भागवत द्वितीय स्कन्ध, षष्ठ अध्याय(हिंदी अनुवाद)

Sooraj Krishna Shastri
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भागवत द्वितीय स्कन्ध, षष्ठ अध्याय(हिंदी अनुवाद)
भगवान के 24 अवतार, जिसमें श्रीकृष्ण को प्रमुखता से दिखाया गया है

भागवत द्वितीय स्कन्ध, षष्ठ अध्याय(हिंदी अनुवाद)

यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, षष्ठ अध्याय(हिंदी अनुवाद) के सभी श्लोकों का क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया गया है।

॥ ब्रह्मोवाच ॥


श्लोक 1:

वाचां वह्नेर्मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्तधातवः।
हव्यकव्यामृतान्नानां जिह्वा सर्वरसस्य च॥

अनुवाद:
अग्नि (वह्नि) के मुख को वाणी का स्थान बताया गया है। यह सभी छंदों (वैदिक मंत्रों) का केंद्र है। सात धातुएं, हव्य और कव्य, तथा अमृत और अन्न जिह्वा का पोषण करते हैं।


श्लोक 2:

सर्वाasunutां च वायोश्च तत् नासे परमायणे।
अश्विनोः ओषधीनां च घ्राणो मोद प्रमोदयोः॥

अनुवाद:
सभी प्राणों और वायु का स्थान नासिका में है। अश्विनी कुमारों और औषधियों का संबंध भी नासिका से है, जो गंध के आनंद का अनुभव कराती है।


श्लोक 3:

रूपाणां तेजसां चक्षुः दिवः सूर्यस्य चाक्षिणी।
कर्णौ दिशां च तीर्थानां श्रोत्रं आकाश शब्दयोः।
तद्‍गात्रं वस्तुसाराणां सौभगस्य च भाजनम्॥

अनुवाद:
आंखें रूप (दृश्य) और तेज की अभिव्यक्ति का माध्यम हैं और सूर्य का प्रतिबिंब हैं। कान दिशाओं और तीर्थों के साथ आकाश और ध्वनि के गुणों का अनुभव कराते हैं। शरीर वस्त्र और सौंदर्य का स्थान है।


श्लोक 4:

त्वगस्य स्पर्शवायोश्च सर्वमेधस्य चैव हि।
रोमाणि उद्भिज्जजातीनां यैर्वा यज्ञस्तु सम्भृतः॥

अनुवाद:
त्वचा स्पर्श और वायु का स्थान है और यह सभी यज्ञों का आधार है। त्वचा के रोम-रोम से वनस्पतियां और औषधियां उत्पन्न होती हैं, जिनसे यज्ञ संपन्न होता है।


श्लोक 5:

केशश्मश्रुनखान्यस्य शिलालोहाभ्रविद्युताम्।
बाहवो लोकपालानां प्रायशः क्षेमकर्मणाम्॥

अनुवाद:
बाल, दाढ़ी और नाखून पर्वत, धातु, बादल और विद्युत का प्रतिनिधित्व करते हैं। भगवान के भुजाएं लोकपालों का स्थान हैं, जो लोकों की रक्षा करते हैं।


श्लोक 6:

विक्रमो भूर्भुवः स्वश्च क्षेमस्य शरणस्य च।
सर्वकाम वरस्यापि हरेश्चरण आस्पदम्॥

अनुवाद:
भगवान के चरणों में भूर, भुवः और स्वः लोकों का आश्रय है। वे सभी प्रकार के सुरक्षा, शरण और वरदान के केंद्र हैं।


श्लोक 7:

अपां वीर्यस्य सर्गस्य पर्जन्यस्य प्रजापतेः।
पुंसः शिश्न उपस्थस्तु प्रजात्यानन्द निर्वृतेः॥

अनुवाद:
जल का वीर्य, सृष्टि की उत्पत्ति, पर्जन्य (वृष्टि) और प्रजापति भगवान की शक्ति का प्रतीक है। प्रजनन सुख और आनंद का स्रोत है।


श्लोक 8:

पायुर्यमस्य मित्रस्य परिमोक्षस्य नारद।
हिंसाया निर्ऋतेर्मृत्यो निरयस्य गुदः स्मृतः॥

अनुवाद:
गुद (पायुपथ) यमराज और मित्र का स्थान है। यह परिमोचन (मल त्याग) का स्थान है। हिंसा, निर्ऋति और मृत्यु का भी यही स्थान माना गया है।


