"उर्वशी की कमनीय काया से उद्भूत पद्य - किंजल्क सुरभि में पुरुरवा की प्राण वायु लगी मिलने । पुरुरवा किंचित बढा आगे। फिर हटा पीछे। युवती गन्ध में मादकता जगने लगी ।
"पुरूरूवा हो गया प्रफुल्लित । उर्वशी के अंगराग से उठती सुरभि में भूलने लगा अपनी चेतना । काम - प्रत्यंचा की हुई ध्वनि । कुसुम वाण आहत् पुरूरूवा के मुख पर रक्तिम प्रभा बिखर गई।
"उर्वशी के आँखे पुरूरूवा को तोलने लगीं। पुरूरूवा ने संक्षिप्त, किन्तु स्पष्ट बलवती वाणी में कहा -
"अप्सरे । यदि तुम्हारा अनुराग मूल्य चाहता है तो मैं दूँगा।"
"भूपते । स्त्री के साथ उपचार की एक प्रक्रिया होती है।"
"तन्वी । उपचार का मैं स्वागत करूँगा।" पुरुरवा ने स्थिर स्वर में कहा ।
"यशस्विन् । प्रतिज्ञा करोगें। उर्वशी के स्वर में प्रगल्भता थी ।
"गन्धर्विणी । मैं ऐल हूँ । मैं क्षत्रिय हूँ।" पुरुरवा ने गर्वपूर्वक कहा।
"ऐल ।" उर्वशी के स्वर में व्यंग्य था- जानती हूँ।" " मानव । आप का कुल, गोत्र और वंश
पुरुरवा किंचित हुआ लज्जित ।
"नृपवर!" उर्वशी ने कहा, " यदि आप तीन संविद् में बँध सकें तो?
"बोलों उर्वशी ! संविद् में बँधता हूँ।" पुरुरवा ने दृढ स्वर से कहा।
"पृथ्वीपते ! पहली शर्त यह है आप दिन में तीन बार से अधिक मेरा आलिंगन नहीं करेंगे।"
"आप मेरी इच्छा के विपरीत मेरे साथ शयन नहीं करेंगे।"
उर्वशी पुरुरवा की प्रतिक्रिया लक्ष्य करने लगी ।
"यह भी स्वीकार है, जलीय देवी पुरुरवा उर्वशी के अत्यन्त समीप आ गया, " और क्या तुम्हारी संविद् है?"
"आप का नग्न दर्शन होते ही मैं आप का त्याग कर दूँगी । "उर्वशी का स्र स्पष्ट और स्थिर था ।
"उर्वशी प्रतिदिन केवल घृत के एकाहार करने का तुम्हें आग्रह क्यों है?
"राजन् । "उर्वशी ने गम्भीरता पूर्वक कहा. "घृत अग्नि है। जीवन है। अग्नि यज्ञ है। अग्नि से जगत उत्पन्न हुआ है। अग्नि में हम मिलेंगे।
अग्नि हमे देवलोक से पितृलोक में पहुँचा देता है। परलोक गमन का माध्यम है। अग्नि मृतक को उच्चतम अमरत्व पद तक पहुचाता है। अग्नि व्योम के साथ मृतक धुलोक पहुँचाता है। अग्नि पुण्यात्माओं के लोक में हमें रख देता है।"
पुरुरवा ने अग्निदेव का मानसिक स्तवन करते हुए पूछा, "प्रिये । तुम दो मेषों
को क्यों बाँध रखती हो? पुरूरूवा ने शयन कक्ष में दो बँधें मेषों को देखते हुए
पूछा ।
"पुरुश्रेष्ठ !" उर्वशी ने कहा, "प्राण और वायु प्राणी मात्र के जीवन का
अवलम्बन है। यदि एक का अभाव हो जाए ?
"प्राण और अपान वायु से शरीर चलता है। एक के वियोग पर दूसरा स्वयं साथ त्याग देता है। हम मृतक हो जाते हैं।"
"राजन्" उर्वशी ने विवेक मुद्धा से कहा, "हमार पार्थिव शरीर आत्मा पर आवरण मात्र है। इस आवरण के हटते, नग्न होते ही मनुष्य बन जाता है। मृत है, मिटटी हो जाता है । आत्मा पर रहने वाले इस अवारण के कारण हम जीवित कहे जाते है ।। "
"सुनो राजन्! लज्जावरण खण्डित होने पर मनुष्य में क्या शेष रह जाएगा?
