भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टादश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

Sooraj Krishna Shastri
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भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टादश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
यह रहा चित्र जिसमें ऋषि शमीक के गले में मरा हुआ साँप लटका है और राजा परीक्षित धनुष और बाण लिए खड़े हैं।

भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टादश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)

यहाँ भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टादश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के श्लोकों का क्रमवार हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है-

श्लोक 1

सूत उवाच
यो वै द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टो न मातुरुदरे मृतः।
अनुग्रहाद् भगवतः कृष्णस्याद्‍भुतकर्मणः॥

हिन्दी अनुवाद:
सूतजी बोले: द्रौणि (अश्वत्थामा) के ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से नष्ट हो जाने वाले परीक्षित, भगवान श्रीकृष्ण के अद्भुत कर्मों की कृपा से अपनी माता के गर्भ में मरे नहीं।


श्लोक 2

ब्रह्मकोपोत्थिताद् यस्तु तक्षकात् प्राणविप्लवात्।
न सम्मुमोहोरुभयाद् भगवत्यर्पिताशयः॥

हिन्दी अनुवाद:
ब्रह्मऋषियों के कोप से उत्पन्न तक्षक के प्राणहरण से भी परीक्षित, जिनका मन भगवद्भक्ति में स्थिर था, विचलित नहीं हुए।


श्लोक 3

उत्सृज्य सर्वतः सङ्गं विज्ञाताजितसंस्थितिः।
वैयासकेर्जहौ शिष्यो गङ्गायां स्वं कलेवरम्॥

हिन्दी अनुवाद:
संपूर्ण आसक्तियों को त्यागकर और भगवान के स्वरूप को जानकर, परीक्षित ने व्यासपुत्र (शुकदेव जी) के शिष्य रूप में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया।


श्लोक 4

नोत्तमश्लोकवार्तानां जुषतां तत्कथामृतम्।
स्यात्सम्भ्रमोऽन्तकालेऽपि स्मरतां तत्पदाम्बुजम्॥

हिन्दी अनुवाद:
जो लोग भगवान श्रीकृष्ण की कथाओं का आनंद लेते हैं, उनके अंत समय में भी कोई भय या भ्रम नहीं होता और वे उनके चरण कमलों को स्मरण करते रहते हैं।


श्लोक 5

तावत्कलिर्न प्रभवेत् प्रविष्टोऽपीह सर्वतः।
यावदीशो महानुर्व्यां आभिमन्यव एकराट्॥

हिन्दी अनुवाद:
जब तक राजा परीक्षित, जो महाभागवत और अभिमन्यु के पुत्र थे, पृथ्वी पर शासन करते रहे, तब तक कलियुग अपनी पूरी शक्ति से प्रभाव नहीं डाल सका।


श्लोक 6

यस्मिन्नहनि यर्ह्येव भगवान् उत्ससर्ज गाम्।
तदैवेहानुवृत्तोऽसौ अधर्मप्रभवः कलिः॥

हिन्दी अनुवाद:
जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने इस पृथ्वी का त्याग किया, उसी दिन अधर्म का स्रोत कलियुग पृथ्वी पर पूरी तरह प्रविष्ट हो गया।


श्लोक 7

नानुद्वेष्टि कलिं सम्राट् सारङ्ग इव सारभुक्।
कुशलान्याशु सिद्ध्यन्ति नेतराणि कृतानि यत्॥

हिन्दी अनुवाद:
राजा परीक्षित कलियुग का दमन नहीं करते, जैसे सारंग पक्षी अमृत के लिए मकरंद का ही सेवन करता है। इसलिए उनकी केवल शुभ क्रियाएं ही फलित होती हैं, अन्य नहीं।


श्लोक 8

किं नु बालेषु शूरेण कलिना धीरभीरुणा।
अप्रमत्तः प्रमत्तेषु यो वृको नृषु वर्तते॥

हिन्दी अनुवाद:
जो व्यक्ति निर्भीक होकर सजग रहता है, वही कलियुग के प्रकोप से बच सकता है। कलियुग, जैसे भेड़िया निरीह लोगों के बीच विचरण करता है, वैसे ही अचेतन व्यक्तियों पर प्रहार करता है।