श्लोक 9:

पराभूतेः अधर्मस्य तमसश्चापि पश्चिमः।
नाड्यो नदनदीनां च गोत्राणां अस्थि संहतिः॥

अनुवाद:
अधर्म, तम और विनाश का स्थान भगवान की पीठ है। नाड़ियां नदियों और धाराओं का प्रतीक हैं। हड्डियों का ढांचा पर्वतों का प्रतीक है।


श्लोक 10:

अव्यक्त रससिन्धूनां भूतानां निधनस्य च।
उदरं विदितं पुंसो हृदयं मनसः पदम्॥

अनुवाद:
उदर (पेट) अव्यक्त रसों और सृष्टि की समाप्ति का स्थान है। हृदय मन का आधार है।


श्लोक 11:

धर्मस्य मम तुभ्यं च कुमाराणां भवस्य च।
विज्ञानस्य च सत्त्वस्य परस्याऽऽत्मा परायणम्॥

अनुवाद:
धर्म, मुझ (ब्रह्मा), तुम्हारे (नारद), कुमारों और भगवान शंकर का स्थान भगवान का आत्मा है। वह ज्ञान, सत्त्व और परम का निवास है।


श्लोक 12:

अहं भवान् भवश्चैव त इमे मुनयोऽग्रजाः।
सुरासुर नरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः॥

अनुवाद:
मैं (ब्रह्मा), तुम (नारद), भगवान शिव, ये मुनिगण, देवता, असुर, मनुष्य, नाग, पक्षी, पशु और सरीसृप सभी भगवान के अंग हैं।


श्लोक 13:

गन्धर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः।
पशवः पितरः सिद्धा विद्याध्राश्चारणाद्रुमाः॥

अनुवाद:
गंधर्व, अप्सराएं, यक्ष, राक्षस, भूत-प्रेत, सर्प, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण और वृक्ष सभी भगवान के अंग माने गए हैं।


श्लोक 14:

अन्ये च विविधा जीवाः जलस्थल नभौकसः।
ग्रहर्क्ष केतवस्ताराः तडितः स्तनयित्‍नवः॥

अनुवाद:
अन्य प्रकार के जीव-जंतु जो जल, स्थल और आकाश में रहते हैं; ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु, तारे, बिजली और मेघ सभी भगवान की रचना हैं।


श्लोक 15:

सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत्।
तेनेदमावृतं विश्वं वितस्तिमधितिष्ठति॥

अनुवाद:
यह भूत, भविष्य और वर्तमान में जो भी है, वह सब भगवान पुरुष ही हैं। उन्होंने ही इस संपूर्ण विश्व को घेर रखा है और उसे नियंत्रित करते हैं।


श्लोक 16:

स्वधिष्ण्यं प्रतपन् प्राणो बहिश्च प्रतपत्यसौ।
एवं विराजं प्रतपन् तपत्यन्तः बहिः पुमान्॥

अनुवाद:
भगवान का प्राण आंतरिक और बाहरी दोनों प्रकार के संसार में तेजस्वी रूप से प्रकाशित है। यही भगवान पुरुष आंतरिक और बाहरी दोनों रूपों में तपते हैं।


श्लोक 17:

सोऽमृतस्या भयस्येशो मर्त्यं अन्नं यदत्यगात्।
महिमा एष ततो ब्रह्मन् पुरुषस्य दुरत्ययः॥

अनुवाद:
जो भगवान अमृत और अभय के स्वामी हैं, उन्होंने नश्वर अन्न ग्रहण किया। यह पुरुष का महान प्रभाव है, जिसे समझ पाना कठिन है।


श्लोक 18:

पादेषु सर्वभूतानि पुंसः स्थितिपदो विदुः।
अमृतं क्षेममभयं त्रिमूर्ध्नोऽधायि मूर्धसु॥

अनुवाद:
भगवान पुरुष के चरणों में सभी प्राणियों का निवास स्थान है। उनके तीन सिरों में अमृत, शांति और अभय स्थापित हैं।


श्लोक 19:

पादास्त्रयो बहिश्चासन् अप्रजानां य आश्रमाः।
अन्तः त्रिलोक्यास्त्वपरो गृहमेधोऽबृहद्व्रतः॥

