भागवत प्रथम स्कन्ध, नवदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद)
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श्लोक 1:
महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं
विचिन्तयन् नात्मकृतं सुदुर्मनाः।
अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं
निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि॥
अनुवाद:
राजा परीक्षित, अपने द्वारा किए गए उस निंदनीय कार्य को सोचकर बहुत दुखी हुए। उन्होंने सोचा, "अहो! मैंने अत्यंत नीच और अनार्य जैसा कार्य किया है, वह भी उस निरपराध ब्राह्मण पर, जो अपनी गहन तपस्या और तेज में समाहित था।"
श्लोक 2:
ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनाद्
दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात्।
तदस्तु कामं ह्यघनिष्कृताय मे
यथा न कुर्यां पुनरेवमद्धा॥
अनुवाद:
"निश्चित ही, मेरे इस देवता और ब्राह्मण की उपेक्षा के कारण शीघ्र ही मुझ पर कोई बड़ा संकट आएगा। यह संकट मेरे पापों का प्रायश्चित्त बन जाए, ताकि मैं भविष्य में ऐसा कार्य कभी न करूं।"
श्लोक 3:
अद्यैव राज्यं बलमृद्धकोशं
प्रकोपितब्रह्मकुलानलो मे।
दहत्व भद्रस्य पुनर्न मेऽभूत्
पापीयसी धीर्द्विजदेवगोभ्यः॥
अनुवाद:
"आज ही मेरा राज्य, शक्ति और समृद्ध कोष, इस क्रोधित ब्राह्मण कुल के आग से भस्म हो जाए। परंतु मेरी बुद्धि फिर कभी देवता, ब्राह्मण और गायों के प्रति पापपूर्ण कार्य न करे।"
श्लोक 4:
स चिन्तयन्नित्थमथाशृणोद्यथा
मुनेः सुतोक्तो निर्ऋतिस्तक्षकाख्यः।
स साधु मेने न चिरेण तक्षका-
नलं प्रसक्तस्य विरक्तिकारणम्॥
अनुवाद:
इस प्रकार विचार करते हुए उन्होंने सुना कि ब्राह्मण के पुत्र ने तक्षक नामक सर्प द्वारा शाप दिया है। उन्होंने इसे उचित समझा, क्योंकि यह उन्हें सांसारिक आसक्ति से विरक्त करने का कारण बन सकता था।
श्लोक 5:
अथो विहायेमममुं च लोकं
विमर्शितौ हेयतया पुरस्तात्।
कृष्णाङ्घ्रिसेवामधिमन्यमान
उपाविशत् प्रायममर्त्यनद्याम्॥
अनुवाद:
इसके बाद, उन्होंने इस लोक और परलोक दोनों को हेय (त्याज्य) मानकर त्याग दिया। भगवान कृष्ण के चरणों की सेवा को ही सर्वोच्च मानते हुए वे अमर्त्य गंगा के किनारे उपवास के लिए बैठ गए।
श्लोक 6:
या वै लसच्छ्री तुलसीविमिश्र
कृष्णाङ्घ्रिरेण्वभ्यधिकाम्बुनेत्री।
पुनाति लोकानुभयत्र सेशान्
कस्तां न सेवेत मरिष्यमाणः॥
अनुवाद:
"भगवान कृष्ण के चरणों की रज, जो तुलसी और उनकी दिव्य आभा से युक्त है, दोनों लोकों को पवित्र करती है। ऐसा कौन होगा जो मृत्यु समीप होने पर भी उसकी सेवा न करे?"
