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भागवत द्वितीय स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिंदी अनुवाद)

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भागवत द्वितीय स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिंदी अनुवाद)।यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध,सप्तम अध्याय(हिंदी अनुवाद)के सभी श्लोकों का क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया है

 

भागवत द्वितीय स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिंदी अनुवाद)
कृष्ण सृष्टि की रचना करते हुए, अद्भुत चित्र

भागवत द्वितीय स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिंदी अनुवाद)

यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिंदी अनुवाद) के सभी श्लोकों का क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया गया है।

॥ ब्रह्मोवाच ॥


श्लोक 1:

यत्रोद्यतः क्षितितलोद्धरणाय बिभ्रत्।
क्रौडीं तनुं सकलयज्ञमयीमनन्तः।
अन्तर्महार्णव उपागतमादिदैत्यं।
तं दंष्ट्रयाऽद्रिमिव वज्रधरो ददार॥

अनुवाद:
जब भगवान अनंत ने पृथ्वी को जल के भीतर से उठाने के लिए वराह रूप धारण किया, तो उन्होंने अपनी दंष्ट्रा से जल में छिपे हिरण्याक्ष को उसी तरह विदीर्ण कर दिया, जैसे इंद्र अपने वज्र से पर्वत को।


श्लोक 2:

जातो रुचेरजनयत् सुयमान् सुयज्ञ।
आकूति सूनुः अमरान् अथ दक्षिणायाम्।
लोकत्रयस्य महतीं अहरद्यदार्तिं।
स्वायम्भुवेन मनुना हरिरित्यनूक्तः॥

अनुवाद:
रुचि के पुत्र भगवान सुयज्ञ ने अपने धर्मपत्नी आकूति से अमरगणों को उत्पन्न किया। उन्होंने स्वायंभुव मनु के साथ मिलकर तीनों लोकों की बड़ी पीड़ा को हर लिया और "हरि" कहलाए।


श्लोक 3:

जज्ञे च कर्दमगृहे द्विज देवहूत्यां।
स्त्रीभिः समं नवभिरात्मगतिं स्वमात्रे।
ऊचे ययाऽत्मशमलं गुणसङ्गपङ्कम्।
अस्मिन्विधूय कपिलस्य गतिं प्रपेदे॥

अनुवाद:
कर्दम ऋषि के घर में, देवहूति के गर्भ से भगवान कपिल का जन्म हुआ। उन्होंने अपनी माता को आत्मज्ञान प्रदान किया, जिससे वह गुणों के बंधन से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त हुईं।


श्लोक 4:

अत्रेः अपत्यमभिकाङ्क्षत आह तुष्टो।
दत्तो मयाहमिति यद्भगवान् स दत्तः।
यत्पादपङ्कजपराग पवित्रदेहा।
योगर्द्धिमा पुरुभयीं यदुहैहयाद्याः॥

अनुवाद:
अत्रि ऋषि की प्रार्थना पर प्रसन्न होकर भगवान ने "दत्तात्रेय" रूप में जन्म लिया। उनके चरणों की धूल से शुद्ध शरीर वाले यदु, हैहय आदि राजा महान ऐश्वर्य और सिद्धि प्राप्त करने में समर्थ हुए।


श्लोक 5:

तप्तं तपो विविधलोकसिसृक्षया मे।
आदौ सनात्स्वतपसः स चतुःसनोऽभूत्।
प्राक्कल्प संप्लवविनष्टमिह आत्मतत्त्वं।
सम्यग्जगाद मुनयो यदचक्षतात्मन्॥

अनुवाद:
सृष्टि रचने की इच्छा से मेरे तप से भगवान सनकादि (चतुःसन) के रूप में प्रकट हुए। प्रलय के बाद उन्होंने आत्मतत्त्व का उपदेश किया, जिसे मुनियों ने समझा और प्रचारित किया।


श्लोक 6:

धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां।
नारायणो नर इति स्वतपः प्रभावः।
दृष्ट्वात्मनो भगवतो नियमावलेपं।
देव्यस्त्वनङ्गपृतना घटि तुं न शेकुः॥

अनुवाद:
धर्म की पत्नी (दक्ष की कन्या) मूर्ति के गर्भ से नारायण और नर का जन्म हुआ। उनके तपोबल को देखकर कामदेव की सेना भी उनका ध्यान विचलित नहीं कर सकी।


श्लोक 7:

कामं दहन्ति कृतिनो ननुरोषदृष्ट्या।
रोषं दहन्तमुत ते न दहन्त्यसह्यम्।
सोऽयं यदन्तरमलं प्रविशन् बिभेति।
कामः कथं नु पुनरस्य मनः श्रयेत॥

अनुवाद:
जिनके क्रोध की दृष्टि से पाप नष्ट हो जाते हैं और जिनके मन में काम प्रवेश नहीं कर सकता, वह नर-नारायण भगवान के तप को कैसे विचलित कर सकता है?


