भागवत द्वितीय स्कन्ध, पञ्चम अध्याय(हिंदी अनुवाद)।यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध,पञ्चम अध्याय(हिंदी अनुवाद)के सभी श्लोकों का क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया है
भागवत द्वितीय स्कन्ध, पञ्चम अध्याय(हिंदी अनुवाद)
यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, पञ्चम अध्याय(हिंदी अनुवाद) के सभी श्लोकों का क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया गया है।
हिंदी अनुवाद
॥ नारद उवाच ॥
श्लोक 1:
देवदेव नमस्तेऽस्तु भूतभावन पूर्वज।
तद्विजानीहि यद् ज्ञानं आत्मतत्त्वनिदर्शनम्॥
अनुवाद:
नारद जी ने कहा: हे देवों के देव, भूतों की सृष्टि करने वाले, और आदिपुरुष! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कृपया मुझे वह ज्ञान समझाइए, जो आत्मतत्त्व को दर्शाता है।
श्लोक 2:
यद्रूपं यदधिष्ठानं यतः सृष्टमिदं प्रभो।
यत्संस्थं यत्परं यच्च तत्तत्त्वं वद तत्त्वतः॥
अनुवाद:
हे प्रभु! कृपया बताइए, इस सृष्टि का स्वरूप क्या है, इसका आधार क्या है, इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई, यह कहाँ स्थित है, और इसका अंतिम सत्य क्या है?
श्लोक 3:
सर्वं ह्येतद्भवान् वेद भूतभव्यभवत्प्रभुः।
करामलकवद्विश्वं विज्ञानावसितं तव॥
अनुवाद:
आप भूत, भविष्य और वर्तमान के प्रभु हैं। आपके लिए यह पूरा विश्व आपकी हथेली में रखे अमरूद के समान स्पष्ट है।
श्लोक 4:
यद् विज्ञानो यदाधारो यत्परस्त्वं यदात्मकः।
एकः सृजसि भूतानि भूतैरेवात्ममायया॥
अनुवाद:
आपकी चेतना, आधार, और परात्मा क्या है? आप एकमात्र होकर अपनी माया से भूतों के द्वारा इस सृष्टि की रचना कैसे करते हैं?
श्लोक 5:
आत्मन् भावयसे तानि न पराभावयन् स्वयम्।
आत्मशक्तिमवष्टभ्य ऊर्णनाभिरिवाक्लमः॥
अनुवाद:
आप अपनी आत्मशक्ति के द्वारा सृष्टि का निर्माण और पालन करते हैं, जैसे मकड़ी अपनी शक्ति से जाल बुनती है, बिना किसी कष्ट के।
श्लोक 6:
नाहं वेद परं ह्यस्मिन् नापरं न समं विभो।
नामरूपगुणैर्भाव्यं सदसत् किञ्चिदन्यतः॥
अनुवाद:
हे विभो! मैं इस संसार में किसी को न तो आपसे श्रेष्ठ, न समान, और न ही भिन्न देखता हूँ। यह सब नाम, रूप और गुणों से ही प्रकट होता है।
श्लोक 7:
स भवानचरद्घोरं यत्तपः सुसमाहितः।
तेन खेदयसे नस्त्वं पराशङ्कां च यच्छसि॥
अनुवाद:
आपने गहन तपस्या की है, और उसी के द्वारा हमारी सभी शंकाओं को दूर कर सकते हैं। कृपया हमें यह ज्ञान प्रदान करें।
श्लोक 8:
एतन्मे पृच्छतः सर्वं सर्वज्ञ सकलेश्वर।
विजानीहि यथैवेदं अहं बुध्येऽनुशासितः॥
अनुवाद:
हे सर्वज्ञ, सकल विश्व के स्वामी! मैं आपसे जो पूछ रहा हूँ, कृपया उसका उत्तर दें, जिससे मैं इस ज्ञान को समझ सकूँ।
॥ ब्रह्मोवाच ॥
श्लोक 9:
सम्यक् कारुणिकस्येदं वत्स ते विचिकित्सितम्।
यदहं चोदितः सौम्य भगवद्वीर्यदर्शने॥
अनुवाद:
ब्रह्मा जी ने कहा: हे वत्स, तुम्हारा यह प्रश्न उचित है। यह भगवान की महान शक्तियों को समझने का प्रयास है, और मैं इसे उत्तर देने के लिए प्रेरित हुआ हूँ।
श्लोक 10:
नानृतं तव तच्चापि यथा मां प्रब्रवीषि भोः।