श्लोक 7:
इति व्यवच्छिद्य स पाण्डवेयः
प्रायोपवेशं प्रति विष्णुपद्याम्।
दधौ मुकुन्दाङ्घ्रिमनन्यभावो
मुनिव्रतो मुक्तसमस्तसङ्गः॥
अनुवाद:
पांडव वंश के इस राजा ने निश्चय किया और गंगा तट पर प्रायोपवेश (उपवास द्वारा प्राण त्याग) हेतु बैठे। उनका मन केवल भगवान मुकुंद के चरणों में था। उन्होंने मुनिव्रत धारण किया और सभी आसक्तियों से मुक्त हो गए।
श्लोक 8:
तत्रोपजग्मु र्भुवनं पुनाना
महानुभावा मुनयः सशिष्याः।
प्रायेण तीर्थाभिगमापदेशैः
स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः॥
अनुवाद:
उस स्थान पर, महानुभाव ऋषि अपने शिष्यों सहित आए। वे तीर्थों की यात्रा के बहाने आए थे, किंतु वस्तुतः उनके पवित्र चरण स्वयं तीर्थों को भी शुद्ध कर देते हैं।
श्लोक 9:
अत्रिर्वसिष्ठश्च्यवनः शरद्वान्
अरिष्टनेमिर्भृगुरङ्गिराश्च।
पराशरो गाधिसुतोऽथ राम
उतथ्य इन्द्रप्रमदे ध्मवाहौ॥
अनुवाद:
वहां अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, शरद्वान, अरिष्टनेमि, भृगु, अंगिरा, पराशर, विश्वामित्र (गाधि के पुत्र), राम (जमदग्नि पुत्र परशुराम), उतथ्य, इंद्रप्रमद और ध्रुववाहु उपस्थित हुए।
श्लोक 10:
मेधातिथिर्देवल आर्ष्टिषेणो
भारद्वाजो गौतमः पिप्पलादः।
मैत्रेय और्वः कवषः कुम्भयोनिः
द्वैपायनो भगवान् नारदश्च॥
अनुवाद:
इनके अलावा मेधातिथि, देवल, आर्ष्टिषेण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, अगस्त्य (कुंभयोनि), व्यास (द्वैपायन) और भगवान नारद भी वहां उपस्थित हुए।
श्लोक 11:
अन्ये च देवर्षि ब्रह्मर्षि वर्या
राजर्षि वर्या अरुणादयश्च।
नानार्षेयप्रवरान्समेतान्
अभ्यर्च्य राजा शिरसा ववन्दे॥
अनुवाद:
अन्य देवर्षि, ब्रह्मर्षि, श्रेष्ठ राजर्षि और अरुण आदि महर्षि भी वहां उपस्थित हुए। राजा परीक्षित ने उन सभी महान ऋषियों की पूजा की और विनम्रता से सिर झुकाकर प्रणाम किया।
श्लोक 12:
सुखोपविष्टेष्वथ तेषु भूयः
कृतप्रणामः स्वचिकीर्षितं यत्।
विज्ञापयामास विविक्तचेता
उपस्थितोऽग्रेऽभिगृहीतपाणिः॥
अनुवाद:
जब वे सभी ऋषि आराम से आसन ग्रहण कर चुके, तब राजा परीक्षित ने उन्हें प्रणाम किया। फिर शुद्ध चित्त होकर, अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए, हाथ जोड़कर अपनी इच्छाओं को उनके सामने प्रस्तुत किया।
श्लोक 13:
अहो वयं धन्यतमा नृपाणां
महत्तमानुग्रहणीयशीलाः।
राज्ञां कुलं ब्राह्मणपादशौचाद्
दूराद्विसृष्टं बत गर्ह्यकर्म॥
अनुवाद:
राजा ने कहा: "अहो! हम राजा अत्यंत सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें आप जैसे महापुरुषों की कृपा प्राप्त हुई है। हालांकि, राजवंश के लोग ब्राह्मणों के चरणों की शुद्धि से विमुख होकर कभी-कभी निंदनीय कर्मों में लिप्त हो जाते हैं।"
श्लोक 14:
तस्यैव मेऽघस्य परावरेशो
व्यासक्तचित्तस्य गृहेष्वभीक्ष्णम्।
निर्वेदमूलो द्विजशापरूपो
यत्र प्रसक्तो भयमाशु धत्ते॥
अनुवाद:
"मेरे इस पाप के लिए, जो परब्रह्म के प्रति आसक्त हुए बिना, बार-बार सांसारिक विषयों में लिप्त रहा, ऋषि का शाप ही आत्मज्ञान का कारण बना। इससे मुझे भय उत्पन्न हुआ और मैंने वैराग्य धारण किया।"
श्लोक 15:
तं मोपयातं प्रतियन्तु विप्रा
गङ्गा च देवी धृतचित्तमीशे।
द्विजोपसृष्टः कुहकस्तक्षको वा
दशत्वलं गायत विष्णुगाथाः॥
अनुवाद:
"हे विप्रगण! यह शरीर अब भगवान के ध्यान में लीन है। चाहे वह ऋषि के शाप से भेजा गया तक्षक हो या कोई अन्य, मुझे डसने आए। आप लोग भगवान की कथाओं का गान करते रहें।"
