उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 14 और 15 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण
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उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 14 और 15 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण |
संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत पाठ:
रामः:
देवि!
प्रसाद इव मूर्तस्ते स्पर्शः स्नेहार्द्रशीतलः।
अद्याप्यानन्दयति मां, त्वं पुनः क्वासि नन्दिनि?॥ १४ ॥
सीता:
एते खल्वगाधमानसदर्शितस्नेहसम्भारा आनन्दनिष्यन्दिनः सुधामया आर्यपुत्रस्योल्लापाः।
जाने, प्रत्ययेन निष्कारणपरित्यागशल्यितोऽपि बहुमतो मम जन्मलाभः।
रामः:
अथवा कुतः प्रियतमा?
नूनं सङ्कल्पाभ्यासपाटवोपादान एष भ्रमो रामभद्रस्य।
(नेपथ्ये !)
अहो! महान् प्रमादः प्रमादः (‘सीतादेव्याः स्वकरकलितैः’ इत्यर्धं पठ्यते।)
रामः:
(सकरुणौत्सुक्यम्)
किं तस्य?
(पुनर्नेपथ्ये ‘वध्वा सार्धम्’ इत्युत्तरार्धं पठ्यते।)
सीता:
क इदानीमभियुज्यते?
रामः:
काऽसौ दुरात्मा? यः प्रियायाः पुत्रं वधूद्वितीयमभिभवति।
(इत्युत्तिष्ठाति)
(प्रविश्य)
वासन्ती (सम्भ्रान्ता):
देव! त्वर्यताम्।
सीता:
हा, कथं मे प्रियसखी वासन्ती?
रामः:
कथं देव्याः प्रियसखी वासन्ती?
वासन्ती:
देव! त्वर्यतां त्वर्यताम्।
इतो जटायुशिखरस्य दक्षिणेन सीतातीर्थेन गोदावरीमवर्तीय सम्भावयतु देव्याः पुत्रकं देवः।
सीता:
हा तात जटायो! शून्यं त्वया विनेदं जनस्थानम्।
रामः:
अहह! दयमर्मच्छिदः खल्वमी कथोद्घाताः।
वासन्ती:
इत इतो देवः।
सीता:
भगवति! सत्यमेव वनदेवतापि मां न पश्यति।
तमसा:
अयि वत्से! सर्वदेवताभ्यः प्रकृष्टतममैश्वर्यं मन्दाकिन्याः।
तत्किमिति विशङ्कसे?
सीता:
ततोऽनुसरावः।
(इति परिक्रामति)
रामः:
(परिक्रम्य)
भगवति गोदावरी! नमस्ते।
वासन्ती (निरूप्य):
देव! मोदस्व विजयिना वधूद्वितीयेन देव्याः पुत्रकेण।
रामः:
विजयतामायुष्मान्।
सीता:
अहो! ईदृशो मे पुत्रकः संवृत्तः।
रामः:
हा देवि! दिष्ट्या वर्धसे।
येनोद्गच्छद्विसकिसलयस्निग्धदन्ताङ्कुरेण
व्याकृष्टस्ते सुतनु! लवलीपल्लवः कर्णमूलात्।
सोऽयं पुत्रस्तव मदमुचां वारणानां विजेता
यत्कल्याणं वयसि तरुणे भाजनं तस्य जातः॥ १५ ॥
हिन्दी अनुवाद:
राम:
हे देवी!
तुम्हारा स्पर्श जैसे करुणा की मूर्तिमानता है,
जो स्नेह और शीतलता से भरा हुआ है।
यह आज भी मुझे आनंदित कर रहा है।
तुम अब कहाँ हो, हे नंदिनी?
सीता:
यह आर्यपुत्र के गहरे हृदय से प्रकट स्नेह और करुणा से भरे हुए
उनके शब्द हैं, जो सुधा (अमृत) के समान आनंददायक हैं।
मैं जानती हूँ, यह जीवन, चाहे कितना भी दुःखद हो,
मुझे उनका प्रेम और सम्मान प्राप्त होने के कारण मूल्यवान प्रतीत होता है।
राम:
लेकिन यह कैसे संभव है, हे प्रियतमा?