श्लोक 8:

विद्धः सपत्न्युदितपत्रिभिरन्तिराज्ञो।
बालोऽपि सन्नुपगतस्तपसे वनानि।
तस्मा अदाद् ध्रुवगतिं गृणते प्रसन्नो।
दिव्याः स्तुवन्ति मुनयो यदुपर्यधस्तात्॥

अनुवाद:
राजा के आदेश से जब ध्रुव को उसकी सौतेली माता के अपमानजनक शब्दों से आहत किया गया, तब वह बालक होकर भी वन में तपस्या के लिए चला गया। भगवान प्रसन्न होकर उसे ध्रुवपद (अक्षय स्थान) प्रदान करते हैं, जिसे देवता और ऋषि सभी ऊपर-नीचे से स्तुति करते हैं।


श्लोक 9:

यद्वेनमुत्पथगतं द्विजवाक्यवज्र।
निष्प्लुष्टपौरुषभगं निरये पतन्तम्।
त्रात्वाऽर्थितो जगति पुत्रपदं च लेभे।
दुग्धा वसूनि वसुधा सकलानि येन॥

अनुवाद:
जब वेन ने अधर्म के मार्ग को अपनाया और ब्राह्मणों के श्राप से नरकगामी हुआ, तो भगवान ने उसे बचाया। उसकी प्रार्थना से उसे पुत्र का पद मिला, और वसुधा (पृथ्वी) ने फिर से अपने सारे खजाने प्रदान किए।


श्लोक 10:

नाभेरसावृषभ आस सुदेवि सूनुः।
यो वै चचार समदृग् जडयोगचर्याम्।
यत्पारमहंस्यमृषयः पदमामनन्ति।
स्वस्थः प्रशान्तकरणः परिमुक्तसङ्गः॥

अनुवाद:
नाभि के पुत्र राजा ऋषभ, जो परमधाम के ज्ञाता और समदृष्टि से युक्त थे, जडयोग की साधना करते हुए विचरण करते थे। ऋषियों ने उनकी प्रशंसा की, क्योंकि वे स्थिरचित्त, शांत और सभी बंधनों से मुक्त थे।


श्लोक 11:

सत्रे ममाऽस भगवान् हयशीर्ष एव।
साक्षात् स यज्ञपुरुषः तपनीयवर्णः।
छन्दोमयो मखमयोऽखिलदेवतात्मा।
वाचो बभूवुरुशतीः श्वसतोऽस्य नस्तः॥

अनुवाद:
सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के यज्ञ में भगवान हयशीर्ष (हयग्रीव) रूप में प्रकट हुए। वे यज्ञपुरुष, स्वर्णवर्णी, वेदों के स्वरूप, समस्त देवताओं के आत्मा और अनंत वाणी के स्त्रोत हैं।


श्लोक 12:

मत्स्यो युगान्तसमये मनुनोपलब्धः।
क्षोणीमयो निखिलजीवनिकायकेतः।
विस्रंसितानुरुभये सलिले मुखान्मे।
आदाय तत्र विजहार ह वेदमार्गान्॥

अनुवाद:
युग के अंत में भगवान मत्स्य रूप में प्रकट हुए और मनु के माध्यम से संपूर्ण जीवों की रक्षा की। वे वेदों को सुरक्षित रखने के लिए जल में विचरण करते रहे।


श्लोक 13:

क्षीरोदधावमरदानवयूथपानाम्।
उन्मथ्नता ममृतलब्धय आदिदेवः।
पृष्ठेन कच्छपवपुर्विदधार गोत्रं।
निद्राक्षणोऽद्रि परिवर्तकषाणकण्डूः॥