" और कहूँ ? केवल मैथुन - काल में मनुष्य अपने नग्न रूप में रहता है। उस का वह स्वरूप अन्य समयों में अग्राह्य है। यही पुरुषों के साथ स्त्रियों के जीवन-यापन का उपचार है।"
"मैं गन्धर्व - कुल की हूँ। मैं अन्तरिक्ष वासिनी हूँ मैंने नारायण के उर्वा से जन्म लिया है। अतएव उर्वशी नाम धारण किया है"।
"और मैं ।" पुरुरवा बीच में ही बोल उठा ।
"आप का मृत्यु-धर्म है। आप मृत्युलोक के निवासी है। आप मृत्यु हैं । पुरुरवस् । आप मेरे भौतिक रूप पर अपनी भौतिक मनोवृति के कारण आसक्त हुए
हैं। " उर्वशी ने अपने शब्दों पर जोर देते हुए कहा । "
"तुम मृत्यु-लोक में !"
“कहती हूँ महात्मन् । “उर्वशी ने भूमि की ओर देखते हुए कहा, “आपके पवित्र
गुणों पर मोहित थी। यही मेरा एकमात्र अपराध था।"
"बात कुछ ऐसी हुई, नरश्रेष्ठ । "उर्वशी ने मन्द स्वर में कहा, "इन्द्र सभा मे नारद आप के गुणों की प्रशंसा कर रहे थे। उस प्रशस्ति वाचन से मैं आप की ओर अनायास मन ही मन आकर्षित हुई। इस आकर्षण के कारण मित्रावरुण ईर्ष्या से रुष्ट हो गये । मुझे शाप दिया, 'देव लोक त्याग कर मृत्युलोक मे चली जाओ । अमानुषी होकर मानुष का साहचर्य प्राप्त करों
"गन्धर्वो मे चर्चा थी उर्वशी चर्चा का विषय थी - "वह मृत्युलोक चली गयी है। अपने कुल का त्याग कर दिया। मनुष्य से विवाह उसके स्वर्गीय नृत्य एवं गान से वञ्चित हो गयी है । " सूत्र में बँध गयी है। देवसभा
"यक्षेश्वर कुबेर की सेवा से वह विरत हो गयी है। नृत्य, गान, बृन्द सगीत में, उसका अभाव खलता है उसके बिना गन्र्धव-लोक शून्यवत उजाड लगता है। हमे धिक्कार है। हमारे लोक की उर्वशी मृत्यु लोक में मनुष्य के साथ विहार करती है। मानव पुरुरवा का मानवेतर उर्वशी से सबन्ध है। हमारा मुख लज्जा से लोक में नत हो गया है।"
विश्वावसु गन्र्धव ने योजना उपस्थित की "उर्वशी के शयन-गृह में सर्वदा दो
मेष बॅधे रहते हैं। उन्हे उठा ले आना चाहिए। राजा नग्न सोता रहेगा। उर्वशी उसे
नग्न न देख ले। इस लिये वह उठेगा नहीं मेष के अभाव में उर्वशी का वहाँ निवास
सम्भव नही होगा। यदि राजा उठा और उर्वशी ने उस का नग्न रूप देख लिया, तो
उर्वशी स्वतः पुरुरवा का त्याग कर देगी । "
घोर रात्रि थी । अन्धकार घनीभूत था । शयन कक्ष था। उर्वशी और पुरुरवा
पर्यंक पर गाढी निद्रा मे थे । मेष पर्यंक से बँधे थे ।
विश्वावसु आदि गर्धवों में प्रासाद में प्रवेश किया। शयनवास में पहुँचे। दो बधे मेषों मे से एक को खोलकर वे ले चले। मेष रोने लगा उर्वशी की निद्रा खुली एक मेष लुप्त था।
"हाय प्रतीत होता है। मैं एक अवीर के पास हूँ। एक अजन के पास हूँ। मेरे एक पुत्र का हरण हो गया । मैं क्या करूँ ?
उर्वशी का विलाप सुनकर नग्न पुरुरवा उनिद्रित हो गया। उसे प्रतिज्ञा स्मरण हो गयी उसे नग्न दर्शन के भय से वह उठा नही
विहल उर्वशी शयन - वास में रूदन करने लगी। पुरुरवा को उठते न देखकर गन्र्धवगण चकित हुए। उन्होने मन्त्रणा की । द्वितीय मेष को भी लुप्त कर देना चाहिए। गन्धर्वो नें शयन- वास में चुपचाप प्रवेश किया। कोलाहल हुआ । द्वितीय मेष उठा कर वे भागे। मेष रोने लगा। भय-विहला उर्वशी के कण्ठ से करुण वाणी निकली, ओह । मैं अनाथा हॅू। भर्तृहीना हूँ। कायर पुरुष के साथ हूँ । एक अबीर के पास हूँ। मेरे द्वितीय पुत्र का हरण हो गया। मैं क्या करूँ?
