धीर शातपर्णेय और महाशाल जाबालि संवाद(शत० ब्रा० १०/३/३/१८)

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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धीर शातपर्णेय और महाशाल जाबालि संवाद
धीर शातपर्णेय और महाशाल जाबालि संवाद


  एक ही अग्नि है । वह बहुधा समिद्ध है । वह प्रकृति के अणु-अणु में प्रत्येक प्राणी में प्रज्वलित है । वह मानव शरीर में भी अनेक रूप मे समाविष्ट है । वह वाक् मे चक्षु मे श्रोत्र में, मन में शक्तिरूपेण विद्यमान है । प्राण तत्व भी उसी का रूप है । सारी इन्द्रियों का केन्द्र है। इसी में सब का लय है । इसी से सब का उद्भव है । इसके बिना शक्तिशालिनी इन्द्रियां भी अशक्त हैं। पुरुष शरीर में ये शक्तियां वस्तुतः प्रकृति शक्तियों की प्रतीक हैं -धीर शातपर्णेय महाशाल जाबाल के समीप गये । महाशाल जाबालि ने धीर से पूछा- 'क्या जानते हुए तुम मेरे समीप आये हो ? 'धीर ने उत्तर दिया- 'मैं अग्नि को जानता हूँ। 'जाबाल ने पूछा किस अग्नि को जानते हो ? धीर ने कहा, मैं वाक्प अग्नि को जानता हूँ। जाबाल- 'जो उस अग्नि को जानता है, वह क्या होता है ? जो उस अग्नि को जानता है वह बाग्मी होता है । वाक् उसका परित्याग नहीं करती । जाबाल ने पूछा, 'तुम किस अग्नि को जानते हो? धीर ने- 'मैं चक्षु रूप अग्नि को जानता हूँ' । 'जो उस अग्नि को जानता है वह चक्षुभान् होता है । चक्षु उसका त्याग नही करता । जाबाल- तुम अग्नि को जानते हो । क्या जानते हुए तुम मेरे पास आये हो ? धीर मै अग्नि को जानता हूँ । जाबालि - 'मनरूप अग्नि को जानता हूँ' । जाबाल- जो इस अग्नि को जानता है उसका क्या होता है ? धीर जो इस अग्नि को जानता है वह मनस्वी होता है । मन उसका परित्याग नहीं करता है। जाबाल- तुम किस अग्नि को जानते हो? क्या जानते हुए मेरे पास आये हो? धीर- मैं अग्नि को जानता हूँ । जाबाल - तुम किस अग्नि को जानते हो ? धीर - मैं श्रोत्ररूप अग्नि को जानता हूँ। जाबाल- जो इस अग्नि को जानता है वह क्या होता है ? धीर- जो इस अग्नि को जानता है वह श्रोत्र होता है । श्रोत्र उसका परित्याग नहीं करता है । जाबाल- तुम अग्नि को जानते हो, क्या जानते हुए तुम मेरे पास आये हो ? धीर- मैं अग्नि को जानता हूँ। जाबाल- तुम किस अग्नि को जानते हो? धीर - जो यह सर्वात्मक अग्नि है, उसे जानता हूँ। ऐसा सुनने पर जाबालि आसन से ऊपर उठखडे हुए और कहा, 'वह अग्नि किस प्रकार की है, समझाओ । धीर- 'तुम उस अग्नि को समझो। आध्यात्मिक रूप से ही वह सर्वात्मक अग्नि है। जब मनुष्य सोता है तो वाक् चक्षु, श्रोत्र सभी प्राण में आकर एकीभूत हो जाते हैं। जब मनुष्य सोता है तो वाक् चक्षु श्रौत्र सभी प्राण में आकर एकीभूत हो जाते हैं। जब वह जग जाता है तो प्राण से यह पुनः पृथक् हो जाते हैं अधिदैवत अर्थ में वाणी अग्नि है । चक्षु आदित्य है, मन चन्द्रमा है, श्रोत्र दिशायें हैं । प्रवहणशील वायु ही प्राण है। अग्नि वायु के प्रवाहित होनें पर झुकती है। आदित्य अस्त होने पर वायु में ही प्रवेश करता है। वायु में ही दिशायें प्रतिष्ठित हैं। वायु के समीप से ही ये पुन उत्पन्न होते हैं। इस रहस्य को समझने वाला मृत्यु के पश्चात् तो वाणी से अग्नि में, चंक्षु से आदित्य में, मन से चन्द्रमा में, श्रोत्र से दिशाओं में प्राण से वायु में प्रवेश कर जाता है। इन तत्वों मे मिलकर जिस देवता के रूप में चाहता है उसी के रूप में विचरण करता है।

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