अनुवाद:
क्षीरसागर के मंथन के समय, जब देवता और दानव अमृत प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे थे, भगवान कच्छप (कछुआ) रूप में प्रकट हुए। उन्होंने अपनी पीठ पर मंदराचल पर्वत को धारण किया और उसके घूमने से उत्पन्न कंडू (खुजली) को सहते हुए मंथन कराया।


श्लोक 14:

त्रैविष्टपोरुभयहास नृसिंहरूपं।
कृत्वा भ्रमद्भ्रुकुटि दंष्ट्रकरालवक्त्रम्।
दैत्येन्द्रमाशु गदयाऽभिपतन्तमारात्।
ऊरौ निपात्य विददार नखैः स्फुरन्तम्॥

अनुवाद:
भगवान ने नृसिंह रूप धारण कर अपनी भयानक भृकुटि और दंष्ट्राओं से प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु का संहार किया। उन्होंने उसे अपनी जंघा पर रखकर अपने नखों से विदीर्ण कर दिया।


श्लोक 15:

अन्तः सरस्युरुबलेन पदे गृहीतो।
ग्राहेण यूथपतिरम्बुजहस्त आर्तः।
आहेदमादि पुरुषाखिललोकनाथ।
तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गलनामधेय॥

अनुवाद:
जब गजेंद्र को एक बलवान मगरमच्छ ने जलाशय में खींच लिया, तब उसने अपनी सूंड में कमल लेकर "हे आदिपुरुष! हे समस्त लोकों के नाथ! आपके पवित्र नाम का स्मरण करना ही मंगलकारी है," ऐसा पुकारा।


श्लोक 16:

श्रुत्वा हरिस्तमरणार्थिनमप्रमेयः।
चक्रायुधः पतगराजभुजाधिरूढः।
चक्रेण नक्रवदनं विनिपाद्य तस्माद्।
धस्ते प्रगृह्य भगवान् कृपयोज्जहार॥

अनुवाद:
भगवान हरि, जो अपार हैं, गरुड़ पर सवार होकर गजेंद्र के पुकारने पर पहुंचे। उन्होंने अपने चक्र से मगरमच्छ का वध किया और कृपा करके गजेंद्र को अपने हाथों से बचा लिया।


श्लोक 17:

ज्यायान्गुणैरवरजोऽप्यदि तेः सुतानां।
लोकान्विचक्रम इमान्यदथाधियज्ञः।
क्ष्मां वा मनेन जगृहे त्रिपदच्छलेन।
याच्ञामृते पथिचरन् प्रभुभिर्न चाल्यः॥

अनुवाद:
भगवान वामन, यद्यपि बालक रूप में थे, परंतु अपने गुणों से अन्य भाइयों से श्रेष्ठ थे। उन्होंने बलि महाराज से तीन पग भूमि का याचना करके इस पृथ्वी पर अपना अधिकार स्थापित किया।


श्लोक 18:

नार्थो बलेरयमुरुक्रमपादशौचम्।
आपः शिखा धृतवतो विबुधाधिपत्यम्।
यो वै प्रतिश्रुतमृते न चिकीर्षदन्यद्।
आत्मानमङ्ग शिरसा हरयेऽभिमेने॥

अनुवाद:
बलि महाराज ने भगवान वामन के चरण जल को अपने मस्तक पर धारण करके देवताओं का राज्य उन्हें समर्पित किया। उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान वामन के प्रति सम्पूर्ण समर्पण कर दिया।


श्लोक 19:

तुभ्यं च नारद भृशं भगवान्विवृद्ध।
भावेन साधु परितुष्ट उवाच योगम्।
ज्ञानं च भागवतमात्मसतत्त्वदीपं।
यद्वासुदेवशरणा विदुरञ्जसैव॥

अनुवाद:
हे नारद! भगवान ने अपने भक्तों के प्रति अत्यंत संतुष्ट होकर तुम्हें योग और भागवत ज्ञान प्रदान किया, जो आत्मतत्त्व का दीपक है और वासुदेव की शरण में जाने वालों को सहज ही उपलब्ध होता है।


श्लोक 20:

चक्रं च दिक्ष्वविहतं दशसु स्वतेजो।
मन्वन्तरेषु मनुवंशधरो बिभर्ति।
दुष्टेषु राजसु दमं व्यदधात्स्वकीर्तिं।
सत्ये त्रिपृष्ठ उशतीं प्रथयंश्चरित्रैः॥

