इक्ष्वाकु वंशीय रथ प्रोष्ट असमाति एक राजा थे। उनके पुरोहित अत्रियों के मण्डल में द्विपदों के ऋषि थे। राजा तथा पुरोहितो मे कलह उत्पन्न हो गया। राजा ने कलह को समाप्त करना चाहा। कलह अच्छा समझा। उन्हें पौरोहित्य पद से हटा दिया । - शान्ति निर्मित पुरोहितो को दूर करना।
बिना पुरोहित के धार्मिक कार्य सम्पादन कठिन था। अतएवं राजा ने किरात तथा आकुली दो असुरो को पुरोहित नियुक्त किया। असुर पुरोहित मायावी थें। राजा ने उन्हें पुरोहित कार्य के लिए वरिष्ठ समझा।
सुवन्धु गोपायन वंशीय थें। वे शष्ठ कुल के गोत्रकार थें। वे ऐक्ष्वाक असमाति के पुरोहित थें। परन्तु पौरोहित्य कार्य से राजा के हटा देने पर कुद्ध हो गये थें । इन्होंने राजा के विरूद्ध मंत्र-तंत्र का प्रयोग किया ।
नवीन नियुक्त असुर पुरोहितों को सुवन्धु की यह बात बुरी लगी। उन्होंने निश्चय किया कि सुवन्धु का वध कर दिया जाय ।
गोपायनों के विरोधी किरात तथा आकुली नवीन पुरोहित थें। उन्होने पूर्व पुरोहितों का अभिप्राय जान लिया। अपनी माया तथा योग-बल से कपोत बन गये।
सुवन्धु पर आक्रमण किया। सुवन्धु आहत हो गये। आघात हो गये। आघात दुःख को सहन नहीं कर सके । मूच्छित होकर गिर पड़े।
कपोत स्वरूप उन असुर पुरोहितों ने सुबन्धु के प्राणों को नोच लिया।
सुबन्धु के कल्याण निमित्त वे तत्पर हो गये । सुवन्धु को पुनर्जीवित करने के लिये वे आसनन लगा कर बैठ हगये। गोपायनो ने जप आरम्भ किया ।
" जप करने के पश्चात् गोपायनो ने सुवन्धु के मन आवर्तन निर्मित सूक्त का स्तवन किया:
"गोपायनों ने सोम की स्तुति की।
"गोपायनो ने दोनों लोको की स्तुति की।"
"गोपायनों ने असमाति की स्तुति की।"
"राजा गोपायनों की स्तुति सुन कर उनके पास आये।"
"अत्रियो ने सुवन्धु के प्राण निर्मित अग्नि की स्तुति की। अग्नि प्रकट हुए।
उनकी पूजा स्तुति करते हुए गोपायनो ने निवेदन किया
"अग्ने । सुवन्धु का प्राण कहाँ है?"
"सुवन्धु की आत्मा अन्तरिक्ष मे स्थित है। "अग्नि ने उत्तर दिया।
"वे कैसे हैं ? "गोपायनों ने उत्सुक्तापूर्वक पूछा ।
" हितार्थी सुवन्धु रक्षित हैं। "अग्नि ने कहा ।
"भगवान् ! उनका प्राण लौटा दीजिए।"
"तथास्तु"
"गोपायनों ने अग्नि को प्रणाम किया। उनकी स्तुति की। उनकी पूजा की । अग्नि ने प्रसन्न होकर कहाः ।
"सुवन्धु जीवित रहेगा।" कहते हुए प्रसन्न पूर्वक स्वर्ग चले गये।
गोपायनों ने सुवन्धु के प्राण का आह्वान किया
अग्ने । प्राणदातास्वरूप यहाँ पर आपका आगमन हुआ है। आप पिता माता तुल्य है। सुवन्धु तुम्हारा शरीर यहाँ पड़ा है। प्रवेश करों । "
गोपायनों ने सुवन्धु के भूमि पर गिरे शरीर को देखते हुए चेतनार्थ सूक्त गान किया."
"सुवन्धु में चेतना प्रवेश करने लगी। गोपायनो ने प्रसन्न होकर सुबन्धु के शरीर का पृथक्-पृथक् स्पर्श करते हुए ऋचा का गान किया।
"सौभाग्यशाली हाथ भेषज तुल्य है। यह स्पर्श द्वारा मंगल प्रदान करता है।"
सुवन्धु का शरीर प्राणमय होकर जीवित हो गया। गोपायन प्रसन्न हो गये। उनकी प्रसन्नता में असुर पुरोहितों ने देखा अपने पौरोहित्य का अवसान ।
नोट -
सुदूर वैदिक काल में सुर तथा असुरो में विशेष भेद नहीं था। इस गाथा से प्रकट होता है कि असुर भी पुरोहित कार्य के लिये नियुक्त किये जाते थे। असुरों का देश वर्तमान असीरिया आर्थात् सीरिया तथा उसके समीपवर्ती भूखण्ड थे अर्थजाति सीरिया के पूर्व और उत्तर में आबाद था दोनों जातियों का मूल स्रोत एक ही था। कालान्तर में दैशिक तथा सैद्धान्तिक भेद होने के कारण वे अलग-अलग होकर वो जातियाँ बन गयी । उनके मुख्य मेद का आधार या आत्मा विषयक ज्ञान और विश्वास असुर मानते थे कि शरीर ही आत्मा है। शरीर के अवसान के साथ आत्मा भी मर जाती है। सुर मानते थे कि शरीर और आत्मा में भेद है। शरीर के नाश साथ आत्मा का भी नाश नहीं होता। यही कारण है सीरिया तथा उसके समीपवर्ती देशों में यहूदी, ईसाई, तथा उनकी परम्परा का अनुकरण करने वाले मुसलमान आत्मा के पुनर्जन्म तथा कर्म सिद्धान्त के विरोधी हो गये एक नीवन परम्परा चलाई, जिसकी पूर्णतया शामी किंवा सेमिष्क संस्कृति में प्राप्त होती है। प्रस्तुत गाथा में आत्मा के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। शरीर से आत्मा के निकल जाने पर पुन वह मृत शरीर में लाई जा सकती है। मृत को जीवित किया जा सकता था।
Bahut sundar katha 👌👌
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