श्लोक 16:
पुनश्च भूयाद्भगवत्यनन्ते
रतिः प्रसङ्गश्च तदाश्रयेषु।
महत्सु यां यामुपयामि सृष्टिं
मैत्र्यस्तु सर्वत्र नमो द्विजेभ्यः॥
अनुवाद:
"अनन्त भगवान और उनके भक्तों के प्रति मेरी भक्ति और स्नेह बना रहे। मैं जिन-जिन परिस्थितियों से गुजरूं, सबमें मेरी मित्रता बनी रहे। और मैं सदा ब्राह्मणों को नमन करता रहूं।"
श्लोक 17:
इति स्म राजाध्यवसाययुक्तः
प्राचीनमूलेषु कुशेषु धीरः।
उदङ्मुखो दक्षिणकूल आस्ते
समुद्रपत्न्याः स्वसुतन्यस्तभारः॥
अनुवाद:
इस प्रकार, दृढ़ निश्चय के साथ राजा परीक्षित ने समुद्र रूपी गंगा के तट पर दक्षिण की ओर मुख करके प्राचीन कुशों पर बैठकर प्रायोपवेश आरंभ किया। उन्होंने अपना समस्त भार भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया।
श्लोक 18:
एवं च तस्मिन् नरदेवदेवे
प्रायोपविष्टे दिवि देवसङ्घाः।
प्रशस्य भूमौ व्यकिरन् प्रसूनैः
मुदा मुहुर्दुन्दुभयश्च नेदुः॥
अनुवाद:
जब नरदेव समान राजा परीक्षित ने प्रायोपवेश आरंभ किया, तो स्वर्ग के देवताओं ने उनकी प्रशंसा की। उन्होंने पृथ्वी पर पुष्पों की वर्षा की और हर्ष से बार-बार दुंदुभी (नगाड़े) बजाए।
श्लोक 19:
महर्षयो वै समुपागता ये
प्रशस्य साध्वित्यनुमोदमानाः।
ऊचुः प्रजानुग्रहशीलसारा
यदुत्तमश्लोकगुणाभिरूपम्॥
अनुवाद:
महर्षियों का समूह, जो वहां उपस्थित था, राजा के इस कृत्य की सराहना करता हुआ बोला, "यह राजा प्रजा के प्रति दयालु और स्नेहशील है, और यह उनका भगवान के गुणों के प्रति समर्पण का अद्भुत उदाहरण है।"
श्लोक 20:
न वा इदं राजर्षिवर्य चित्रं
भवत्सु कृष्णं समनुव्रतेषु।
येऽध्यासनं राजकिरीटजुष्टं
सद्यो जहुर्भगवत्पार्श्वकामाः॥
अनुवाद:
"हे राजर्षि! यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आप जैसे कृष्ण के भक्त राजा संसार के ऐश्वर्य और सिंहासन का मोह त्यागकर तुरंत भगवान के समीप जाने की लालसा रखते हैं।"
श्लोक 21:
सर्वे वयं तावदिहास्महेऽद्य
कलेवरं यावदसौ विहाय।
लोकं परं विरजस्कं विशोकं
यास्यत्ययं भागवतप्रधानः॥
अनुवाद:
"हम सभी तब तक यहां रहेंगे जब तक यह महान भागवत राजा परीक्षित इस शरीर को त्यागकर परम पवित्र, शोक-रहित और निर्विकार लोक को प्राप्त नहीं कर लेते।"
श्लोक 22:
आश्रुत्य तद् ऋषिगणवचः परीक्षित्
समं मधुच्युद् गुरु चाव्यलीकम्।
आभाषतैनानभिनन्द्य युक्तान्
शुश्रूषमाणश्चरितानि विष्णोः॥
अनुवाद:
ऋषियों के इन वचनों को सुनकर, राजा परीक्षित ने मधुर और स्नेहयुक्त वाणी में उनका अभिनंदन किया और उनसे भगवान विष्णु के चरित्र सुनने की इच्छा प्रकट की।
श्लोक 23:
समागताः सर्वत एव सर्वे
वेदा यथा मूर्ति धरास्त्रिपृष्ठे।
नेहाथवामुत्र च कश्चनार्थ
ऋते परानुग्रहमात्मशीलम्॥
अनुवाद:
राजा ने कहा: "आप सभी ऋषिगण यहां सभी दिशाओं से आए हैं। आप वेदों के मूर्तिमान स्वरूप हैं। इस लोक और परलोक में कोई अन्य उद्देश्य नहीं हो सकता, सिवाय दूसरों का कल्याण करने के।"
श्लोक 24:
ततश्च वः पृच्छ्यमिमं विपृच्छे
विश्रभ्य विप्रा इति कृत्यतायाम्।
सर्वात्मना म्रियमाणैश्च कृत्यं
शुद्धं च तत्रामृशताभियुक्ताः॥
अनुवाद:
"हे विप्रगण! मैं आपसे निवेदन करता हूं कि कृपया मुझे बताएं कि मरणासन्न मनुष्य के लिए क्या कर्तव्य है। वह क्या करे जिससे उसका चित्त शुद्ध हो और उसे सर्वोच्च गति प्राप्त हो?"