श्लोक 9

उपवर्णितमेतद् वः पुण्यं पारीक्षितं मया।
वासुदेव कथोपेतं आख्यानं यदपृच्छत॥

हिन्दी अनुवाद:
मैंने आप सभी को राजा परीक्षित की पुण्य कथा सुनाई, जो भगवान वासुदेव की लीलाओं से युक्त है और जिसे आपने मुझसे पूछने का अनुरोध किया था।


श्लोक 10

या याः कथा भगवतः कथनीयोरुकर्मणः।
गुणकर्माश्रयाः पुम्भिः संसेव्यास्ता बुभूषुभिः॥

हिन्दी अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण की जिन- जिन लीलाओं का वर्णन किया गया है, वे उनके महान कार्यों और गुणों पर आधारित हैं। उन्हें समझने और ग्रहण करने की आकांक्षा रखने वालों को इन कथाओं का श्रवण अवश्य करना चाहिए।


श्लोक 11

ऋषय ऊचुः
सूत जीव समाः सौम्य शाश्वतीर्विशदं यशः।
यस्त्वं शंससि कृष्णस्य मर्त्यानां अमृतं हि नः॥

हिन्दी अनुवाद:
ऋषियों ने कहा: हे सूतजी! कृपया आप दीर्घायु हों। आप भगवान श्रीकृष्ण के दिव्य यश का वर्णन कर रहे हैं, जो हम मनुष्यों के लिए अमृत के समान है।


श्लोक 12

कर्मण्यस्मिन् अनाश्वासे धूमधूम्रात्मनां भवान्।
आपाययति गोविन्द पादपद्मासवं मधु॥

हिन्दी अनुवाद:
इस अनिश्चित संसार में, जहाँ सभी लोग मोह और अज्ञान के धुंध से घिरे हुए हैं, आप हमें भगवान गोविन्द के चरण कमलों के अमृत का मधुर स्वाद प्रदान कर रहे हैं।


श्लोक 13

तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
भगवत् सङ्गिसंगस्य मर्त्यानां किमुताशिषः॥

हिन्दी अनुवाद:
यहाँ तक कि एक पल के लिए भी भगवान के भक्तों का संग मिलना स्वर्ग और मोक्ष से अधिक मूल्यवान है। ऐसे संग के बिना और कोई आशीर्वाद महत्व नहीं रखता।


श्लोक 14

को नाम तृप्येद् रसवित्कथायां
महत्तमैकान्त परायणस्य।
नान्तं गुणानां अगुणस्य जग्मुः
योगेश्वरा ये भवपाद्ममुख्याः॥

हिन्दी अनुवाद:
कौन ऐसा ज्ञानी है, जो भगवान श्रीकृष्ण की कथाओं से तृप्त हो सकता है? उनके गुण अनंत हैं, यहाँ तक कि योगेश्वर भी उनके चरणों की महिमा का अंत नहीं पा सके।


श्लोक 15

तन्नो भवान् वै भगवत्प्रधानो
महत्तमैकान्त परायणस्य।
हरेरुदारं चरितं विशुद्धं
शुश्रूषतां नो वितनोतु विद्वन्॥

हिन्दी अनुवाद:
हे विद्वान सूतजी! कृपया हमें भगवान हरि की पवित्र और महिमामयी कथाएं सुनाइए, क्योंकि वे हमारे हृदयों को शुद्ध और आनन्दित करती हैं।


श्लोक 16

स वै महाभागवतः परीक्षिद्
येनापवर्गाख्यमदभ्रबुद्धिः।
ज्ञानेन वैयासकिशब्दितेन
भेजे खगेन्द्रध्वजपादमूलम्॥

हिन्दी अनुवाद:
वह महाभागवत राजा परीक्षित, जिनकी अद्भुत बुद्धि ने वैयासकी (शुकदेव जी) के ज्ञान द्वारा उन्हें मोक्षमार्ग का अनुभव कराया, ने गरुड़ध्वज भगवान विष्णु के चरणों का आश्रय लिया।


श्लोक 17

तन्नः परं पुण्यमसंवृतार्थं
आख्यानमत्यद्‍भुत योगनिष्ठम्।
आख्याह्यनन्ता चरितोपपन्नं
पारीक्षितं भागवताभिरामम्॥

हिन्दी अनुवाद:
कृपया हमें उस अद्भुत और योगनिष्ठ कथा का वर्णन करें, जो राजा परीक्षित के जीवन से संबंधित है और भगवान की अनंत लीलाओं का वर्णन करती है।