"पुरुरवा उठकर बैठ गया।
"तुम्हारे पूर्वज अत्रि, सोम, बुध, परलोक में बैठे क्या सोचते होंगे ? मैं अरक्षित
हूँ ! आज वे कितने लज्जित होंगे ? उर्वशी ने उपालभ करते हुए कहा । वह घोर
विलाप करने लगी।
मैं आ गया। मैं आ गया, उर्वशी !
अकस्मात् आकाश प्रखर विद्युत प्रकाश से प्रभामय हो गया। प्रकाश शयन-ग्रह
में फूट पड़ा। दिन जैसा शुभ प्रकाश था। विद्युत - ज्योति हॅसी । पुरुरवा का पूर्ण
नग्न-स्वरूप उर्वशी ने देख लिया।
गन्धर्व मुसकराए। विद्युत प्रभा लुप्त हो गई और अन्तर्ध्यान हो गई अप्सरा श्रेष्ठ उर्वशी । शयनवास में अन्धकार घनीभूत होने लगा। पुरुरवा के स्वर मे उत्साह था। अपनी वीरता पर गर्व करता बोला, "उर्वशी । उर्वशी । उर्वशी । मैं तुम्हारे प्रिय मेषो को लौटा लाया हूँ ।"
शयन कक्ष मे उसकी वाणी गूंजी होने लगी। शयन कक्ष मे उसकी वाणी गूंजी और उसका उपहास करने लगी, "उर्वशी । तुम्हारे पुत्र, तुम्हारे मेष ।
प्रतिध्वनि स्वयं अपने में लीन होने लगी। शयन कक्ष में उसकी वाणी का, उसकी प्रतिध्वनि स्वयं अपने में लीन होने लगी। शयन कक्ष में उसकी वाणी का, उसकी प्रतिध्वनि का उत्तर दिया मेषों की वाणी ने मेमे मे मे । और सफल हुआ गन्धर्व कुचक्र |
विरह-विदग्ध पुरुरवा विषण्ण था । शान्ति खो बैठा था। क्षुब्ध - हृदय भू-तल पर उर्वशी को खोजता श्रीहीन शुष्क हो गया था। विहल विरही उर्वशी के अन्वेषण मे सर्वत्र विचरण करने लगा।
विमन पुरुरवा कुरुक्षेत्र के विश्वयोजन सरोवर-तट पर प्रयाजनहीन घूम रहा
था। विस्तृत सरोवर के निर्मल शान्त जलस्तर पर हंसरूपिणी अप्सराएँ विलास कर
रही थी ।
हसिनियों ने अगन्तुक भग्न- हृदय पुरुरवा को तट पर खड़ा देखा । उनमें
किंचित् कोलाहल हुआ। हट कर दूर जाने के लिए बढ़ी एक हंसिनी दल से पीछे
रह गयी। उसकी उज्ज्वल लम्बी ग्रीवा उठी। उसनें स्थिर नयनों से पुरुरवा की ओर
देखा ।
पुरुरवा चकित हुआ, हंसिनी को मुद्रा लक्ष्य कर हंसिनी ने दो-तीन बार
ग्रीवा उपर-नीचे की । जैसे वह पुरुरवा को नमस्कार कर रही थी ।
"निश्चय प्रकट होना चाहिए।"
हंसिनी रूप अप्सराएँ अपने पूर्व स्वकीय रूपो में प्रादुर्भूत हुई। प्रसन्न मुख पाँच सखी अप्सराएँ, पूर्व चिन्ति, सहजन्या, मेनका, विश्वाची तथा घृताची के मध्य उर्वशी को पुरुरवा ने देखा । उन्मादी के तुल्य वह चिल्ला उठा, "उर्वशी । उर्वशी ॥ उर्वशी || क्रूर हृदय ठहर घोर मानसी ॥ ठहर ।" 1
"यदि हम इस समय मौन रहेंगे, तो कैसे हमारा भविष्य सुखपूर्वक बीतेगा?"