श्लोक 25:
तत्राभवद् भगवान् व्यासपुत्रो
यदृच्छया गामटमानोऽनपेक्षः।
अलक्ष्यलिङ्गो निजलाभतुष्टो
वृतश्च बालैरवधूतवेषः॥
अनुवाद:
उसी समय, भगवान वेदव्यास के पुत्र श्री शुकदेव जी महराज वहां पहुंचे। वे अनायास ही भ्रमण कर रहे थे, किसी भी चीज़ की इच्छा या अपेक्षा से मुक्त थे। उनके साधारण वस्त्र और अलौकिक स्वरूप को देखकर लोग उनकी पहचान नहीं कर पाते थे।
श्लोक 26:
तं द्व्यष्टवर्षं सुकुमारपाद
करोरुबाह्वंसकपोलगात्रम्।
चार्वायताक्षोन्नसतुल्यकर्ण
सुभ्र्वाननं कम्बुसुजातकण्ठम्॥
अनुवाद:
उनकी आयु केवल सोलह वर्ष की थी। उनके कोमल हाथ, पैर, कंधे, भुजाएं और मुखमंडल अत्यंत सुंदर थे। उनकी बड़ी-बड़ी आंखें, उन्नत नाक, सुडौल कान, घने भौंहें, और शंख के समान गला अत्यंत मनोहर था।
श्लोक 27:
निगूढजत्रुं पृथुतुङ्गवक्षसं
आवर्तनाभिं वलिवल्गूदरं च।
दिगम्बरं वक्त्रविकीर्णकेशं
प्रलम्बबाहुं स्वमरोत्तमाभम्॥
अनुवाद:
उनके उन्नत कंधे, चौड़ा और बलशाली वक्षस्थल, गहरा नाभि प्रदेश और कोमल पेट था। वे दिगंबर थे, उनके बाल बिखरे हुए थे, लंबी भुजाएं थीं, और उनका स्वरूप अत्यंत तेजस्वी और अद्भुत था।
श्लोक 28:
श्यामं सदापीच्यवयोऽङ्गलक्ष्म्या
स्त्रीणां मनोज्ञं रुचिरस्मितेन।
प्रत्युत्थितास्ते मुनयः स्वासनेभ्यः
तल्लक्षणज्ञा अपि गूढवर्चसम्॥
अनुवाद:
उनका शरीर श्याम वर्ण का था और उनकी आयु किशोर अवस्था की प्रतीत होती थी। उनका आकर्षक रूप और सुंदर मुस्कान स्त्रियों के लिए अत्यंत मनोहारी थी। वहां उपस्थित मुनिगण, जो उनके दिव्य गुणों को जानते थे, उन्हें देखकर आदरपूर्वक अपनी सीट से उठ खड़े हुए।
श्लोक 29:
स विष्णुरातोऽतिथय आगताय
तस्मै सपर्यां शिरसाऽऽजहार।
ततो निवृत्ता ह्यबुधाः स्त्रियोऽर्भका
महासने सोपविवेश पूजितः॥
अनुवाद:
राजा परीक्षित ने उस अतिथि रूप में आए दिव्यात्मा श्री शुकदेव जी का आदरपूर्वक स्वागत किया और उनके प्रति सिर झुकाकर सम्मान अर्पित किया। अन्य स्त्रियां और बालक, जो अनभिज्ञ थे, वहां से हट गए, और शुकदेव जी आदरपूर्वक बड़े आसन पर विराजमान हो गए।
श्लोक 30:
स संवृतस्तत्र महान् महीयसां
ब्रह्मर्षिराजर्षिदेवर्षिसङ्घैः।
व्यरोचतालं भगवान् यथेन्दुः
ग्रहर्क्षतारानिकरैः परीतः॥
अनुवाद:
शुकदेव जी ब्रह्मर्षि, राजर्षि और देवर्षियों के समूह से घिरे हुए थे। वे ऐसे तेजस्वी प्रतीत हो रहे थे, जैसे ग्रह, नक्षत्र और तारों से घिरे चंद्रमा हों।
श्लोक 31:
प्रशान्तमासीनमकुण्ठमेधसं
मुनिं नृपो भागवतोऽभ्युपेत्य।
प्रणम्य मूर्ध्नावहितः कृताञ्जलिः
नत्वा गिरा सूनृतयान्वपृच्छत्॥
अनुवाद:
शांतचित्त और दिव्य बुद्धि से युक्त मुनि श्री शुकदेव जी के पास जाकर राजा परीक्षित ने सिर झुकाकर और हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। फिर विनम्र और मधुर वाणी में उनसे प्रश्न किया।
श्लोक 32:
अहो अद्य वयं ब्रह्मन् सत्सेव्याः क्षत्रबन्धवः।
कृपयातिथिरूपेण भवद्भिस्तीर्थकाः कृताः॥
अनुवाद:
राजा ने कहा: "हे ब्रह्मर्षि! आज हम क्षत्रिय, जो साधारण व्यक्ति हैं, धन्य हो गए, क्योंकि आप जैसे महान योगी हमारे अतिथि के रूप में पधारे। आपके आगमन से यह स्थान तीर्थ बन गया है।"
श्लोक 33:
येषां संस्मरणात् पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः।
किं पुनर्दर्शनस्पर्श पादशौचासनादिभिः॥
अनुवाद:
"जिनका केवल स्मरण ही मनुष्यों और उनके घरों को तुरंत शुद्ध कर देता है, उनके दर्शन, स्पर्श, चरण प्रक्षालन और आसन ग्रहण से तो और भी बड़ी शुद्धि होती है।"
श्लोक 34:
सान्निध्यात्ते महायोगिन् पातकानि महान्त्यपि।
सद्यो नश्यन्ति वै पुंसां विष्णोरिव सुरेतराः॥
अनुवाद:
"हे महायोगी! आपके सान्निध्य मात्र से ही मनुष्यों के बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं, जैसे भगवान विष्णु के चरणों की उपस्थिति से असुरों का नाश हो जाता है।"
श्लोक 35:
अपि मे भगवान् प्रीतः कृष्णः पाण्डुसुतप्रियः।
पैतृष्वसेयप्रीत्यर्थं तद्गोत्रस्यात्तबान्धवः॥
अनुवाद:
"क्या मेरे लिए भगवान कृष्ण, जो पांडवों के सखा और प्रिय थे, प्रसन्न हैं? वे हमारे पितामह अर्जुन के कारण हम पर कृपा करते थे।"
श्लोक 36:
अन्यथा तेऽव्यक्तगतेः दर्शनं नः कथं नृणाम्।
नितरां म्रियमाणानां संसिद्धस्य वनीयसः॥
अनुवाद:
"अन्यथा, आपके जैसे दिव्य आत्मा का दर्शन हम जैसे साधारण मनुष्यों को कैसे प्राप्त हो सकता था, विशेषकर मुझे, जो मरणासन्न हूं?"
श्लोक 37:
अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम्।
पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा॥
अनुवाद:
"इसलिए, हे परम गुरु! मैं आपसे पूछता हूं कि मरणासन्न मनुष्य का सर्वोत्तम कर्तव्य क्या है? उसे क्या करना चाहिए जिससे वह परम सिद्धि प्राप्त कर सके?"
श्लोक 38:
यच्छ्रोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो।
स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम्॥
अनुवाद:
"कृपया मुझे बताएं कि ऐसे समय में कौन-सी बातें सुननी चाहिए, कौन-से मंत्र जपने चाहिए, कौन-से कार्य करने चाहिए, किसका स्मरण और भजन करना चाहिए, और कौन से कार्य त्याज्य हैं।"
श्लोक 39:
नूनं भगवतो ब्रह्मन् गृहेषु गृहमेधिनाम्।
न लक्ष्यते ह्यवस्थानं अपि गोदोहनं क्वचित्॥
अनुवाद:
"हे ब्रह्मर्षि! निश्चित ही, गृहस्थों के जीवन में भगवान का ध्यान रखने का समय बहुत कम होता है, इतना कम कि गाय का दोहन जितना समय भी नहीं मिल पाता।"
श्लोक 40:
एवमाभाषितः पृष्टः स राज्ञा श्लक्ष्णया गिरा।
प्रत्यभाषत धर्मज्ञो भगवान् बादरायणिः॥
अनुवाद:
राजा के इस विनम्र और मधुर प्रश्न को सुनकर, धर्मज्ञ और महान आत्मा श्री शुकदेव जी ने उत्तर दिया।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे शुकागमनं नाम एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के पारमहंस संहिता के प्रथम स्कंध में "शुकदेव जी का आगमन" नामक उन्नीसवां अध्याय पूर्ण हुआ।
भागवत प्रथम स्कन्ध, नवदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) का हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत किया गया। यहाँ भागवत प्रथम स्कन्ध, नवदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) के सभी श्लोकों का अलग अलग हिन्दी अनुवाद दिया गया है। यदि भागवत प्रथम स्कन्ध, नवदश अध्याय(हिन्दी अनुवाद) से सम्बन्धित और जानकारी चाहिए तो कमेंट करें।