अनुवाद:
पुरुष के चरण तीन बाहरी आश्रमों (वृहद्व्रत आश्रम) का प्रतीक हैं। त्रिलोक उनके भीतर स्थित है, और गृहस्थाश्रम उनका आंतरिक स्वरूप है।


श्लोक 20:

सृती विचक्रमे विश्वङ् साशनानशने उभे।
यदविद्या च विद्या च पुरुषस्तूभयाश्रयः॥

अनुवाद:
भगवान पुरुष ही सृष्टि के संचालक और भोग तथा त्याग दोनों के आधार हैं। वे विद्या (ज्ञान) और अविद्या (माया) के भी आश्रय हैं।


श्लोक 21:

यस्मादण्डं विराड्जज्ञे भूतेन्द्रिय गुणात्मकः।
तद्द्रव्यं अत्यगाद्विश्वं गोभिः सूर्य इवाऽतपन्॥

अनुवाद:
भगवान पुरुष से यह अंड रूपी ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ, जो भूत, इंद्रिय और गुणों का समन्वय है। उनके तेज ने इस ब्रह्मांड को वैसे ही प्रकाशित किया, जैसे सूर्य अपनी किरणों से प्रकाश फैलाता है।


श्लोक 22:

यदास्य नाभ्यान्नलिनादहमासं महात्मनः।
नाविन्दन् यज्ञसम्भारान् पुरुषावयवादृते॥

अनुवाद:
जब मैं (ब्रह्मा) उस महात्मा पुरुष की नाभि से उत्पन्न कमल में स्थित हुआ, तो मैंने पाया कि यज्ञ के लिए आवश्यक सभी सामग्री उन्हीं के अंगों से उत्पन्न होती है।


श्लोक 23:

तेषु यज्ञस्य पशवः सवनस्पतयः कुशाः।
इदं च देवयजनं कालश्चोरुगुणान्वितः॥

अनुवाद:
यज्ञ के लिए पशु, वनस्पति, कुश, यज्ञस्थल, और काल के विभिन्न गुण सभी भगवान के अंगों से उत्पन्न हुए।


श्लोक 24:

वस्तूनि ओषधयः स्नेहा रसलोहमृदोजलम्।
ऋचो यजूंषि सामानि चातुर्होत्रं च सत्तम॥

अनुवाद:
यज्ञ के लिए औषधियां, तेल, रस, धातु, मिट्टी, जल, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और चारों प्रकार के यज्ञ कर्म भगवान पुरुष के अंगों से उत्पन्न हुए।


श्लोक 25:

नामधेयानि मंत्राश्च दक्षिणाश्च व्रतानि च।
देवतानुक्रमः कल्पः सङ्कल्पः तन्त्रमेव च॥

अनुवाद:
यज्ञ में प्रयोग होने वाले नाम, मंत्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओं का अनुक्रम, कल्प, संकल्प और तंत्र सभी भगवान पुरुष से उत्पन्न हुए।


श्लोक 26:

गतयो मतयश्चैव प्रायश्चित्तं समर्पणम्।
पुरुषा अवयवैः एते संभाराः संभृता मया॥

अनुवाद:
यज्ञ में प्रयुक्त मार्ग, विचारधारा, प्रायश्चित्त और समर्पण, ये सभी भगवान पुरुष के अंगों से उत्पन्न हुए। मैंने इन्हें उनके अंगों से प्राप्त किया।


श्लोक 27:

इति सम्भृतसंभारः पुरुषा अवयवैरहम्।
तमेव पुरुषं यज्ञं तेनैवा यजमीश्वरम्॥

अनुवाद:
इस प्रकार भगवान पुरुष के अंगों से सभी यज्ञ सामग्रियां उत्पन्न हुईं। उसी पुरुष को यज्ञ के रूप में मानकर, मैं उसी के द्वारा उनकी पूजा करता हूँ।


श्लोक 28:

ततस्ते भ्रातर इमे प्रजानां पतयो नव।
अयजन् व्यक्तमव्यक्तं पुरुषं सुसमाहिताः॥

अनुवाद:
उसके बाद, प्रजापतियों के नौ भाइयों ने अपने मन को एकाग्र करके व्यक्त और अव्यक्त स्वरूप वाले पुरुष की पूजा की।


श्लोक 29:

