उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 8 और 9 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण

Sooraj Krishna Shastri
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उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 8 और 9 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण
उत्तररामचरितम्, तृतीय अंक, श्लोक 8 और 9 का अर्थ, व्याख्या और शाब्दिक विश्लेषण

संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद


संस्कृत पाठ:
सीता:
भगवति! किं भणस्यपरिस्फुटेति।
स्वरसंयोगेन प्रत्यभिजानामि नन्वार्यपुत्रेणैवैतद्व्यातम्।

तमसा:
श्रूयते— तपस्यतः किल शूद्रस्य दण्डधारणार्थमैक्ष्वाको राजा दण्डकारण्यमागत’ इति।
सीता:
दिष्ट्या अपरिहीनधर्मः स राजा।
(नेपथ्ये)
यत्र द्रुमा अपि मृगा अपि बन्धवो मे
यानि प्रियासहचरश्चिरमध्यवात्सम्।
एतानि तानि बहुकन्दरनिर्झराणि
गोदावरीपरिसरस्य गिरेस्तटानि॥ ८ ॥

सीता:
(तमसा को आलिंगन करते हुए मूर्च्छित हो जाती है।)
दिष्ट्या कथं प्रभातचन्द्रमण्डलापाण्डरपरिक्षामदुर्बलेनाकारेण
निजसौम्यगम्भीरानुभावमात्रप्रत्यभिज्ञेय एवार्यपुत्रो भवति।
भगवति तमसे! धारय माम्।

तमसा:
वत्से! समाश्वसिहि समाश्वसिहि।
(नेपथ्ये)
अनेन पञ्चवटीदर्शनेन—
अन्तर्लीनस्य दुःखाग्नेरद्योद्दामं ज्वलिष्यतः।
उत्पीड इव धूमस्य मोहः प्रागावृणोति माम्॥ ९ ॥


हिन्दी अनुवाद:

सीता:
भगवती! क्या यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया?
स्वर के संयोजन से मैं पहचानती हूँ कि यह निश्चय ही आर्यपुत्र (राम) द्वारा कहा गया है।

तमसा:
सुनाई दे रहा है— "तपस्या कर रहे एक शूद्र को दण्ड देने के लिए
इक्ष्वाकु वंशीय राजा (राम) दण्डकारण्य में आए थे।"

सीता:
सौभाग्य है कि वह राजा धर्म से विमुख नहीं हुआ।

(नेपथ्य में स्वर सुनाई देता है):
जहाँ वृक्ष भी, पशु भी मेरे मित्र थे,
जहाँ प्रिय साथी बनकर मैं लंबे समय तक रही।
वे सभी स्थान, गुफाओं और झरनों से युक्त,
गोदावरी के किनारे इस पर्वत के तट पर स्थित हैं।

सीता:
(तमसा को आलिंगन करते हुए मूर्च्छित हो जाती है।)
सौभाग्य है कि कैसे आर्यपुत्र
अपने मृदुल और गंभीर व्यक्तित्व के कारण ही पहचाने जाते हैं,
भले ही वह पूर्ण चन्द्रमा के समान पाण्डुर,
दुर्बल और थके हुए प्रतीत हो रहे हों।
भगवती तमसे! मुझे संभालो।

तमसा:
वत्से! शांत हो जाओ, शांत हो जाओ।

(नेपथ्य में स्वर जारी है):
इस पञ्चवटी के दर्शन ने—
जो भीतर ही भीतर छिपी हुई दुःख की अग्नि को आज
तेज जलाने के लिए प्रेरित कर रही है।
धुएँ के दबाव के समान, मोह पहले ही मेरे चारों ओर छा गया है।


शब्द-विश्लेषण:

  1. स्वरसंयोगेन प्रत्यभिजानामि -

    • स्वरसंयोग - स्वर का संयोजन;
    • प्रत्यभिजानामि - पहचानना।
    • अर्थ: स्वर के संयोजन से पहचानती हूँ।
  2. दण्डधारणार्थम् -

    • दण्ड - दंड;
    • धारणार्थम् - धारण करने के उद्देश्य से।
    • अर्थ: दंड देने के उद्देश्य से।
  3. अपरिहीनधर्मः -

    • अपरिहीन - जो कम नहीं हुआ हो;
    • धर्मः - धर्म।
    • अर्थ: धर्म से विमुख नहीं हुआ।
  4. बहुकन्दरनिर्झराणि -

    • बहु - अनेक;
    • कन्दर - गुफा;
    • निर्झर - झरना।
    • अर्थ: अनेक गुफाओं और झरनों से युक्त।
  5. अन्तर्लीनस्य दुःखाग्नेः -

    • अन्तर्लीन - भीतर छिपा हुआ;
    • दुःखाग्नेः - दुःख की अग्नि।
    • अर्थ: भीतर छिपी हुई दुःख की अग्नि।
  6. उत्पीड इव धूमस्य -

    • उत्पीड - दबाव;
    • धूमस्य - धुएँ का।
    • अर्थ: धुएँ का दबाव।

व्याख्या:

यह अंश रामायण के गहरे भावनात्मक पहलुओं को चित्रित करता है। सीता की भावना राम के प्रति गहरे प्रेम और उनके वियोग के कारण हुए दुख को दर्शाती है। पञ्चवटी के दर्शन उनके भीतर शोक की भावना को फिर से जागृत कर देते हैं। तमसा उन्हें शांत करने का प्रयास करती हैं, जबकि नेपथ्य से आवाजें सीता के अतीत और उनके संघर्ष को स्मरण कराती हैं।

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