अनुवाद:
भगवान ने अपने तेजस्वी चक्र से दुष्ट राजाओं का नाश किया। विभिन्न मन्वंतर में वे मनु के वंश का पालन करते रहे और सत्ययुग में अपनी कीर्ति और चरित्र का विस्तार किया।


श्लोक 21:

धन्वन्तरिश्च भगवान्स्वयमेव कीर्तिः।
नाम्ना नृणां पुरुरुजां रुज आशु हन्ति।
यज्ञे च भागममृतायुरवावचन्ध।
आयुश्च वेदमनुशास्त्यवतीर्य लोके॥

अनुवाद:
भगवान धन्वंतर अपने नाम से रोगों का नाश करते हैं। उन्होंने अमृत (औषधि) प्रदान किया और आयुर्वेद का प्रचार-प्रसार किया। यज्ञ में उन्होंने देवताओं के लिए अमृत का भाग सुनिश्चित किया।


श्लोक 22:

क्षत्रं क्षयाय विधिनोपभृतं महात्मा।
ब्रह्मध्रुगुज्झितपथं नरकार्तिलिप्सु।
उद्धन्त्यसाववनि कण्टकमुग्रवीर्यः।
त्रिःसप्तकृत्व उरुधारपरश्वधेन॥

अनुवाद:
भगवान परशुराम ने उग्र पराक्रम से अधर्मी और क्रूर क्षत्रियों का 21 बार संहार किया। उन्होंने पृथ्वी से अधर्म के कण्टकों को समाप्त कर दिया।


श्लोक 23:

अस्मत्प्रसादसुमुखः कलया कलेश।
इक्ष्वाकुवंश अवतीर्य गुरोर्निदेशे।
तिष्ठन्वनं सदयितानुज आविवेश।
यस्मिन्विरुध्य दशकन्धर आर्तिमार्च्छत्॥

अनुवाद:
भगवान राम ने मेरे (ब्रह्मा के) प्रसाद से प्रसन्न होकर इक्ष्वाकु वंश में अवतार लिया। उन्होंने गुरु के आदेश का पालन करते हुए वन में निवास किया और अपनी पत्नी और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास में प्रवेश किया। वहीं उन्होंने रावण का वध करके लोक कल्याण किया।


श्लोक 24:

यस्मा अदादुदधि रूढभयाङ्गवेपो।
मार्गं सपद्यरिपुरं हरवद्दिधक्षोः।
दूरे सुहृन्मथि तरोषसुशोणदृष्ट्या।
तातप्यमानमकरोरगनक्रचक्रः॥

अनुवाद:
जब समुद्र भयभीत होकर भगवान राम के क्रोध से कांपने लगा, तो उसने तुरंत भगवान की सेना को मार्ग प्रदान किया। भगवान ने अपने तीव्र बाणों से समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, मछलियों और सर्पों को परेशान किया और राक्षसों का विनाश किया।


श्लोक 25:

वक्षः स्थलस्पर्शरुग्णमहेन्द्रवाह।
दन्तैर्विडम्बितककुब्जुष ऊढहासम्।
सद्योऽसुभिः सह विनेष्यति दारहर्तुः।
विस्फूर्जितैर्धनुष उच्चरतोऽधिसैन्ये॥

अनुवाद:
जब भगवान राम ने रावण के वक्षस्थल को अपने बाणों से विदीर्ण किया, तो उसका हास्य अचानक शांत हो गया। उन्होंने रणभूमि में दाराचोर रावण का वध किया और उसकी सेना को पराजित कर दिया।


श्लोक 26:

भूमेः सुरेतरवरूथविमर्दितायाः।
क्लेशव्ययाय कलयासितकृष्णकेशः।
जातः करिष्यति जनानुपलक्ष्यमार्गः।
कर्माणि चाऽऽत्ममहिमोपनिबन्धनानि॥

अनुवाद:
जब पृथ्वी अधर्मियों के बोझ से पीड़ित हुई, तब भगवान कृष्ण ने अपने श्यामल (कृष्ण) और गौर (बलराम) रूप में अवतार लिया। उन्होंने अपने दिव्य कर्मों द्वारा अधर्म का नाश कर लोक कल्याण किया और अपना आत्मिक वैभव प्रकट किया।