अविज्ञाय परं मत्त एतावत्त्वं यतो हि मे॥
अनुवाद:
तुम्हारे वचनों में कोई असत्य नहीं है। परंतु, मेरी क्षमता केवल उतनी ही है, जितना भगवान की माया ने मुझे जानने की अनुमति दी है।
श्लोक 11:
येन स्वरोचिषा विश्वं रोचितं रोचयाम्यहम्।
यथार्कोऽग्निः यथा सोमो यथर्क्षग्रहतारकाः॥
अनुवाद:
जिस प्रकाश से यह विश्व प्रकाशित हुआ है, उसी प्रकाश से मैं इसे रचता हूँ, जैसे सूर्य, चंद्रमा और तारों का प्रकाश अपनी भूमिका निभाता है।
श्लोक 12:
तस्मै नमो भगवते वासुदेवाय धीमहि।
यन्मायया दुर्जयया मां वदन्ति जगद्गुरुम्॥
अनुवाद:
मैं वासुदेव भगवान को नमन करता हूँ, जिनकी अजेय माया के कारण लोग मुझे (ब्रह्मा को) जगत का गुरु मानते हैं।
श्लोक 13:
विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेऽमुया।
विमोहिता विकत्थन्ते ममाहमिति दुर्धियः॥
अनुवाद:
जिनकी माया के कारण यह जीव भ्रमित होकर स्वयं को "मैं" और "मेरा" कहता है, लेकिन उनके प्रकाश में स्थिर नहीं रह पाता।
श्लोक 14:
द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च।
वासुदेवात्परो ब्रह्मन् न चान्योऽर्थोऽस्ति तत्त्वतः॥
अनुवाद:
हे ब्रह्मन्! यह द्रव्य (पदार्थ), कर्म, काल, स्वभाव और जीव सब वासुदेव भगवान के अधीन हैं। वासुदेव से परे कोई अन्य सत्य नहीं है।
श्लोक 15:
नारायणपरा वेदा देवा नारायणाङ्गजाः।
नारायणपरालोका नारायणपरा मखाः॥
अनुवाद:
वेद, देवता, लोक और यज्ञ सभी नारायण के अधीन हैं। वे ही इन सबके परम आधार और आश्रय हैं।
श्लोक 16:
नारायणपरो योगो नारायणपरं तपः।
नारायणपरं ज्ञानं नारायणपरा गतिः॥
अनुवाद:
योग, तपस्या, ज्ञान और गति (अंतिम लक्ष्य) सभी नारायण के ही अधीन हैं। वे ही इन सभी के केंद्र हैं।
श्लोक 17:
तस्यापि द्रष्टुः ईशस्य कूटस्थस्याखिलात्मनः।
सृज्यं सृजामि सृष्टोऽहं ईक्षयैवाभिचोदितः॥
अनुवाद:
मैं स्वयं भी उस भगवान नारायण के आदेश पर सृष्टि की रचना करता हूँ, जो द्रष्टा, ईश्वर और अखिल आत्मा के रूप में स्थित हैं।
श्लोक 18:
सत्त्वं रजस्तम इति निर्गुणस्य गुणास्त्रयः।
स्थिति सर्गनिरोधेषु गृहीता मायया विभोः॥
अनुवाद:
सत्त्व, रज और तम—ये तीन गुण भगवान की माया से उत्पन्न होते हैं और सृष्टि, स्थिति और संहार में कार्य करते हैं।
श्लोक 19:
कार्यकारणकर्तृत्वे द्रव्यज्ञानक्रियाश्रयाः।
बध्नन्ति नित्यदा मुक्तं मायिनं पुरुषं गुणाः॥
अनुवाद:
ये गुण, जो द्रव्य, ज्ञान और क्रिया के आधार हैं, स्वाभाविक रूप से भगवान को नहीं बाँधते, क्योंकि वे सदा मुक्त और मायातीत हैं।
श्लोक 20:
स एष भगवान् लिङ्गैः त्रिभिरेतैरधोक्षजः।
स्वलक्षितगतिर्ब्रह्मन् सर्वेषां मम चेश्वरः॥
अनुवाद:
वही भगवान अधोक्षज (इंद्रियों से परे) इन तीन गुणों के द्वारा सृष्टि करते हैं। वे मेरे और सभी के स्वामी हैं।
श्लोक 21:
कालं कर्मस्वभावं च मायेशो मायया स्वया।
आत्मन् यदृच्छया प्राप्तं विबुभूषुरुपाददे॥
अनुवाद:
भगवान अपनी माया और स्वतंत्र इच्छा के द्वारा काल, कर्म और स्वभाव को नियंत्रित करते हैं। वे इसे अपनी इच्छा से स्वीकार करते हैं।
श्लोक 22:
कालाद्गुणव्यतिकरः परिणामः स्वभावतः।