ततश्च मनवः काले ईजिरे ऋषयोऽपरे।
पितरो विबुधा दैत्या मनुष्याः क्रतुभिर्विभुम्॥

अनुवाद:
उसके पश्चात मनु, ऋषि, पितर, देवता, दैत्य और मनुष्य सभी ने अपने-अपने समय पर यज्ञों के द्वारा भगवान की आराधना की।


श्लोक 30:

नारायणे भगवति तदिदं विश्वमाहितम्।
गृहीत मायोरुगुणः सर्गादौ अगुणः स्वतः॥

अनुवाद:
भगवान नारायण ही वह स्थान हैं, जिसमें यह संपूर्ण विश्व स्थित है। वे सृष्टि के आरंभ में तीनों गुणों को धारण करते हैं, लेकिन स्वयं गुणों से परे और स्वतंत्र रहते हैं।


श्लोक 31:

सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः।
विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक्॥

अनुवाद:
मैं भगवान के आदेश से सृष्टि करता हूँ, भगवान शंकर उनके आदेश से संहार करते हैं, और त्रिगुणों को धारण करने वाले भगवान पुरुष संपूर्ण ब्रह्मांड की रक्षा करते हैं।


श्लोक 32:

इति तेऽभिहितं तात यथेदमनुपृच्छसि।
नान्यद्भगवतः किञ्चिद्भाव्यं सदसदात्मकम्॥

अनुवाद:
हे तात! मैंने तुम्हें वह सब बताया, जो तुमने पूछा। भगवान के अलावा कोई भी सत्य या असत्य वस्तु इस संसार में स्वतंत्र रूप से विद्यमान नहीं है।


श्लोक 33:

न भारती मेऽङ्ग मृषोपलक्ष्यते।
न वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गतिः।
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे।
यन्मे हृदौत्कण्ठ्ययवता धृतो हरिः॥

अनुवाद:
हे नारद! मेरी वाणी कभी मिथ्या नहीं होती, मेरा मन कभी असत्य की ओर नहीं जाता, और मेरी इंद्रियां कभी गलत मार्ग पर नहीं चलतीं, क्योंकि मेरा हृदय भगवान हरि के प्रेम से भरा हुआ है।


श्लोक 34:

सोऽहं समाम्नायमयः तपोमयः।
प्रजापतीनां अभिवन्दितः पतिः।
आस्थाय योगं निपुणं समाहितः।
तं नाध्यगच्छं यत आत्मसंभवः॥

अनुवाद:
मैं, जो वेद और तपस्या का साकार रूप हूँ, प्रजापतियों का स्वामी हूँ, और योग में निपुण होकर ध्यान करता हूँ, फिर भी मैं उस आत्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ सका।


श्लोक 35:

नतोऽस्म्यहं तच्चरणं समीयुषां।
भवच्छिदं स्वस्त्ययनं सुमङ्गलम्।
योह्यात्ममाया विभवं स्म पर्यगाद्।
यथा नभः स्वान्तमथापरे कुतः॥

अनुवाद:
मैं उस भगवान के चरणों में प्रणाम करता हूँ, जो संसार के बंधनों को काटने वाले, कल्याणकारी और मंगलकारी हैं। वे अपनी माया से अपनी महिमा प्रकट करते हैं, जैसे आकाश अपनी सीमाओं को फैलाता है।


श्लोक 36:

नाहं न यूयं यदृतां गतिं विदुः।
न वा मदेवः किमुता परे सुराः।
तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं।
विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे॥

अनुवाद:
न मैं, न तुम और न देवता उनकी वास्तविक गति को समझ सकते हैं। हम उनकी माया से मोहित होकर इस सृष्टि को आत्मा के समान मान लेते हैं।


श्लोक 37:

यस्यावतारकर्माणि गायन्ति ह्यस्मदादयः।
न यं विदन्ति तत्त्वेन तस्मै भगवते नमः॥

अनुवाद:
जिनके अवतार और कर्मों की महिमा हम जैसे लोग गाते हैं, लेकिन जिनका वास्तविक स्वरूप समझ पाना असंभव है, उन भगवान को मेरा नमन है।


श्लोक 38:

स एष आद्यः पुरुषः कल्पे कल्पे सृजत्यजः।
आत्मात्मन्यात्मनाऽऽत्मानं संयच्छति च पाति च॥

अनुवाद:
वही आदिपुरुष प्रत्येक कल्प में सृष्टि करते हैं, उसे आत्मा में स्थिर करते हैं, और स्वयं उसकी रक्षा करते हैं।


