उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 38 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण

Sooraj Krishna Shastri
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Here is depiction of the serene, emotional scene with Rama, Sita in her radiant shadow form, and Vasanti. The atmosphere reflects deep sorrow, longing, and a mystical connection between the characters.
Here is depiction of the serene, emotional scene with Rama, Sita in her radiant shadow form, and Vasanti. The atmosphere reflects deep sorrow, longing, and a mystical connection between the characters.

संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत पाठ:
सीता:
दारुणासि वासन्ति! दारुणासि।
या एतैदयमर्मोद्घाटितशल्यसंघनैः
पुनः पुनरपि मां मन्दभागिनीमार्यपुत्रं च स्मरयसि।

रामः:
अयि चणिड जानकि! इतस्ततो दृश्यसे, नानुकम्पसे।
हा हा देवि! स्फुटति हृदयं, ध्वंसते देहबन्धः,
शून्यं मन्ये जगदविरलज्वालमन्तर्ज्वलामि।

सीदन्नन्धे तमसि विधुरो मज्जतीवान्तरात्मा
विष्वङ्मोहः स्थगयति कथं मन्दभाग्यः करोमि?॥ ३८ ॥
(इति मूर्च्छति।)


हिन्दी अनुवाद:

सीता:
हे वासंती! तुम कठोर हो, बहुत कठोर।
जो बार-बार इन हृदय-विदारक तीखे शूलों के माध्यम से
मुझे और आर्यपुत्र को स्मरण कराती हो।

राम:
हे कठोर जानकी! तुम यहाँ-वहाँ दिखती हो,
परंतु दया नहीं दिखाती।
हे देवी! मेरा हृदय टूट रहा है, शरीर का बंधन छूट रहा है।
यह संसार मुझे शून्य प्रतीत हो रहा है।
अंतर्मन में निरंतर ज्वाला जल रही है।

अंधकारमय अज्ञान में डूबा मेरा अंतर्मन,
उदासी के कारण डूबता जा रहा है।
चारों ओर फैला मोह मुझे रोक देता है।
हे मंदभाग्य! मैं क्या करूँ, कैसे सहूँ?

(राम मूर्छित हो जाते हैं।)


शब्द-विश्लेषण

1. दारुणासि वासन्ति

  • संधि-विच्छेद: दारुणा + असि + वासन्ति।
    • दारुणा: कठोर, निर्दयी;
    • असि: हो;
    • वासन्ति: वासंती का संबोधन।
  • अर्थ: वासंती, तुम कठोर हो।

2. मर्मोद्घाटितशल्यसंघनैः

  • समास: बहुव्रीहि समास (मर्म + उद्घाटित + शल्य + संघनैः)।
    • मर्म: हृदय का संवेदनशील भाग;
    • उद्घाटित: उजागर या चोटिल;
    • शल्य: शूल या कांटा;
    • संघनैः: समूह।
  • अर्थ: हृदय-विदारक तीखे शूलों के समूह द्वारा।

3. स्फुटति हृदयं, ध्वंसते देहबन्धः

  • संधि-विच्छेद: स्फुटति + दयं + ध्वंसते + देह + बन्धः।
    • स्फुटति: टूटना;
    • हृदय: करुणा या हृदय;
    • ध्वंसते: नष्ट होना;
    • देहबन्धः: शरीर का बंधन।
  • अर्थ: हृदय टूट रहा है, शरीर का बंधन ढह रहा है।

4. शून्यं मन्ये जगदविरलज्वालम्

  • संधि-विच्छेद: शून्यं + मन्ये + जगत् + अविरल + ज्वालम्।
    • शून्यं: खाली;
    • अविरल: निरंतर;
    • ज्वालम्: ज्वाला।
  • अर्थ: यह संसार मुझे निरंतर जलती हुई ज्वाला जैसा शून्य प्रतीत हो रहा है।

5. सीदन्नन्धे तमसि विधुरो

  • संधि-विच्छेद: सीदन् + अन्धे + तमसि + विधुरः।
    • सीदन्: डूबना;
    • अन्धे: अंधकारमय;
    • तमसि: अज्ञान में;
    • विधुरः: दुखी।
  • अर्थ: अंधकारमय अज्ञान में डूबता हुआ दुखी अंतर्मन।

6. विष्वङ्मोहः स्थगयति

  • संधि-विच्छेद: विष्वङ् + मोहः + स्थगयति।
    • विष्वङ्: चारों ओर फैलकर;
    • मोहः: भ्रम या अज्ञान;
    • स्थगयति: रोक देता है।
  • अर्थ: चारों ओर फैला भ्रम मुझे रोक देता है।

व्याख्या:

इस अंश में सीता, राम और वासंती की भावनाओं का गहन चित्रण है।

  • सीता: वासंती को कठोर कहती हैं, क्योंकि वह बार-बार सीता और राम के दुःख को याद दिलाती हैं।
  • राम: अपनी हताशा, दुःख और मोह को प्रकट करते हुए कहते हैं कि उनका हृदय टूट रहा है, और वे संसार को शून्य और निरंतर जलती हुई ज्वाला के समान अनुभव कर रहे हैं।
  • मूर्छा: राम के अत्यधिक दुःख और मानसिक वेदना का प्रतीक है।

यह अंश शोक, प्रेम, और मानसिक पीड़ा की गहराई को दर्शाता है, जहाँ राम और सीता दोनों ही अपने दुःख को सहने में असमर्थ हैं।

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