श्लोक 27:

तोकेन जीवहरणं यदुलूकिकायाः।
त्रैमासिकस्य च पदा शकटोऽपवृत्तः।
यद्रिङ्गतान्तरगतेन दिविस्पृशोर्वा।
उन्मूलनं त्वितरथाऽर्जुनयोर्न भाव्यम्॥

अनुवाद:
बाल्यकाल में भगवान कृष्ण ने पूतना नामक राक्षसी का वध किया और उसके द्वारा दी गई मृत्यु को अमृत बना दिया। उन्होंने त्रिनवर्त को आकाश में नष्ट किया और अन्य कई राक्षसों का वध करके लोक को भयमुक्त किया।


श्लोक 28:

यद्वै व्रजे व्रजपशून्विषतोयपीतान्।
पालांस्त्वजीव यदनुग्रहदृष्टिवृष्ट्या।
तच्छुद्धयेऽतिविषवीर्य विलोलजिह्वम्।
उच्चाटयिष्यदुरगं विहरन् ह्रदिन्याम्॥

अनुवाद:
भगवान कृष्ण ने जब देखा कि कालिय नाग के विष से यमुना का जल दूषित हो गया है और व्रज के पशु उसका जल पीकर मर रहे हैं, तो उन्होंने कालिय का दमन कर उसे वहां से भगा दिया।


श्लोक 29:

तत्कर्म दिव्यमिव यन्निशि निःशयानं।
दावाग्निना शुचिवने परिदह्यमाने।
उन्नेष्यति व्रजमतोऽवसि तान्तकालं।
नेत्रे पिधाप्य सबलोऽनधिगम्यवीर्यः॥

अनुवाद:
जब व्रज के लोग रात्रि में दावानल (जंगल की आग) में घिर गए थे, तब भगवान कृष्ण ने अपने अद्भुत पराक्रम से उन्हें उस अग्नि से बचाया और उनके कष्ट हर लिए।


श्लोक 30:

गृह्णीत यद् यदुपबन्धममुष्य माता।
शुल्बं सुतस्य न तु तत्तदमुष्य माति।
यज्जृम्भतोऽस्य वदने भुवनानि गोपी।
संवीक्ष्य शंकितमनाः प्रतिबोधिताऽऽसीत्॥

अनुवाद:
जब बाल कृष्ण ने यशोदा माता के पूछने पर अपना मुख खोला, तो उसमें समस्त ब्रह्मांड को देखकर गोपियां चकित हो गईं। यशोदा माता ने तब भी उन्हें अपना बालक मानते हुए प्रेमपूर्वक गले से लगा लिया।


श्लोक 31:

नन्दं च मोक्ष्यति भयाद्वरुणस्य पाशात्।
गोपान् बिलेषु पिहितान् मयसूनुना च।
अह्न्यापृतं निशिशयानमतिश्रमेण।
लोकं विकुण्ठमुपनेष्यति गोकुलं स्म॥

अनुवाद:
भगवान कृष्ण ने अपने पिता नंद को वरुण के बंधन से छुड़ाया और मयदानव के पुत्र द्वारा बंद गोपों को मुक्त किया। उन्होंने गोकुलवासियों को अपने विशेष अनुग्रह से वैकुंठ लोक का अनुभव कराया।


श्लोक 32:

गोपैर्मखे प्रतिहते व्रजविप्लवाय।
देवेऽभिवर्षति पशून् कृपया रिरक्षुः।
धर्तोच्छिलीन्ध्रमि व सप्तदिनानि सप्त।
वर्षो महीध्रमनघैककरे सलीलम्॥

अनुवाद:
जब इंद्र ने गोपों पर प्रलयकारी वर्षा का संकट डाला, तो भगवान कृष्ण ने अपनी कृपा से उनकी रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी अंगुली पर सात दिनों तक धारण किया।


श्लोक 33:

क्रीडन्वने निशिनिशाकररश्मि गौर्यां।
रासोन्मुखः कलपदायतमूर्च्छितेन।
उद्दीपितस्मररुजां व्रजभृद्वधूनां।
हर्तुर्हरिष्यति शिरोधनदानुगस्य॥