श्लोक 39:

विशुद्धं केवलं ज्ञानं प्रत्यक् सम्यगवस्थितम्।
सत्यं पूर्णमनाद्यन्तं निर्गुणं नित्यमद्वयम्॥

अनुवाद:
वे भगवान शुद्ध, केवल ज्ञानस्वरूप, सदा आत्मस्थित, सत्य, पूर्ण, अनादि-अनंत, निर्गुण और नित्य अद्वितीय हैं।


श्लोक 40:

ऋषे विदन्ति मुनयः प्रशान्तात्मेन्द्रियाशयाः।
यदा तद् एव असत्तर्कैः तिरोधीयेत विप्लुतम्॥

अनुवाद:
वे भगवान ऋषियों और मुनियों द्वारा समझे जा सकते हैं, जो शांत चित्त, इंद्रियों और इच्छाओं को वश में रखते हैं। लेकिन उनका सत्य असत् तर्कों और भ्रम से छिपा रहता है।


श्लोक 41:

आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य।
कालः स्वभावः सदसन्मनश्च।
द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि।
विराट् स्वराट् स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः॥

अनुवाद:
परम भगवान का पहला अवतार पुरुष है, जिसमें काल, स्वभाव, सत-असत, मन, द्रव्य, विकार, गुण, इंद्रियां, विराट और चर-अचर सभी स्थित हैं।


श्लोक 42:

अहं भवो यज्ञ इमे प्रजेशा।
दक्षादयो ये भवदादयश्च।
स्वर्लोकपालाः खगलोकपाला।
नृलोकपालास्तललोकपालाः॥

अनुवाद:
मैं (ब्रह्मा), भगवान शिव, यज्ञ, प्रजापति, दक्ष और उनके जैसे अन्य देवता, स्वर्ग, आकाश और पृथ्वी के लोकपाल भगवान पुरुष के ही स्वरूप हैं।


श्लोक 43:

गन्धर्वविद्याधरचारणेशा।
ये यक्षरक्षोरगनागनाथाः।
ये वा ऋषीणां ऋषभाः पितॄणां।
दैत्येन्द्रसिद्धेश्वरदानवेन्द्राः॥

अनुवाद:
गंधर्व, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, नाग, ऋषि, पितर, दैत्यराज, सिद्ध और अन्य सभी लोकों के स्वामी भी भगवान पुरुष की शक्ति से संचालित हैं।


श्लोक 44:

अन्ये च ये प्रेतपिशाचभूत।
कूष्माण्ड यादोमृगपक्ष्यधीशाः।
यत्किञ्च लोके भगवन् महस्वत्।
ओजः सहस्वद्बलवत् क्षमावत्॥

अनुवाद:
प्रेत, पिशाच, भूत, कूष्मांड, मछली, पशु, पक्षी और जो कुछ भी इस संसार में ओजस्वी, शक्तिशाली और सहनशील है, वह भगवान पुरुष की महिमा है।


श्लोक 45:

श्री ह्री विभूत्यात्मवदद्भुतार्णं।
तत्त्वं परं रूपवदस्वरूपम्।
प्राधान्यतोयानृष आमनन्ति।
लीलावतारान् पुरुषस्य भूम्नः॥

अनुवाद:
श्री, ह्री, विभूति, आत्मा और अद्भुत सागर के रूप में भगवान पुरुष का जो तत्त्व है, वह उनका परम रूप है। ऋषि उनकी प्रधानता को लीलावतार के रूप में वर्णित करते हैं।


श्लोक 46:

आपीयतां कर्णकषायशोषान्।
अनुक्रमिष्ये त इमान् सुपेशान्॥

अनुवाद:
हे नारद! जिन श्रोताओं के कान भगवान की कथा से तृप्त नहीं हुए हैं, उनके लिए मैं इन दिव्य कथाओं का वर्णन करना जारी रखूंगा।


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे षष्ठोऽध्यायः॥

इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध का षष्ठ अध्याय पूर्ण हुआ।


 इस प्रकार भागवत द्वितीय स्कन्ध, षष्ठ अध्याय(हिंदी अनुवाद) के सभी श्लोकों का क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया गया । यदि आप इसे और विस्तार में जानना चाहते हैं तो कृपया कमेंट में बताएं।

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