"पुरुरवस् । "उर्वशी ने कहा, "वार्तालाप से क्या लाभ ? मैं वायु के समान दुश्प्राप्य नारी हूँ।"
"मानव !"पुरुरवा उदास हो गया। उर्वशी ने कहा, आपने वह नहीं किया। जिसे करने के लिये मैंने कहा था। तुम्हारे लिए मुझे पकड़ रखना सम्भव नहीं है। अपने घर लौट जाओं मैं। मैं यही कहना चाहती हूँ ।"
पुरुरवा कातर हो गया ।
"राजन् । नई उषा पुरानी उषा का त्याग कर देती है। उसी प्रकार मैं आपसे विलग हो गई हूँ। लौट जाइए। लौट जाइए।"
पुरुरवा का उदासीन मुख मलिन होने लगा। वह दयनीय स्वर में बोला :
"उर्वशी । तुम्हारी चिन्ता में मैं संतप्त हो गया हूँ। शक्तिहीन हो गया हूँ। अपने
तुणीर से वाण नहीं निकाल सकता। युद्ध में विजय प्राप्त कर अगणित गउओं को
प्राप्त करने में असमर्थ हो गया हूँ।
"प्रिये ! मैं राज्य कार्य से विरक्त हो गया हूँ। मेरे सैनिक उत्साह हीन और
कर्त्तव्य विमुख हो गए हैं। "पुरुरवा ने दीन स्वर में कहा।"
"सुनो मानव । सुजूर्णि, श्रेणी, सम आदि अप्सराएँ गोष्ठ मे प्रवेश करती गउओं की तरह शब्द करती मलिन वेश में आती थीं, किन्तु वे मेरे घर में प्रवेश नहीं कर सकती थी।
पुरुरवा को बीच में ही रोकती उर्वशी बोली, "आपके जन्मकाल मे सभी देवागनाएँ दर्शनार्थ आई सरिताओं ने भी प्रशसा की। देवगणों ने घोर संग्राम में शत्रुओं का नाश करने के लिए स्तुति की।"
"पुरूवः ।" उर्वशी ने कहा, "आपने पृथ्वी की रक्षा के लिए पुत्र उत्पन्न किया है आपसे सतत् कह चुकी हूँ। मैं आपके पास नहीं जाउँगी । आप प्रजापालन से व्यर्थ विमुख हो गए हैं। तथ्य हीन वार्तालाप से क्या लाभ?"
"उर्वशी ।" पुरुरवा ने मार्मिक वाणी से कहा, "तुम्हारा पुत्र मेरे पास किस प्रकार रह सकेगा ? वह मेरे पास आकर रोएगा।"
"पुरुरव: । "उर्वशी ने कहा, "मेरा उत्तर सुनो। आपका पुत्र आपके पास आकर रोएगा नहीं। वह आँसू नहीं गिराएगा। मैं उसकी सर्वदा मंगल कामना करती रहूँगी। पुत्र जन्म ग्रहण करेगा। मैं अवलिम्ब उसे आपके पास भेज दूँगी।"
"उर्वशी
मैं निकीर्ति की गोद में बैठ जाउँगा मैं यहीं रह जाऊँगा । भयकर वृक् मुझे
फाड खाएँ। मैं यही कहना चाहता हूँ।"
"पुरुरवे ! "उर्वशी विचलित हुई" गिरो मत। मृत्यु की कामना मत करो 1
आपको बृकादि न खाएँ" ।
"राजन् । "उर्वशी ने करुण स्वर से कहा, "मत मरो । क्रूर वृक् को मत खाने दो । स्त्रियाँ किसी की नहीं होतीं। उनका हृदय वृक्तुल्य होता है। स्त्रियों की मित्रता स्थायी नहीं रहती आप घर लौट जाइए।"
"राजन् । मैं गमिणी हूँ। तुम्हारी सन्तान मेरे गर्भ में स्थित है। "उर्वशी के मुख पर स्त्री-जन्य लज्जा आ गई ।
"उर्वशी । लौट चलें..... "
"नही राजन् "उर्वशी ने किंचित् विचार करते हुए कहा, "आज से सम्वत्सर की अन्तिम रात्रि को पाधारिएगा।"
पुरुरवा का मुख खिल गया।
"उस समय आप मेरे साथ रात्रि निवास कर सकेंगे"
सम्वत्सर की अन्तिम रात्रि ।
"भूपते । "उर्वशी ने प्रसन्न वदन कहा, "प्रात काल गन्धर्वगण आपके पास आएँगे।"
और.... फिर... गन्धर्व और गन्धर्वी और-मानुष और अमानुष एक।"
उर्वशी के पायल झंकृत हो उठे।