श्लोक 18

सूत उवाच
अहो वयं जन्मभृतोऽद्य हास्म
वृद्धानुवृत्त्यापि विलोमजाताः।
दौष्कुल्यमाधिं विधुनोति शीघ्रं
महत्तमानामभिधानयोगः॥

हिन्दी अनुवाद:
सूतजी ने कहा: यह हमारा सौभाग्य है कि हमें ऐसा पवित्र अवसर प्राप्त हुआ। महान व्यक्तियों का संग और उनकी कथाओं का श्रवण जन्मजन्मांतर के पापों और दोषों को शीघ्र ही मिटा देता है।


श्लोक 19

कुतः पुनर्गृणतो नाम तस्य
महत्तमैकान्त परायणस्य।
योऽनन्तशक्तिः भगवाननन्तो
महत्‍गुणत्वाद् यमनन्तमाहुः॥

हिन्दी अनुवाद:
भगवान श्रीकृष्ण, जो अनंत शक्ति और अनंत गुणों वाले हैं, उनके नाम का जप करने से कौन लाभान्वित नहीं होगा? उन्हें "अनंत" इसलिए कहा जाता है, क्योंकि उनके गुण अनगिनत हैं।


श्लोक 20

एतावतालं ननु सूचितेन
गुणैरसाम्यानतिशायनस्य।
हित्वेतरान् प्रार्थयतो विभूतिः
यस्याङ्‌घ्रिरेणुं जुषतेऽनभीप्सोः॥

हिन्दी अनुवाद:
भगवान के अनंत गुण और वैभव का वर्णन करना असंभव है। उनके चरणों की धूल भी वह लोग चाहते हैं, जिन्हें सांसारिक सुखों की कोई कामना नहीं है।


श्लोक 21

अथापि यत्पादनखावसृष्टं
जगद्विरिञ्चोपहृतार्हणाम्भः।
सेशं पुनात्यन्यतमो मुकुन्दात्
को नाम लोके भगवत्पदार्थः॥

हिन्दी अनुवाद:
भगवान के चरणों से बहा हुआ जल (गंगा), जिसे ब्रह्माजी ने पूजा के लिए संग्रहित किया, समस्त पापों को हरने में सक्षम है। संसार में कौन ऐसा है, जो भगवान की महिमा को नहीं चाहता?


श्लोक 22

यत्रानुरक्ताः सहसैव धीरा
व्यपोह्य देहादिषु सङ्गमूढम्।
व्रजन्ति तत्पारमहंस्यमन्त्यं
यस्मिन्नहिंसोपशमः स्वधर्मः॥

हिन्दी अनुवाद:
जहाँ परमहंसजन शीघ्र ही देह और भौतिक आसक्तियों को त्याग कर अहिंसा, शांति और धर्म का पालन करते हुए अंतिम मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।


श्लोक 23

अहं हि पृष्टोऽर्यमणो भवद्‌भिः
आचक्ष आत्मावगमोऽत्र यावान्।
नभः पतन्त्यात्मसमं पतत्त्रिणः
तथा समं विष्णुगतिं विपश्चितः॥

हिन्दी अनुवाद:
आपने मुझसे आत्मज्ञान के विषय में पूछा है। जैसे पक्षी आकाश में समान रूप से उड़ते हैं, वैसे ही ज्ञानीजन विष्णु की गति (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं।


श्लोक 24

एकदा धनुरुद्यम्य विचरन्मृगयां वने।
मृगाननुगतः श्रान्तः क्षुधितस्तृषितो भृशम्॥

हिन्दी अनुवाद:
एक बार राजा परीक्षित धनुष लेकर वन में शिकार करते हुए थक गए। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वे जलाशय की खोज में घूमने लगे।


श्लोक 25

जलाशयमचक्षाणः प्रविवेश तमाश्रमम्।
ददर्श मुनिमासीनं शान्तं मीलितलोचनम्॥

हिन्दी अनुवाद:
जब उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तो वे एक आश्रम में प्रविष्ट हुए। वहाँ उन्होंने एक शांतचित्त मुनि को आँखें बंद किए बैठे देखा।


श्लोक 26

प्रतिरुद्धेन्द्रियप्राण मनोबुद्धिमुपारतम्।
स्थानत्रयात्परं प्राप्तं ब्रह्मभूतमविक्रियम्॥