अनुवाद:
चंद्रमा की शीतल किरणों के नीचे, भगवान कृष्ण ने व्रज की गोपियों के साथ रासलीला की। उनकी मोहिनी छवि ने गोपियों के हृदयों में प्रेम और समर्पण का दीप प्रज्वलित कर दिया।


श्लोक 34:

ये च प्रलम्बखरदर्दुरकेश्यरिष्ट।
मल्लेभकंसयवनाः कपि पौण्ड्रकाद्याः।
अन्ये च शाल्वकुजबल्वलदन्तवक्र।
सप्तोक्षशम्बरविदूरथ रुक्मिमुख्याः॥

अनुवाद:
भगवान कृष्ण ने प्रलंब, खर, दर्दुर, केशी, अरिष्ट, मल्ल, कंस, यवन, कपि, पौण्ड्रक, शाल्व, कुज, बल्वल, दंतवक्र, सप्तोक्ष, शंबर, विदूरथ और रुक्मी जैसे असंख्य दुष्टों का वध किया।


श्लोक 35:

ये वा मृधे समितिशालिन आत्तचापाः।
काम्बोजमत्स्यकुरुकैकयसृञ्जयाद्याः।
यास्यन्त्यदर्शनमलं बलपार्थभीम।
व्याजाह्वयेन हरिणा निलयं तदीयम्॥

अनुवाद:
काम्बोज, मत्स्य, कुरु, कैकय, सृंजय आदि के योद्धा, जो युद्ध में पराक्रमी धनुर्धर थे, भगवान के प्रताप से युद्ध में पराजित होकर अदृश्य हो गए।


श्लोक 36:

कालेन मीलितधियामवमृश्य नॄणां।
स्तोकायुषां स्वनिगमो बतदूरपारः।
आविर्हितस्त्वनुयुगं स हि सत्यवत्यां।
वेदद्रुमं विटपशो विभजिष्यति स्म॥

अनुवाद:
जब मनुष्यों की आयु और बुद्धि कम हो गई और वेद का ज्ञान दुर्लभ हो गया, तब भगवान वेदव्यास सत्यवती के गर्भ से प्रकट हुए। उन्होंने वेद रूपी वृक्ष को चार शाखाओं में विभाजित किया।


श्लोक 37:

देवद्विषां निगमवर्त्मनि निष्ठितानां।
पूर्भिर्मयेन विहिताभिरदृश्यतूर्भिः।
लोकान्घ्नतां मति विमोहमति प्रलोभं।
वेषं विधाय बहुभाष्यत औपधर्म्यम्॥

अनुवाद:
जो देवताओं के शत्रु थे और वेदमार्ग से हट गए थे, उनके भ्रमित विचारों को देखकर भगवान बुद्ध ने मोहिनी रूप धारण किया और उन्हें प्रलोभन देकर भ्रामक धर्म (बौद्ध धर्म) का प्रचार किया।


श्लोक 38:

यर्ह्या लयेष्वपि सतां न हरेः कथाः स्युः।
पाषण्डिनोद्विजजना वृषलानृदेवाः।
स्वाहा स्वधा वषडिति स्म गिरो न यत्र।
शास्ता भविष्यति कलेर्भगवान्युगान्ते॥

अनुवाद:
जब कलियुग में धर्म लुप्त हो जाएगा, हरि कथा का प्रचार नहीं होगा, और अराजकता बढ़ेगी, तब भगवान कल्कि अवतार में प्रकट होकर दुष्टों का संहार करेंगे और धर्म को पुनः स्थापित करेंगे।


श्लोक 39:

सर्गे तपोऽहमृषयो नव ये प्रजेशाः।
स्थाने च धर्ममखमन्वमरावनीशाः।
अन्ते त्वधर्महरमन्युवशासुराद्या।
माया विभूतय इमाः पुरुशक्तिभाजः॥

अनुवाद:
सृष्टि के आरंभ में नौ ऋषि और प्रजापति उत्पन्न हुए। पालन के लिए धर्म और यज्ञों का प्रचार हुआ, और अंत में अधर्म को समाप्त करने के लिए भगवान ने क्रोध और अन्य शक्तियों के रूप में प्रकट होकर असुरों का संहार किया।


श्लोक 40:

विष्णोर्नु वीर्यगणनां कतमोऽर्हतीह।
यः पार्थिवान्यपि कविर्विममे रजांसि।
चस्कम्भ यः स्वरहसास्खलता त्रिपृष्ठं।
यस्मात्त्रिसाम्यसदनादुरुकम्पयानम्॥