"मानुष ! तुम्हारी मानुष- जाति में ऐसा कोई पवित्र नहीं है, जो बिना अग्नि की कृपा से हम में मिल सके।"
"देवगण ! पुरुरवा ने अग्निदेव का स्मरण करते हुए स्तवन किया, "अग्नि देव
हैं अग्नि पवित्र करने वाले हैं। अग्नि वैश्वानर है।
उस अग्नि का स्तवन करता हूँ उन हुताशन की शरण जाता हूँ। उन अग्निदेव की उपासना करता हूँ।"
गन्धर्वो ने हर्षित होकर कहा, "तुम्हें अग्नि हम देगे । अग्नि से तुम पवित्र हो जाओगे। पवित्रता मानुष और अमानुष को एक करती है।"
गन्धर्व अग्नि ले आए। उन्होने वह स्थाली मे रख कर अपने मस्तको से लगाकर पुरुरवा को दी। पुरुरवा को दी। पुरुरवा ने स्थाली मस्तक से लगाते हुए पूर्ण श्रद्धा से अग्निदेव को प्रणाम किया। गन्धवों नें कहा, "पवित्रात्मे' स्थाली की अग्नि ग्रहण कीजिए। इस पवित्र अग्नि मे यज्ञ करने पर तुम पवित्र होकर हम में से एक हो जाओगे।
"उर्वशी द्वारा उत्पन्न कुमार आयु तथा स्थाल्य अग्नि पुरुरवा घर लौट रहा था। पुरुरवा ने अरण्य मे प्रवेश किया। उसका मार्ग अरण्य से होकर जाता था ।
वह विचार करता जाता था। वह चाहता था उर्वशी और मिली अग्नि ।
उसने स्थालय अरण्य में रख दी। अपने पुत्र आयु कुमार के साथ, बिना अग्नि अकेले अपने ग्राम में प्रवेश किया
अग्नि अश्वत्थ वृक्ष का रूप ग्रहण कर चुकी थी । स्थाली शमी वृक्ष हो गई
थी। शमी वृक्ष के गर्भ में अश्वत्थ वृक्ष स्थित था ।
"मैं कर्म मे विश्वास करता हूँ। गन्धर्वगण । मुझे इस श्रुति पर श्रद्धा है कि
'कर्म से सब कुछ प्राप्त होता है ।"
"शुद्ध मूल अग्नि कैसे प्राप्त कर सकूँगा?" पुरुरवा ने जिज्ञासा की तुम ऊपर
अरणि अश्वत्थ की तथा नीचे की अरणि शमी काष्ठ की तैयार करो।
उनके मंथन द्वारा जो अग्निद उत्पन्न होगी, वह पूर्व स्थाली वाली वही अग्नि होगी।"
"बताता हॅू ऊपर की अरणि अश्वत्थ काष्ठ तथा नीचे की आरणि भी अश्वत्थ काष्ठ की बनाओं। उन अरणियों के मन्थन से उत्पन्न अग्नि स्थाल्य की लुप्त अग्नि होगी।"
पुरुरवा ने पूर्ण आस्था से अश्वत्थ काष्ठ की उपर तथा नीचे की अरणियाँ बनाई। उनके मन्थन से अग्निदेव आविर्भूत हुए। वह वही अग्नि थी। जिसे गन्धर्वो ने उसे स्थालय में दिया था। यह अग्नि थी, जो अरण्य में लुप्त हो गई थी।
पुरुरवा ने पवित्रतापूर्वक विधिवत यज्ञ किया। यज्ञ की समाप्ति हुई । आकाशवाणी हुई, "पुरुरवस् । मानुष से तुम अमानुष हुए। हम गन्धर्वो में मिल कर अब एक हो गए।"
"पुरुरवा । तुम सूर्य हो। उर्वशी ऊषा है। तुमने अपने कर्म से कीर्ति प्राप्त की है। तुमने अपनी ज्ञान-प्रभा से भू-तल को धवलित किया है। मानव-लोक को त्याग कर तुम देवलोक के निवासी बन गये। तुम्हें धन्यवाद ।"
पुरुरवा अपनी प्रशंसा सुनकर संकुचित हो गया। गन्धवों नें गर्वपूर्वक कहा,
"तुम्हारे पूर्व विश्व में केवल अग्नि थी ।"
पुरुरवा ने अपने मानस - मन्दिर में स्थित अग्निदेव का स्मरण कर उन्हें नमन
किया ।
गन्धवों का प्रसन्न संगीत तुल्य स्वर गूँज उठा-
"उर्वशी, जल है आप सूर्य हैं और आप लोगों का वांछित फल -आयु है"
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