प्रशंसा और निंदा !

Sooraj Krishna Shastri
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  एक पर्वत पर एक संत रहते थे। एक दिन एक भक्त आया और बोला-महात्मा जी, मुझे तीर्थयात्रा के लिए जाना है। मेरी यह स्वर्ण मुद्राओं की थैली अपने पास रख लीजिए। संत ने कहा- भाई, हमें इस धन-दौलत से क्या मतलब! भक्त बोला- महाराज, आपके सिवाय मुझे और कोई सुरक्षित एवं विश्वसनीय स्थान नहीं दिखता। कृपया इसे यहीं कहीं रख लीजिए। यह सुनकर संत बोले-ठीक है, यहीं इसे गड्ढा खोदकर रख दो। भक्त ने वैसा ही किया और तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ा। लौटकर आया तो महात्मा जी से अपनी थैली मांगी। महात्मा जी ने कहा-जहां तुमने रखी थी, वहीं खोदकर निकाल लो। भक्त ने थैली निकाल ली। प्रसन्न होकर भक्त ने संत का खूब गुणगान किया लेकिन संत पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भक्त घर पहुंचा। उसने पत्नी को थैली दी और नहाने चला गया।

पत्नी ने पति के लौटने की खुशी में लड्डू बनाने का फैसला किया। उसने थैली में से एक स्वर्णमुद्रा निकाली और लड्डू के लिए जरूरी चीजें बाजार से मंगवा लीं। भक्त जब स्नान करके लौटा तो उसने स्वर्ण मुद्राएं गिनीं। एक स्वर्ण मुद्रा कम पाकर वह सन्न रह गया। उसे लगा कि जरूर उसी संत ने एक मुद्रा निकाल ली है। वह तेजी से संत की ओर भागा। वहां पहुंचकर उसने संत को भला-बुरा कहना शुरू किया-अबे ओ पाखंडी! मैं तो तुम्हें पहुंचा हुआ संत समझता था पर स्वर्ण मुद्रा देखकर तेरी भी नीयत खराब हो गई। संत ने कोई जवाब नहीं दिया। तभी उसकी पत्नी वहां पहुंची। उसने बताया कि एक मुद्रा उसने निकाल ली थी। यह सुनकर भक्त लज्जित होकर संत के चरणों पर गिर गया। उसने रोते हुए कहा- मुझे क्षमा कर दें। मैंने आपको क्या-क्या कह दिया।

संत ने दोनों मुट्ठियों में धूल लेकर कहा-ये है प्रशंसा और ये है निंदा। दोनों मेरे लिए धूल के बराबर है। जा तुम्हें क्षमा करता हूं।

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