शायद यह मेरा भ्रम है, जो मेरे मन के संकल्प और अभ्यास से उत्पन्न हुआ है।
(नेपथ्य में आवाज आती है):
"अहो! यह बड़ी भारी भूल है।"
(‘सीतादेव्याः स्वकरकलितैः’ इत्यारम्भ)
राम:
(करुणा और उत्सुकता के साथ)
क्या हुआ उसे?
(नेपथ्य से ‘वध्वा सार्धम्’ का उत्तरार्ध सुनाई देता है।)
सीता:
अब कौन दोषी है?
राम:
कौन वह दुष्टात्मा है,
जो प्रिय के पुत्र और उसकी वधू को हानि पहुँचाता है?
(उठ खड़ा होता है।)
(वासन्ती प्रवेश करती है, घबराई हुई):
देव! शीघ्र चलें।
सीता:
अरे! मेरी प्रिय सखी वासंती कैसी है?
राम:
क्या देवी की प्रिय सखी वासंती यहाँ है?
वासन्ती:
देव! शीघ्रता करें।
जटायुशिखर के दक्षिण में, सीता-तीर्थ के निकट,
गोदावरी के पास, देवी के पुत्र को देखने चलें।
सीता:
हे तात जटायु!
तुम्हारे बिना यह जनस्थान सूना हो गया है।
राम:
अरे! ये कथाएँ तो मेरे हृदय को काटने वाली हैं।
वासन्ती:
इधर, इधर, हे देव!
सीता:
हे भगवती! यह सत्य है कि वन देवता भी मुझे नहीं देख सकते।
तमसा:
वत्से! मन्दाकिनी (गंगा) के प्रसाद से तुम
सभी देवताओं से भी अधिक महान बन चुकी हो।
तो तुम क्यों शंका कर रही हो?
सीता:
तब चलो, उनका अनुसरण करें।
(चलती है।)
राम:
(चलते हुए)
हे भगवती गोदावरी! तुम्हें नमस्कार है।
वासन्ती (देखकर):
देव! हर्ष करें, क्योंकि देवी के पुत्र, जो अब विजयी हैं,
उनका दर्शन हुआ है।
राम:
यह पुत्र विजयी हो।
सीता:
अहो! मेरा पुत्र ऐसा हो गया है।
राम:
हे देवी! सौभाग्य से तुम फल-फूल रही हो।
जिसने अपनी निकलती हुई नई पत्तियों के समान
कोमल दाँतों से,
तुम्हारे कान के पास से लवलियों के पत्तों को खींचा था,
वही तुम्हारा पुत्र, मदमत्त हाथियों का विजेता बना है।
युवा अवस्था में ही वह सौभाग्य का पात्र हो गया है।
शब्द-विश्लेषण:
-
स्नेहार्द्रशीतलः -
- स्नेह - प्रेम;
- आर्द्र - नम;
- शीतलः - ठंडा।
- अर्थ: प्रेम से भरा हुआ और ठंडा।
-
आनन्दनिष्यन्दिनः सुधामया -
- आनन्दनिष्यन्दिनः - आनंद की धारा बहाने वाले;
- सुधामया - अमृतमयी।
- अर्थ: अमृत के समान आनंद देने वाले।
-
प्रत्ययेन निष्कारणपरित्यागशल्यितः -
- प्रत्यय - विश्वास;
- निष्कारणपरित्याग - बिना कारण त्याग;
- शल्यितः - पीड़ा।
- अर्थ: विश्वास के कारण त्याग की पीड़ा।
-
मदमुचां वारणानां विजेता -
- मदमुचः - मदमस्त हाथी;
- विजेता - विजयी।
- अर्थ: हाथियों का विजेता।
व्याख्या:
यह अंश राम और सीता के प्रेम, करुणा और माता-पुत्र के पुनर्मिलन को दर्शाता है। राम अपने पुत्र के विजयी और युवा रूप को देखकर गर्वित होते हैं, जबकि सीता को अपने पुत्र को देखकर आनंद और संतोष की अनुभूति होती है। वासन्ती का प्रवेश और संवाद इस पुनर्मिलन को और अधिक भावनात्मक बनाता है।
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