एक वानर आया है। और फिर इस समस्या का समाधान श्रीहनुमान जी ने बड़े सुंदर रूप में किया।
जब मेघनाद ने श्रीहनुमान जी पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो वह जानबूझकर गिर पड़े और मेघनाद के नागपाश से बाँधने पर वे बंध भी गए। श्रीहनुमान जी ने सोचा कि मुझे लंका दहन का आदेश नहीं दिया गया था परन्तु फिर भी अगर प्रभु इस कार्य को करवाना चाहते हैं तो मैं अपने सारे कर्म छोड़ देता हूँ। और बंधन में बन्ध जाता हूँ। जिन कार्यो का आदेश आपने मुझे नहीं दिया था परन्तु उन्हें करने का स्पष्ट रूप से मुझे संकेत मिल रहे हैं, इसीलिए मैंने बंधन में पड़ना स्वीकार किया।
रावण की सभा में जब रावण के आदेशानुसार राक्षस तलवार लेकर मारने लगे तो श्रीहनुमान जी ने अपने को बचाने का किंचितमात्र भी उपाय नहीं किया और सोचा- प्रभु मै तो बंधा हुआ हूँ अगर आपको बचाना है तो आप ही बचाए। जब श्रीहनुमान जी यह सोच ही रहे थे, ठीक उसी समय विभीषण जी आ गए और उन्होंने कह दिया कि दूत को मारना नीति के विरुद्ध है। फिर रावण ने पुन: आदेश दिया कि इसकी पूंछ में कपड़ा लपेट कर घी तेल डालकर आग लगा दो, तब श्रीहनुमान जी ने मन ही मन प्रभु को हाथ जोड़ के कहा- प्रभु! अब तो निर्णय हो गया। मेरा भ्रम दूर हो गया और मैं समझ गया कि आपने ही त्रिजटा के हाथों सन्देश भेजा था। नहीं तो भला लंका को जलाने के लिए मैं कहाँ से घी-तेल-कपड़ा लाता, और कहाँ से आग लाता। आपने तो अपनी इस योजना को पूरा करने का सारा प्रबंध रावण से ही करवा दिया तो फिर मैं क्या विचार करता।
वस्तुत: जीव तो एक यंत्र के रूप में है, आप जिस तरह उससे काम लेना चाहेंगे, वह तो वही करेगा। इसीलिए मैं कहता हूँ कि, प्रभु! लंका आपने ही जलवाई।
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