कर्मणो जन्म महतः पुरुषाधिष्ठितात् अभूत्॥
अनुवाद:
काल के प्रभाव से गुणों का संयोग और परिवर्तन होता है, जिससे महत (ब्रह्मांडीय बुद्धि) और उससे कर्मों का जन्म होता है।
श्लोक 23:
महतस्तु विकुर्वाणाद्रजः सत्त्वोपबृंहितात्।
तमः प्रधानस्त्वभवद्द्रव्यज्ञानक्रियात्मकः॥
अनुवाद:
महत तत्व से रजोगुण और सत्त्वगुण के सहयोग से तामस प्रधान तत्व उत्पन्न हुआ, जो द्रव्य, ज्ञान और क्रिया का आधार है।
श्लोक 24:
सोऽहङ्कार इति प्रोक्तो विकुर्वन्समभूत्त्रिधा।
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेति यद्भिदा।
द्रव्यशक्तिः क्रियाशक्तिः ज्ञानशक्तिरिति प्रभो॥
अनुवाद:
इसे अहंकार कहा जाता है, जो तीन प्रकार का होता है—वैकारिक (सत्त्व), तैजस (रजस) और तामस। यह द्रव्य, क्रिया और ज्ञान की शक्तियों का स्रोत है।
श्लोक 25:
तामसादपि भूतादेः विकुर्वाणादभून्नभः।
तस्य मात्रा गुणः शब्दो लिङ्गं यद्द्रष्टृदृश्ययोः॥
अनुवाद:
तामस अहंकार से भूत (महाभूत) तत्व उत्पन्न हुए, जिनमें आकाश प्रमुख है। आकाश का गुण शब्द है, जो द्रष्टा और दृश्य का संबंध स्थापित करता है।
श्लोक 26:
नभसोऽथ विकुर्वाणादभूत् स्पर्शगुणोऽनिलः।
परान्वयाच्छब्दवांश्च प्राण ओजः सहो बलम्॥
अनुवाद:
आकाश के विकास से वायु उत्पन्न हुई, जिसका गुण स्पर्श है। वायु में शब्द, प्राण, शक्ति, सहनशीलता और बल भी विद्यमान हैं।
श्लोक 27:
वायोरपि विकुर्वाणात् कालकर्मस्वभावतः।
उदपद्यत तेजो वै रूपवत् स्पर्शशब्दवत्॥
अनुवाद:
वायु के काल, कर्म और स्वभाव से तेज (अग्नि) उत्पन्न हुई, जिसमें रूप, स्पर्श और शब्द के गुण मौजूद हैं।
श्लोक 28:
तेजसस्तु विकुर्वाणाद् आसीदम्भो रसात्मकम्।
रूपवत्स्पर्शवच्चाम्भो घोषवच्च परान्वयात्॥
अनुवाद:
तेज के विकास से जल (अंभ) उत्पन्न हुआ, जिसमें रस, रूप, स्पर्श और शब्द जैसे गुण विद्यमान हैं।
श्लोक 29:
विशेषस्तु विकुर्वाणादम्भसो गन्धवानभूत्।
परान्वयाद् रसस्पर्श शब्दरूपगुणान्वितः॥
अनुवाद:
जल के विशेष विकास से पृथ्वी उत्पन्न हुई, जिसका गुण गंध है। साथ ही, उसमें रस, स्पर्श, शब्द और रूप के गुण भी उपस्थित हैं।
श्लोक 30:
वैकारिकान्मनोजज्ञे देवावैकारिका दश।
दिग्वातार्क प्रचेतोऽश्विवह्नीन्द्रोपेन्द्रमित्रकाः॥
अनुवाद:
वैकारिक (सत्त्वगुण) अहंकार से मन और दस देवता उत्पन्न हुए। ये देवता हैं—दिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनी कुमार, अग्नि, इंद्र, उपेंद्र और मित्र।
श्लोक 31:
तैजसात्तु विकुर्वाणादिन्द्रियाणि दशाभवन्।
ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिः बुद्धिः प्राणश्च तैजसौ।
श्रोत्रं त्वग्घ्राणदृग्जिह्वावाग्दोर्मेढ्राङ्घ्रिपायवः॥
अनुवाद:
तैजस (रजोगुण) अहंकार से दस इंद्रियां उत्पन्न हुईं—पाँच ज्ञानेंद्रियां (कान, त्वचा, नाक, आँख और जीभ) और पाँच कर्मेंद्रियां (वाणी, हाथ, पैर, गुप्तेंद्रिय और गुदा)। साथ ही, बुद्धि, प्राण, ज्ञान और क्रिया की शक्तियां भी उत्पन्न हुईं।
श्लोक 32:
यदैतेऽसङ्गता भावा भूतेन्द्रियमनो गुणाः।
यदाऽऽयतननिर्माणे न शेकुर्ब्रह्मवित्तम॥
अनुवाद:
भूत, इंद्रियां, मन और गुण जब अलग-अलग थे, तो वे किसी भी कार्य के लिए सक्षम नहीं थे। उनका संयोजन नहीं हो पा रहा था।
श्लोक 33:
तदा संहत्य चान्योन्यं भगवच्छक्ति चोदिताः।
सदसत्त्वमुपादाय चोभयं ससृजुर्ह्यदः॥
अनुवाद:
तब भगवान की शक्ति से प्रेरित होकर, ये सभी तत्त्व परस्पर मिल गए और उन्होंने स्थूल और सूक्ष्म रूप में सृष्टि का निर्माण किया।
श्लोक 34:
वर्षपूगसहस्रान्ते तदण्डमुदकेशयम्।
कालकर्मस्वभावस्थो जीवोऽजीवमजीवयत्॥
अनुवाद:
हजारों वर्षों तक, यह ब्रह्मांड अंडाकार रूप में जल पर स्थित रहा। भगवान की शक्ति से जीव ने इसमें चेतना का संचार किया।
श्लोक 35:
स एव पुरुषः तस्मादण्डं निर्भिद्य निर्गतः।
सहस्रोर्वङ्घ्रि बाह्वक्षः सहस्राननशीर्षवान्॥
अनुवाद:
वही पुरुष इस अंड से बाहर निकला, जिसकी हजारों भुजाएं, पैर, आंखें, सिर और मुख थे।
श्लोक 36:
यस्येहा वयवैर्लोकान् कल्पयन्ति मनीषिणः।
कट्यादिभिरधः सप्त सप्तोर्ध्वं जघनादिभिः॥
अनुवाद:
मनीषी पुरुष के अंगों के आधार पर लोकों की कल्पना करते हैं। कटि से नीचे सात लोक (पाताल) हैं और कटि से ऊपर सात स्वर्ग लोक हैं।
श्लोक 37:
पुरुषस्य मुखं ब्रह्म क्षत्रमेतस्य बाहवः।
ऊर्वोर्वैश्यो भगवतः पद्भ्यां शूद्रोऽभ्यजायत॥
अनुवाद:
पुरुष के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्र प्रकट हुए।
श्लोक 38:
भूर्लोकः कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः।
हृदा स्वर्लोक उरसा महर्लोको महात्मनः॥
अनुवाद:
पुरुष के चरणों से भूरलोक, नाभि से भुवर्लोक, हृदय से स्वर्लोक और उरु (छाती) से महर्लोक उत्पन्न हुआ।
श्लोक 39:
ग्रीवायां जनलोकोऽस्य तपोलोकः स्तनद्वयात्।
मूर्धभिः सत्यलोकस्तु ब्रह्मलोकः सनातनः॥
अनुवाद:
पुरुष की ग्रीवा से जनलोक, स्तनों से तपोलोक और मस्तिष्क से सत्यलोक या ब्रह्मलोक उत्पन्न हुआ।
श्लोक 40:
तत्कट्यां चातलं कॢप्तं ऊरूभ्यां वितलं विभोः।
जानुभ्यां सुतलं शुद्धं जङ्घाभ्यां तु तलातलम्॥
अनुवाद:
पुरुष की कटि से अतल, जांघों से वितल, घुटनों से सुतल और पिंडलियों से तलातल लोक उत्पन्न हुए।
श्लोक 41:
महातलं तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम्।
पातालं पादतलत इति लोकमयः पुमान्॥
अनुवाद:
गुल्फ से महातल, चरणों से रसातल और तलवों से पाताल लोक उत्पन्न हुआ। इस प्रकार पुरुष समस्त लोकों का स्वरूप है।
श्लोक 42:
भूर्लोकः कल्पितः पद्भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः।
स्वर्लोकः कल्पितो मूर्ध्ना इति वा लोककल्पना॥
अनुवाद:
चरणों से भूरलोक, नाभि से भुवर्लोक और मस्तिष्क से स्वर्लोक की कल्पना की गई है।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे पञ्चमोऽध्यायः॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध का पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।
इस प्रकार यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, पञ्चम अध्याय(हिंदी अनुवाद) के सभी श्लोकों का क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया गया ।
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