अनुवाद:
भगवान विष्णु के अद्भुत पराक्रम की गणना कौन कर सकता है? उन्होंने अपनी अदृश्य शक्ति से पृथ्वी को धारण किया और त्रिपृष्ठ लोकों को स्थिरता प्रदान की। उनकी महानता से समस्त त्रिगुणात्मा सृष्टि भी स्थिर हो जाती है।


श्लोक 41:

नान्तं विदाम्यहममी मुनयोऽग्रजास्ते।
माया बलस्य पुरुषस्य कुतोऽपरे ये।
गायन्गुणान् दशशतानन आदिदेवः।
शेषोऽधुनापि समवस्यति नास्य पारम्॥

अनुवाद:
मैं, मुझसे पूर्व जन्मे मुनिगण और यहाँ तक कि भगवान शेषनाग भी, जो उनके गुणों का गान करते हैं, भगवान की महिमा और बल का अंत नहीं जान सकते। उनके गुणों का पार पाना किसी के लिए संभव नहीं है।


श्लोक 42:

येषां स एष भगवान् दययेदनन्तः।
सर्वात्मनाऽश्रितपदो यदि निर्व्यलीकम्।
ते दुस्तरामतितरन्ति च देवमायां।
नैषां ममाहमितिधीः श्वशृगालभक्ष्ये॥

अनुवाद:
जो भगवान अनंत को सत्य और निष्ठा से शरण में लेते हैं, वे उनकी कृपा से दुष्कर माया को पार कर जाते हैं। ऐसे भक्त "मैं" और "मेरा" के भ्रम से मुक्त रहते हैं।


श्लोक 43:

वेदाहमङ्ग परमस्य हि योगमायां।
यूयं भवश्च भगवानथ दैत्यवर्यः।
पत्‍नी मनोः स च मनुश्च तदात्मजाश्च।
प्राचीनबर्हि ऋभुरङ्ग उत ध्रुवश्च॥

अनुवाद:
हे नारद! मैं भगवान की योगमाया को जानता हूँ, और तुम, शिव, मनु, उनकी पत्नी, उनके पुत्र, प्राचीनबर्हि, ऋभु, अंग और ध्रुव सभी उनकी महिमा को स्वीकार करते हैं।


श्लोक 44:

इक्ष्वाकुरैलमुचुकुन्दविदेहगाधि।
रघ्वम्बरीषसगरागयनाहुषाद्याः।
मान्धात्रलर्कशतधन्वनुरन्तिदेवा।
देवव्रतो बलिरमूर्त्तरयो दिलीपः॥

अनुवाद:
इक्ष्वाकु, अयाल, मुचुकुंद, जनक, गाधि, रघु, अंबरीष, सगर, गय, नहुष, मान्धाता, लर्क, शतधन्वा, अनुर, अंतिदेव, भीष्म, बलि, अमूर्त्तरय और दिलीप सभी ने भगवान की महिमा को अनुभव किया।


श्लोक 45:

सौभर्युतङ्कशिबि देवलपिप्पलाद।
सारस्वतोद्धवपराशरभूरिषेणाः।
येऽन्ये विभीषणहनूमदुपेन्द्रदत्त।
पार्थार्ष्टिषेणविदुरश्रुतदेववर्याः॥

अनुवाद:
सौभरि, उत्तंक, शिबि, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्धव, पराशर, भूरिषेण, विभीषण, हनुमान, उपेंद्र, दत्तात्रेय, अर्जुन, ऋष्टीषेण, विदुर और श्रुतदेव ने भी भगवान की कृपा से लाभ प्राप्त किया।


श्लोक 46:

ते वै विदन्त्यतितरन्ति च देवमायां।
स्त्रीशूद्रहूणशबरा अपि पापजीवाः।
यद्यद्‍भुतक्रमपरायणशीलशिक्षाः।
तिर्यग्जना अपि किमु श्रुतधारणा ये॥

अनुवाद:
भगवान की कृपा से स्त्रियां, शूद्र, हूण, शबर और अन्य पाप कर्म करने वाले भी उनकी माया को पार कर जाते हैं। यदि भगवान की अद्भुत लीलाओं को सुनने और उनके अनुशीलन का लाभ पशु-पक्षियों को मिल सकता है, तो मनुष्यों का क्या कहना।


