काम क्रोध, मद, लोभ सब, नाथ नरक के पंथ, सब परिहरि रघुबीरहि, भजहुँ भजहिं जेहि संत

Sooraj Krishna Shastri
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Ramayan


   विभीषणजी रावण को पाप के रास्ते पर आगे बढने से रोकने के लिए समझाते हैं कि काम, क्रोध, अहंकार, लोभ आदि नरक के रास्ते पर ले जाने वाले हैं।

  यहाँ काम क्रोध मद लोभ आदि कारकों से विभीषण हमेशा के लिए रावण को मुक्त होने के लिए नहीं कहता है। क्योंकि वह जानता है कि सफल राजनीतिक जीवन के लिये काम क्रोध मद लोभ इत्यादि स्वाभाविक तत्वों का होना आवश्यक है। काम संतानोत्पत्ति, क्रोध दुश्मनों के दमन, मद याने स्वाभिमान स्वत्व की वृद्धि, लोभ व्यवसाय वृद्धि में महत्त्व पूर्ण भूमिका अदा करता है। इसलिए वह इन तत्वों को नरक नहीं कहता बल्कि नरक के पंथ कहता है। 

षट बिकार जित अनघ अकामा ।

अचल अकिंचन सुचि सुखधामा

  छः तरह के विकार होते हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार एवं मत्सर। आत्मा के सात गुण हैं - पवित्रता, शांति, शक्ति, प्यार, खुशी, ज्ञान और गंभीरता। एक तरफ पांच विकार हैं तो दूसरी तरफ सात गुण हैं। जितना हम इन पांच विकारों को इस्तेमाल कर रहे हैं, उतना ही इस सृष्टि में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के तरफ बढ़ते जा रहे हैं।

अहंकारी-स्वार्थी मनुष्य  अपने लिए ही इस सारी दुनिया की रचना हुई मानता है और उसका संसार में है उस पर अटल ही अधिकार जमाता है।

जैसे लंका पति रावण।

 जीवों के दुनिया का अनुमान लगाने वाले गणितज्ञों का अनुमान है कि प्राणियों में 4/5 भाग कीड़े−मकोड़ों का है और शेष 1/5 में पशु पक्षियों और ठंडे जलचरों से लेकर मनुष्यों तक का है।

 शेष जीवधारियों की आवश्यकता पूर्ति के लिए भी यह दुनिया बनी है इस पर अहंकारी और स्वार्थी मनुष्य कभी सोचता तक नहीं।

लोभ मोह में मात्र थोड़ा सा अंतर है 

लोभ एक आवश्यकता है, जिसके बिना पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह कठिन है। मोह मानव को पितृत्व व मातृत्व के साथ-साथ अन्य रिश्तों के दायित्व को निभाने की प्रेरणा देता है।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

कामः क्रोधस्तथा लोभास्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥

 इस नरक के तीन द्वार हैं - काम, क्रोध और लोभ । प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि इन्हें त्याग दे, क्योंकि इनसे आत्मा का पतन होता है ।

 यहाँ पर आसुरी जीवन आरम्भ होने का वर्णन हुआ है । मनुष्य अपने काम को तुष्ट करना चाहता है, किन्तु जब उसे पूरा नहीं कर पाता तो क्रोध तथा लोभ उत्पन्न होता है । जो बुद्धिमान मनुष्य आसुरी योनि में नहीं गिरना चाहता, उसे चाहिए कि वह इन तीनों शत्रुओं का परित्याग कर दे, क्योंकि ये आत्मा का हनन इस हद तक कर देते हैं कि इस भवबन्धन से मुक्ति की सम्भावना नहीं रह जाती ।

अथ केन संयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुष:।

अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिवनाम:॥

 हम सभी के पास एक विवेक होता है जो पाप करते समय हमें पश्चाताप का अनुभव कराता है। विवेक इस तथ्य पर आधारित है कि ईश्वर सद्गुणों का निवास है, और उसके अंशों के रूप में, हम सभी में सद्गुणों और अच्छाई के प्रति एक सहज आकर्षण है। अच्छाई जो आत्मा का स्वभाव है, अंतरात्मा की आवाज को जन्म देती है। इस प्रकार, हम यह बहाना नहीं बना सकते कि हम नहीं जानते थे कि चोरी, ठगी, अपमान, जबरन वसूली, हत्या, उत्पीड़न और भ्रष्टाचार पापपूर्ण गतिविधियाँ हैं। हम सहज रूप से जानते हैं कि ये कार्य पाप हैं, और फिर भी हम ऐसे कार्य करते हैं, जैसे कि कोई मजबूत शक्ति उन्हें करने के लिए प्रेरित करती है।

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