वरुण और वृशजान की कथा

Sooraj Krishna Shastri
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  एक बार इक्ष्वाकुवंशीय राजा विवृष्ण के पुत्र राजा तयरूण अपने रथ पर सवार होकर जा रहे थे। उस समय जन के पुत्र वृषजान  पुरोहित ने अश्वों की रश्मियों लगामों को अपने हाथमें ले लिया। उसी समय उसके रथ से एक ब्राह्मण कुमार का सिर कट जाने के पश्चात् राजा नें अपनें पुरोहित से कहा कि "तुम हत्यारे हो ।"

  राजा त्रयरूण के द्वारा यह कहे जाने पर कि तुम हत्यारे हो पुरोहित वृषजान ने अर्थवान मंत्रो का दर्शन किया और बालक को पुनः जीवित कर दिया। तत्पश्चात वह कोध में आकर राजा त्रयरूणका परित्याग करके अन्य देश में चला गया।

  वृषजान के चले जाने पर राजा की अग्नि तापरहित हो गयी। उसमें डाली गयी हवि ताप के अभाव में पकती ही नहीं थी। बार-बार ऐसा होने पर राजा

  अत्यन्त दुःखी हुआ। तत्पश्चात् अपनी भूल को समझकर राजा व्रयरुण वृषजान केपास गया और उन्हें प्रसन्न करके अपने साथ ले आया। पुनः वृशजान को अपना पुरोहित बनाया, पुनः पुरोहित बना लिए जाने के पश्चात् वृशजान ने प्रसन्न होकर राजा के घर में अग्नि के ताप को ढूढ़ा । वहाँ उसने राजा की पत्नी को पिशाची के रूप में पाया। तत्पश्चात् बिस्तर से युक्त आसन्दी पर राजा प्रयरूण के साथ बैठकर वृशजान ने पिशाची को "कम् एवं त्वम्"" मंत्र द्वारा सम्बोधित किया।

  उस अग्नि के ताप को एक कुमार के रूप में बताते हुए वृषजान ने पिशाची को संबोधित किया । जब उन्होंने 'विज्यनेतिषा" का उच्चारण किया तब पास आते हुए अन्धकार को दूर भगाते हुए और प्रकाश को प्रकाशित करते हुए अग्नि सहसा प्रकट होकर पिशाची जहाँ बैठी थी, उसे वहीं भस्म कर दिया।

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