संस्कृत श्लोक: "खलः सत्क्रियमाणोऽपि ददाति कलहं सताम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "खलः सत्क्रियमाणोऽपि ददाति कलहं सताम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "खलः सत्क्रियमाणोऽपि ददाति कलहं सताम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

संस्कृत श्लोक: "खलः सत्क्रियमाणोऽपि ददाति कलहं सताम्" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

श्लोक:

खलः सत्क्रियमाणोऽपि ददाति कलहं सताम्।
दुग्धधौतोऽपि किं याति वायसः कलहंसताम्॥


पदच्छेद एवं प्रत्येक शब्द का अर्थ:

  1. खलः → दुष्ट व्यक्ति, नीच व्यक्ति

  2. सत्क्रियमाणः → सत्कर्म किए जाने पर, भलाई करने पर

  3. अपि → भी, यद्यपि

  4. ददाति → देता है, उत्पन्न करता है

  5. कलहं → झगड़ा, विवाद

  6. सताम् → सज्जनों के लिए, संत लोगों के लिए

  7. दुग्धधौत: → दूध से धुला हुआ

    • दुग्ध → दूध
    • धौत: → धोया हुआ
  8. अपि → भी

  9. किं → क्या

  10. याति → जाता है, प्राप्त करता है

  11. वायसः → कौआ

  12. कलहंसताम् → राजहंस की स्थिति, राजहंस जैसा होना


हिन्दी अनुवाद:

"दुष्ट व्यक्ति को भलाई करने पर भी वह सज्जनों के लिए झगड़ा ही उत्पन्न करता है। जैसे दूध से बार-बार धोने पर भी कौआ राजहंस नहीं बन सकता।"


भावार्थ:

इस श्लोक में यह बताया गया है कि दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव कभी नहीं बदलता। चाहे उसे कितनी भी भलाई दिखाई जाए, वह फिर भी दूसरों के लिए विवाद और अशांति ही पैदा करेगा। इसी प्रकार, कौआ चाहे कितनी ही बार दूध से धोया जाए, वह कभी राजहंस नहीं बन सकता, क्योंकि उसकी मूल प्रकृति नहीं बदलती।

कहानी: नीच व्यक्ति की प्रवृत्ति

पुराने समय की बात है। एक संत अपने शिष्यों के साथ एक वन में आश्रम बनाकर रहते थे। वे सभी जीवों के प्रति दयालु थे और सदैव परोपकार में लगे रहते थे। उसी वन में एक धूर्त और कपटी व्यक्ति ‘कल्लू’ भी रहता था। वह लोगों को धोखा देने, झगड़ा कराने और लड़ाई-फसाद में आनंद लेता था।

एक दिन संत के शिष्य बोले, "गुरुदेव, यदि किसी दुष्ट व्यक्ति को प्रेम और सन्मार्ग दिखाया जाए, तो क्या वह सुधर सकता है?"

संत मुस्कुराए और बोले, "आओ, मैं तुम्हें एक प्रयोग करके दिखाता हूँ।"

उन्होंने अपने शिष्यों को कल्लू के घर भेजा और कहा, "जाओ, उसे प्रेमपूर्वक भोजन, वस्त्र और शांति का उपदेश दो। देखो, उसका व्यवहार बदलता है या नहीं।"

शिष्य गए और कल्लू को प्रेम से बुलाया। उसे स्वादिष्ट भोजन दिया, अच्छे वस्त्र पहनाए, और ज्ञान की बातें समझाईं। कुछ दिन तक वह संत के पास रुका। शिष्य सोचने लगे कि शायद अब वह सुधर गया है।

किन्तु एक दिन, आश्रम में बैठे संतों और शिष्यों के बीच ही कल्लू ने झगड़ा करवा दिया। उसने एक शिष्य से जाकर कहा, "गुरुजी तो तुमसे ज्यादा प्रेम करते हैं, लेकिन दूसरे शिष्य तुम्हारे खिलाफ बातें करते हैं।" फिर दूसरे शिष्य से जाकर कुछ और कह दिया। धीरे-धीरे सबमें मतभेद होने लगे और आश्रम का शांत वातावरण बिगड़ने लगा।

संत ने यह देखा और अपने शिष्यों को बुलाकर कहा, "देखो, मैं तुमसे पहले ही कह चुका था कि नीच व्यक्ति का स्वभाव नहीं बदलता।"

इसके बाद उन्होंने वही श्लोक सुनाया—
"खलः सत्क्रियमाणोऽपि ददाति कलहं सताम्।
दुग्धधौतोऽपि किं याति वायसः कलहंसताम्॥"

फिर वे बोले, "जैसे बार-बार दूध से धोने पर भी कौआ राजहंस नहीं बन सकता, वैसे ही दुष्ट व्यक्ति पर कितना भी उपकार करो, वह अपने स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करेगा।"

शिष्य समझ गए कि केवल बाहरी सुधार से किसी का स्वभाव नहीं बदल सकता। सच्चा परिवर्तन तभी संभव है जब व्यक्ति स्वयं सुधारना चाहे।

सीख:

"दुष्ट व्यक्ति को कितना भी सन्मार्ग दिखाया जाए, यदि वह स्वयं न सुधरना चाहे, तो वह हमेशा दूसरों के लिए कलह ही उत्पन्न करेगा।"


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