हिन्दी अनुवाद:
मुनि ने इंद्रियों, प्राण, मन और बुद्धि को नियंत्रित कर लिया था। वे शरीर के तीनों अवस्थाओं से परे, ब्रह्मभूत और स्थिर थे।


श्लोक 27

विप्रकीर्णजटाच्छन्नं रौरवेणाजिनेन च।
विशुष्यत्तालुरुदकं तथाभूतमयाचत॥

हिन्दी अनुवाद:
उनकी जटाएं बिखरी हुई थीं, और वे मृगचर्म से ढंके हुए थे। राजा ने सूखते हुए कंठ से उनसे पानी मांगा।


श्लोक 28

अलब्धतृणभूम्यादिः असम्प्राप्तार्घ्यसूनृतः।
अवज्ञातं इवात्मानं मन्यमानश्चुकोप ह॥

हिन्दी अनुवाद:
राजा को घास, भूमि, और अर्घ्य आदि कुछ भी नहीं मिला। स्वयं को अपमानित मानते हुए, वे क्रोधित हो गए।


श्लोक 29

अभूतपूर्वः सहसा क्षुत्तृड्भ्यामर्दितात्मनः।
ब्राह्मणं प्रत्यभूद्‍ब्रह्मन् मत्सरो मन्युरेव च॥

हिन्दी अनुवाद:
भूख और प्यास से पीड़ित राजा ने, जो पहले कभी ऐसा क्रोधी नहीं हुआ था, ब्राह्मण के प्रति ईर्ष्या और क्रोध का अनुभव किया।


श्लोक 30

स तु ब्रह्मऋषेरंसे गतासुमुरगं रुषा।
विनिर्गच्छन् धनुष्कोट्या निधाय पुरमागत्॥

हिन्दी अनुवाद:
राजा ने क्रोध में आकर धनुष की नोक से मरे हुए साँप को उठाया और उसे मुनि के कंधे पर रख दिया, फिर अपने नगर लौट गए।


श्लोक 31

एष किं निभृताशेष करणो मीलितेक्षणः।
मृषा समाधिराहोस्वित् किं नु स्यात् क्षत्रबन्धुभिः॥

हिन्दी अनुवाद:
राजा ने सोचा कि यह मुनि, जिसने सभी इंद्रियों को वश में कर लिया है और आँखें बंद कर रखी हैं, क्या वास्तव में ध्यान में है, या केवल दिखावा कर रहा है?


श्लोक 32

तस्य पुत्रोऽतितेजस्वी विहरन् बालकोऽर्भकैः।
राज्ञाघं प्रापितं तातं श्रुत्वा तत्रेदमब्रवीत्॥

हिन्दी अनुवाद:
उस मुनि के तेजस्वी पुत्र, जो अन्य बालकों के साथ खेल रहे थे, ने जब यह सुना कि राजा ने उनके पिता का अपमान किया है, तो उन्होंने यह कहा।


श्लोक 33

अहो अधर्मः पालानां पीव्नां बलिभुजामिव।
स्वामिन्यघं यद् दासानां द्वारपानां शुनामिव॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने कहा: यह पालकों (राजाओं) का बड़ा अधर्म है, जैसे कि बलिष्ठ लोगों का निर्बलों पर अत्याचार। यह वैसा ही है जैसे नौकर या द्वारपाल अपने स्वामी का अपमान करें।


श्लोक 34

ब्राह्मणैः क्षत्रबन्धुर्हि गृहपालो निरूपितः।
स कथं तद्‍गृहे द्वाःस्थः सभाण्डं भोक्तुमर्हति॥

हिन्दी अनुवाद:
एक क्षत्रिय, जिसे ब्राह्मणों ने गृहपाल के रूप में नियुक्त किया है, वह ब्राह्मण के घर में ऐसा दुर्व्यवहार कैसे कर सकता है?


