प्राचीन काल में रथवीति दार्म्य नामक एक प्रसिद्ध राजर्षि हुए। ऐसा सुना जाता है। कि एक बार वह यज्ञ की इच्छा से अत्रि के पास गये और उनको प्रसन्न किया।
तत्पश्चात् उन्हे अपना तथा अपने कार्य का प्रयोजन बताकर जब जोड़कर खड़े हुए तब उसनें अपनें ऋत्विज के रूप में अत्रि के पुत्र अर्चनानस को चुना।
अत्रि अपने पुत्र को साथ लेकर यज्ञ की सिद्धि के लिए राजा के पास गये। अर्चनानस के पुत्र का नाम श्यावाश्व था, जिसे उसके पिता ने प्रसन्नतापूर्वक अड्गों और उपाड.गों सहित वेदों की शिक्षा प्रदान की थी।
अर्चनानस् नें अपने पुत्र के साथ राजा के यज्ञ को पूर्ण किया। जिस समय यह यज्ञ चल रहा था उसी बीच उसने राजा की यशस्विनी पुत्री को देखा। उस
़यशस्विनी पुत्री को देखने के बाद अर्चनानस् के मन में यह विचार आया कि वह राजपुत्री को देखने के बाद अर्चनानस् के मन में यह विचार आया कि वह राजपुत्री उसकी पुत्रवधू बन सकती है।
पिता अर्चनानस् के विचार को जानने के पश्चात् श्यावाश्व का मन भी उस पर आसक्त हो गया। एतदर्थ उसने यजमान से कहा- "हे राजन! तुम मेरे साथ सम्बद्ध हो जाओ। राजा ने अपनी पुत्री श्यावाश्व को देने की इच्छा से महारानी से कहा- तुम्हारा क्या विचार हैं मैं कन्या को श्यावाश्व को देना चाहता हूँ अर्थात् अपनी पुत्री का विवाह श्यावाश्व के साथ करना चाहता हूँ, क्योंकि अत्रि-पुत्र हम लोगों के लिए हीन जामाता नही होगा।"
राजा के ऐसा कहने पर रानी ने कहा- चूँकि मै राजर्षियों के कुल में उत्पन्न हुई थी, अतः मेरा जामाता भी ऋषि होना चाहिए। इस युवक ने मंत्रों का दर्शन नहीं किया है, अतएव जामाता नही बन सकता। अतः कन्या किसी ऋषि को ही दी जाय, तत्पश्चात ही वह वेद माता होगी, क्योंकि ऋषियों ने मंत्रद्रष्टा ऋषि को वेद का पिता माना है।
राजा ने अपनी पत्नी के साथ विचार-विमर्श करने के पश्चात श्यावाश्व को यह कहते हुए अस्वीकृत कर दिया कि "जो ऋषि नही है, वह हमारा जामाता होने के योग्य नहीं है।"
यद्यपि राजा द्वारा अस्वीकृत कर दिये जाने पर श्यावाश्व यज्ञ की समाप्ति के पश्चात् अपने पिता के साथ वापस लौट आया किन्तु उसका हृदय कन्या के पास ही लगा रहा।
यज्ञ से लौटने के पश्चात् शचीपति और तुरन्त दोनों राजा पुरुमीरुह से मिले । यह दोनों राजा तुरन्त तथा पुरुमीरुह ऋषि विददश्च के पुत्र थे। इन दोनों राजाओं ने भी स्वयं दोनों ऋषियों का पूजन किया।
तत्पश्चात् राजा तरन्त ने ऋषि पुत्र का दर्शन अपनी महारानी को कराया । तरन्त की अनुमति से उस महारानी शशीमुखी ने प्रचुर धन भेड बकरियाँ, गायें तथा अश्व श्यावाश्व को प्रदान किए। इस प्रकार याजकों द्वारा सम्मानित होकर पिता और पुत्र अपने अत्रि आश्रम चले गये। उन्होंने प्रदीप्त तेज वाले महर्षि अत्रि का अभिवादन किया, किन्तु श्यावाश्व के मन में यह विचार आया कि चूँकि हमने किसी मंत्र का दर्शन नहीं किया है, अतः मैं सर्वाङ्ग सुन्दरी कन्या को नहीं प्राप्त कर सका। अतः हमें मंत्र द्रष्टा हो जाना चाहिए।
जब उसने मन में इस प्रकार चिन्तन किया तब उसके सम्मुख मरुद्गण प्रकट हुए। उसने अपने समक्ष अपने ही समान रूप वाले रूक्मवक्ष मरुतों को देखा।
पुरुषरूप तथा समानवय देवों को देखकर विस्मित श्यावाश्व ने मरूतों से पूछा- "केष्ठ" तब तक उसे ज्ञात हो गया कि यह रूद्र के पुत्र दिव्य मरुद्गण हैं।
उन्हें देखकर उसने यज्ञं वहन्ते' ऋचा द्वारा उनकी स्तुति की। ऋषि ने यह विचार किया कि मरुतों को देखकर उनकी स्तुति किये बिना ही यह पूछना कि आप कौन हैं ? उसने उनकी मर्यादा का उल्लंघन किया है। स्तुति किये जाने पर और उन स्तुतियों से प्रसन्न होकर पृश्नि के पुत्र मरुद्गण जब चलने लगे तब उन्होंने अपने वक्ष से स्वर्णाभूषण उतार कर ऋषि को दे दिया। जब मरुद्गण वहाँ से चले गये तब वह महायशस्वी श्यावाश्व विचारों में रथीवीति की
पुत्री के पास पहुँच गये। ऋषि हुए श्यावाश्व ने तत्काल रथवीति को अपने सम्बन्ध में बताने की इच्छा से एतं में स्तोत्रम्' से प्रारम्भ दो ऋचाओं द्वारा रात्रि को इस कार्य के लिए नियुक्त किया और स्थवीति को न देखने वाली रात्रि को आर्ष नेत्रों से देखकर उन्होंने एष क्षेति' द्वारा कहा कि वह हिमवान् के रोचक पृष्ठ पर रहते हैं। ऋषि की आज्ञा को मानकर रात्रि द्वारा प्रेरित होकर दर्भ के पुत्र रथवीति कन्या को साथ लेकर अर्चमानस् के पास गये और उनका चरण पकडने के बाद करवद्ध झुककर यह कहते हुए अपना नाम बताया-
मैं दर्म का पुत्र रथवीति हूँ- आप मेरे साथ संबंध करने की इच्छा से गये थे, जिसे मैने अस्वीकृत कर दिया था उसके लिए आप मुझे क्षमा करें। हे भगवन मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप मुझपर कोधित न हों। आप ऋषि के पुत्र है स्वयं भी ऋषि हैं और हे भगवन आप ऋषि के पिता भी हैं।
इतना कहने के पश्चात् रथवीति ने अर्चनानस् से कहा- महाराज आइए आप कन्या को पुत्र-वधू के रूप में स्वीकार कीजिए। राजा ने ऐसा कहने के बाद स्वयं ही पाद्य अर्ध्य और मधुपर्क द्वारा उनका पूजन किया तथा उन्हे एक सौ शुक्ल घोडे प्रदान करके घर जाने की अनुमति प्रदान की। तत्पश्चात् ऋषि अर्चनानस् नें भी 'सनन्' से आरम्भ छः ऋचाओं द्वारा शशीयसी और तरन्त तथा राजा पुरूमीरूह की स्तुति करने के पश्चात् अपने घर चले गये।
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