मृत्यु से बड़ा भय

Sooraj Krishna Shastri
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 जंगलमें एक पेड़ पर दो बाज प्रेमपूर्वक रहते थे। दोनों शिकार की तलाश में निकलते और जो भी हाथ लगता शाम को उसे मिल बांटकर खाते। लंबे काल-खंड से यही क्रम चल रहा था।

    एक दिन दोनों शिकार कर के लौटे तो एक की चोंच में चूहा और दुसरे की चोंच में सांप था। दोनों ही शिकार तब तक जीवित थे। पेड़ पर बैठकर बाजों ने जब उनकी पकड़ ढीली की सांप ने चूहे को देखा और चूहे ने सांप को। सांप चूहे का स्वादिष्ट भोजन पाने के लिए जीभ लपलपाने लगा और चूहा सांप के प्रयत्नों को देख कर अपने शिकारी बाज के पंखों में छिपने का उपक्रम करने लगा।

   उस दृष्य को देखकर एक बाज गम्भीर हो गया और विचारों में खो गया। दूसरे बाज ने उससे पूछा --दोस्त, दार्शनिकों की तरह किस चिंतन में खो गए ? 

   पहले बाज नें अपने पकड़े हुए सांप की और संकेत करते हुए कहा देखते नहीं यह कैसा मुर्खप्राणी है। जीभ की लिप्सा के आगे इसे अपनी मौत भी एक प्रकार से विस्मरण हो रही है। दूसरे बाज ने अपनी चोंच में फंसे चूहे की आलोचना करते हुए कहा और इस नासमझको भी देखो भय इसे प्रत्यक्ष मौत से भी डरावना लगता है।

    पेड़ की नीचे एक सन्त सुस्ता रहे थे। उन्होंने दोनों बाजों की बातें सुनी और एक लंबी सांस छोड़ते हुए बोले- हम मानव भी तो सांप और चूहे की तरह स्वाद व भय को बड़ा समझतें हैं, मृत्यु को तो हम लोगों ने भी विस्मरण कर रखा है, जबकि मृत्यु तो अटल सत्य है। 

   अतः मानव को अपने स्वयं के भले के लिए दो को कभी विस्मृत नहीं करना है। पहले भगवान जिन्होंने कृपा करके मानव तन उपहार स्वरूप दिया एवं दूसरी स्वयं की मौत।

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