श्लोक 35

कृष्णे गते भगवति शास्तर्युत्पथगामिनाम्।
तद् भिन्नसेतूनद्याहं शास्मि पश्यत मे बलम्॥

हिन्दी अनुवाद:
जब भगवान श्रीकृष्ण, जो धर्म के पालनकर्ता हैं, इस संसार से चले गए, तब अधर्म के मार्ग पर चलने वाले लोग निर्भय हो गए। अब मैं उन सीमाओं को तोड़ने और उन्हें दंड देने के लिए तैयार हूँ। मेरा बल देखो।


श्लोक 36

इत्युक्त्वा रोषताम्राक्षो वयस्यान् ऋषिबालकः।
कौशिक्याप उपस्पृश्य वाग्वज्रं विससर्ज ह॥

हिन्दी अनुवाद:
यह कहकर, ऋषि का पुत्र क्रोध से लाल आँखों के साथ, अपने बाल साथी के साथ पवित्र जल का स्पर्श किया और एक वाणी रूपी वज्र का शाप दे दिया।


श्लोक 37

इति लङ्‌घितमर्यादं तक्षकः सप्तमेऽहनि।
दङ्क्ष्यति स्म कुलाङ्गारं चोदितो मे ततद्रुहम्॥

हिन्दी अनुवाद:
उसने कहा: "इसने मर्यादा का उल्लंघन किया है। इसलिए, यह कुल का कलंक राजा परीक्षित, सातवें दिन तक्षक नाग के डंस से मारा जाएगा।"


श्लोक 38

ततोऽभ्येत्याश्रमं बालो गले सर्पकलेवरम्।
पितरं वीक्ष्य दुःखार्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह॥

हिन्दी अनुवाद:
इसके बाद वह बालक आश्रम में आया और अपने पिता को गले में साँप के मृत शरीर के साथ देखा। उसे देखकर वह दुःख से व्याकुल हो गया और जोर-जोर से रोने लगा।


श्लोक 39

स वा आङ्‌गिरसो ब्रह्मन् श्रुत्वा सुतविलापनम्।
उन्मील्य शनकैर्नेत्रे दृष्ट्वा चांसे मृतोरगम्॥

हिन्दी अनुवाद:
हे ब्रह्मन्! आंगिरस वंश के वह मुनि, जब अपने पुत्र का विलाप सुना, तो धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और अपने कंधे पर मृत साँप को देखा।


श्लोक 40

विसृज्य तं च पप्रच्छ वत्स कस्माद्धि रोदिषि।
केन वा तेऽपकृतं इत्युक्तः स न्यवेदयत्॥

हिन्दी अनुवाद:
उन्होंने साँप को हटा दिया और अपने पुत्र से पूछा, "वत्स, तुम क्यों रो रहे हो? किसने तुम्हारा अपमान किया है?" पुत्र ने उन्हें सब कुछ बता दिया।


श्लोक 41

निशम्य शप्तमतदर्हं नरेन्द्रं।
स ब्राह्मणो नात्मजमभ्यनन्दत्।
अहो बतांहो महदद्य ते कृतं।
अल्पीयसि द्रोह उरुर्दमो धृतः॥

हिन्दी अनुवाद:
जब मुनि ने सुना कि उनके पुत्र ने राजा को अनुचित शाप दिया है, तो उन्होंने उसे आशीर्वाद देने के बजाय डाँटा। उन्होंने कहा: "अरे बेटा! तुमने बहुत बड़ी भूल की है। तुमने अपनी कम समझ के कारण गंभीर अपराध कर दिया।"


श्लोक 42

न वै नृभिर्नरदेवं पराख्यं।
सम्मातुमर्हस्यविपक्वबुद्धे।
यत्तेजसा दुर्विषहेण गुप्ता।
विन्दन्ति भद्राण्यकुतोभयाः प्रजाः॥

हिन्दी अनुवाद:
हे बालक! तुम्हारी अल्प बुद्धि के कारण तुम यह नहीं समझ सके कि राजा सामान्य मनुष्य नहीं हैं। उनके तेज और प्रभाव से ही प्रजा निर्भय होकर सुख-समृद्धि प्राप्त करती है।


श्लोक 43

अलक्ष्यमाणे नरदेवनाम्नि।
रथाङ्गपाणावयमङ्ग लोकः।
तदा हि चौरप्रचुरो विनङ्क्ष्यति।
अरक्ष्यमाणोऽविव रूथवत् क्षणात्॥

हिन्दी अनुवाद:
यदि राजा, जो भगवान का प्रतिनिधि है, की उपस्थिति का सम्मान नहीं किया जाता, तो यह संसार तुरंत अराजकता में डूब जाएगा। चोर और अन्याय बढ़ जाएँगे और यह प्रजा बाड़ विहीन खेत की भाँति हो जाएगी।


श्लोक 44

तदद्य नः पापमुपैत्यनन्वयं
यन्नष्टनाथस्य वसोर्विलुम्पकात्।
परस्परं घ्नन्ति शपन्ति वृञ्जते
पशून् स्त्रियोऽर्थाम् पुरुदस्यवो जनाः॥