श्लोक 47:

शश्वत् प्रशान्तमभयं प्रतिबोधमात्रं।
शुद्धं समं सदसतः परमात्मतत्त्वम्।
शब्दो न यत्र पुरुकारकवान् क्रियार्थो।
माया परैत्यभि मुखे च विलज्जमाना॥

अनुवाद:
भगवान का परमधाम शाश्वत, शांत, भयहीन, शुद्ध, और सत-असत से परे है। वह केवल आत्मज्ञान का स्थान है, जहां माया लज्जित होकर प्रवेश नहीं कर सकती।


श्लोक 48:

तद्वै पदं भगवतः परमस्य पुंसो।
ब्रह्मेति यद्विदुरजस्रसुखं विशोकम्।
सध्र्यङ्नियम्य यतयो यमकर्तहेतिं।
जह्युः स्वराडिव निपानखनित्रमिन्द्रः॥

अनुवाद:
भगवान का परमपद ब्रह्म है, जो नित्य सुख और शोक से रहित है। यतियों द्वारा संयमित इंद्रियों और बुद्धि के द्वारा इसका अनुभव होता है, जैसे इंद्र स्वयं अपनी सीमाओं को पार कर जाता है।


श्लोक 49:

स श्रेयसामपि विभुर्भगवान् यतोऽस्य।
भावस्वभावविहितस्य सतः प्रसिद्धिः।
देहे स्वधातुविगमेऽनुविशीर्यमाणे।
व्योमेव तत्र पुरुषो न विशीर्यतेऽजः॥

अनुवाद:
भगवान, जो श्रेय के परम स्रोत हैं, का अस्तित्व सदा बना रहता है। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा नहीं नष्ट होती, जैसे आकाश किसी परिवर्तन से प्रभावित नहीं होता।


श्लोक 50:

सोऽयं तेऽभिहितस्तात भगवान् विश्वभावनः।
समासेन हरेर्नान्यद् अन्यस्मात् सदसच्च यत्॥

अनुवाद:
हे तात! यह भगवान की महान लीलाओं का सारांश है। वे ही इस संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार के कारण हैं। उनके अतिरिक्त सत्य और असत्य कुछ भी नहीं है।


श्लोक 51:

इदं भागवतं नाम यन्मे भगवतोदितम्।
सङ्ग्रहोऽयं विभूतीनां त्वमेतद्विपुलीकुरु॥

अनुवाद:
यह भागवत नामक पुराण भगवान के द्वारा प्रेरित है। इसमें उनकी विभूतियों का सार है। तुम इसे विस्तारपूर्वक वर्णन करो।


श्लोक 52:

राजोवाच यथा हरौ भगवति नृणां भक्तिर्भविष्यति।
सर्वात्मन्यखिलाधारे इति सङ्कल्प्य वर्णय॥

अनुवाद:
राजा ने कहा: हे ब्रह्मा! आप भगवान हरि के विषय में इस प्रकार वर्णन करें, जिससे मनुष्यों में उनके प्रति प्रेम और भक्ति उत्पन्न हो सके।


श्लोक 53:

मायां वर्णयतोऽमुष्य ईश्वरस्यानुमोदतः।
शृण्वतः श्रद्धया नित्यं माययाऽऽत्मा न मुह्यति॥

अनुवाद:
जो भगवान की माया और उनके स्वरूप का वर्णन करता है, उसकी प्रशंसा करता है और श्रद्धापूर्वक इसे सुनता है, वह माया के प्रभाव से मुक्त हो जाता है।


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वितीयस्कंधे सप्तमोऽध्यायः॥

इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कंध का सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।


इस प्रकार यहाँ भागवत द्वितीय स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिंदी अनुवाद) के सभी श्लोकों का क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया गया।

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भागवत दर्शन: भागवत द्वितीय स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिंदी अनुवाद)
भागवत द्वितीय स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिंदी अनुवाद)
भागवत द्वितीय स्कन्ध, सप्तम अध्याय(हिंदी अनुवाद)।यहाँ पर भागवत द्वितीय स्कन्ध,सप्तम अध्याय(हिंदी अनुवाद)के सभी श्लोकों का क्रमशः हिन्दी अनुवाद दिया है
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