हिन्दी अनुवाद:
आज से, जब यह संसार राजा जैसे नाथ (अधिकार) से विहीन हो जाएगा, पाप बढ़ेगा। लोग एक-दूसरे को मारेंगे, श्राप देंगे, चोरी करेंगे, और पशुओं, स्त्रियों, और धन को हड़प लेंगे।


श्लोक 45

तदाऽऽर्यधर्मः प्रविलीयते नृणां
वर्णाश्रमाचारयुतस्त्रयीमयः।
ततोऽर्थकामाभिनिवेशितात्मनां
शुनां कपीनामिव वर्णसङ्करः॥

हिन्दी अनुवाद:
उस समय, समाज से आर्य धर्म का लोप हो जाएगा, और वर्ण और आश्रम के नियम टूट जाएंगे। लोग केवल अर्थ और काम में ही आसक्त रहेंगे, जिससे वर्णसंकर की स्थिति उत्पन्न होगी, जैसे कुत्तों और बंदरों का जीवन।


श्लोक 46

धर्मपालो नरपतिः स तु सम्राड् बृहच्छ्रवाः।
साक्षान् महाभागवतो राजर्षिर्हयमेधयाट्॥

हिन्दी अनुवाद:
राजा परीक्षित, जो एक महान भागवत और राजर्षि हैं, धर्मपालक के रूप में विख्यात थे और उन्होंने अश्वमेध यज्ञ भी किया।


श्लोक 46.5

क्षुत्तृट्श्रमयुतो दीनो नैवास्मच्छापमर्हति॥

हिन्दी अनुवाद:
भूख, प्यास और थकावट से पीड़ित वह राजा किसी शाप का पात्र नहीं था।


श्लोक 47

अपापेषु स्वभृत्येषु बालेनापक्वबुद्धिना।
पापं कृतं तद्‍भगवान् सर्वात्मा क्षन्तुमर्हति॥

हिन्दी अनुवाद:
राजा परीक्षित जैसे निर्दोष सेवक पर, जो बालक के अपरिपक्व बुद्धि के कारण शापित हुआ, वह भगवान सर्वात्मा कृपापूर्वक क्षमा करें।


श्लोक 48

तिरस्कृता विप्रलब्धाः शप्ताः क्षिप्ता हता अपि।
नास्य तत्प्रतिकुर्वन्ति तद्‍भक्ताः प्रभवोऽपि हि॥

हिन्दी अनुवाद:
भगवान के भक्त, चाहे तिरस्कार किए जाएं, अपमानित हों, श्रापित हों, या मारे जाएं, वे किसी के प्रति प्रतिशोध नहीं रखते, भले ही वे सक्षम हों।


श्लोक 49

इति पुत्रकृताघेन सोऽनुतप्तो महामुनिः।
स्वयं विप्रकृतो राज्ञा नैवाघं तदचिन्तयत्॥

हिन्दी अनुवाद:
इस प्रकार, पुत्र द्वारा किए गए अपराध पर महान मुनि शमीक अनुतप्त हुए। स्वयं राजा द्वारा अपमानित होने पर भी उन्होंने उसे अपना अपराध नहीं माना।


श्लोक 50

प्रायशः साधवो लोके परैर्द्वन्द्वेषु योजिताः।
न व्यथन्ति न हृष्यन्ति यत आत्मागुणाश्रयः॥

हिन्दी अनुवाद:
संसार में साधुजन, चाहे किसी भी द्वंद्व में क्यों न डाले जाएं, न तो व्यथित होते हैं और न ही प्रसन्न। वे अपने आत्मगुणों पर आश्रित रहते हैं।


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे विप्रशापोपलम्भनं नाम्ना अष्टादशोऽध्यायः ॥

इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध में 'विप्र के शाप और राजा के पश्चाताप' नामक अठारहवें अध्याय का समापन होता है।


यह भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टादश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) राजा परीक्षित द्वारा ऋषि शमीक को दिया गया अपमान, उनके पुत्र के क्रोध से दिए गए शाप, और राजा के जीवन में इसके प्रभाव का वर्णन करता है। भागवत प्रथम स्कन्ध, अष्टादश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) हमें साधुओं के सहिष्णु और क्षमाशील स्वभाव की शिक्षा देता है।

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