भिक्षु गीत: भागवत की पांच प्रमुख गीतों में से एक, अर्थ और व्याख्या सहित

Sooraj Krishna Shastri
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भिक्षु गीत: भागवत की पांच प्रमुख गीतों में से एक, अर्थ और व्याख्या सहित
भिक्षु गीत: भागवत की पांच प्रमुख गीतों में से एक, अर्थ और व्याख्या सहित

भिक्षु गीत: भागवत की पांच प्रमुख गीतों में से एक, अर्थ और व्याख्या सहित

द्विज उवाच (ब्राह्मण ने कहा)

श्लोक 42:

नायं जनो मे सुखदुःखहेतु-
र्न देवतात्मा ग्रहकर्मकालाः।
मनः परं कारणमामनन्ति
संसारचक्रं परिवर्तयेद्यत् ॥

हिन्दी अनुवाद:

न तो यह संसार के लोग, न ही देवता, न ग्रह, न कर्म और न ही काल – ये सभी मेरे सुख-दुःख के कारण हैं। मन ही सबसे प्रमुख कारण बताया गया है, क्योंकि वही इस संसारचक्र को घुमाता है।


श्लोक 43:

मनो गुणान्वै सृजते बलीय-
स्ततश्च कर्माणि विलक्षणानि।
शुक्लानि कृष्णान्यथ लोहितानि
तेभ्यः सवर्णाः सृतयो भवन्ति ॥

हिन्दी अनुवाद:

मन अत्यंत बलशाली होता है और वह गुणों (सत्त्व, रज, तम) को उत्पन्न करता है। उन्हीं गुणों से विभिन्न प्रकार के कर्म उत्पन्न होते हैं – श्वेत (सात्त्विक), कृष्ण (तामसिक) और लोहित (राजसिक)। इन्हीं कर्मों से जीवों की विभिन्न गतियाँ (जन्म-मरण के चक्र) उत्पन्न होती हैं।


श्लोक 44:

अनीह आत्मा मनसा समीहता
हिरण्मयो मत्सख उद्विचष्टे।
मनः स्वलिङ्गं परिगृह्य कामा-
न्जुषन्निबद्धो गुणसङ्गतोऽसौ ॥

हिन्दी अनुवाद:

आत्मा तो इच्छाओं से रहित है, लेकिन मन के प्रभाव में आकर इच्छाएँ करता प्रतीत होता है। यह स्वर्णिम आत्मा (शुद्ध चेतना) मन को ही अपना स्वरूप मानकर विषयों में आसक्त हो जाता है और गुणों के बंधन में बंध जाता है।


श्लोक 45:

दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च
श्रुतं च कर्माणि च सद्व्रतानि।
सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः
परो हि योगो मनसः समाधिः ॥

हिन्दी अनुवाद:

दान, स्वधर्म का पालन, नियम (नैतिक आचरण), यम (संयम), शास्त्रों का अध्ययन, शुभ कर्म और व्रत – ये सभी मन को वश में करने के लिए हैं। वास्तविक योग वही है जिसमें मन की पूर्णतः समाधि लग जाती है।


श्लोक 46:

समाहितं यस्य मनः प्रशान्तं
दानादिभिः किं वद तस्य कृत्यम्।
असंयतं यस्य मनो विनश्य-
द्दानादिभिश्चेदपरं किमेभिः ॥

हिन्दी अनुवाद:

जिसका मन पूर्णतः स्थिर और शांत हो गया है, उसके लिए दान आदि कर्मों की क्या आवश्यकता? और जिसका मन वश में नहीं है, उसके लिए दान आदि भी व्यर्थ हैं, क्योंकि वह अंततः विनाश को प्राप्त होगा।


श्लोक 47:

मनोवशेऽन्ये ह्यभवन्स्म देवा
मनश्च नान्यस्य वशं समेति।
भीष्मो हि देवः सहसः सहीया-
न्युञ्ज्याद्वशे तं स हि देवदेवः ॥

हिन्दी अनुवाद:

जो भी देवता महान बने, वे अपने मन को वश में करने के कारण ही बने। लेकिन मन स्वयं किसी के वश में नहीं आता। जो व्यक्ति प्रबल संकल्प और अभ्यास से इसे वश में कर लेता है, वही वास्तव में महान और देवताओं का भी देव बन जाता है।


श्लोक 48:

तं दुर्जयं शत्रुमसह्यवेग-
मरुन्तुदं तन्न विजित्य केचित्।
कुर्वन्त्यसद्विग्रहमत्र मर्त्यै-
र्मित्राण्युदासीनरिपून्विमूढाः ॥

हिन्दी अनुवाद:

मन अत्यंत दुर्जेय (जीतने में कठिन), प्रबल वेग वाला और चंचल शत्रु है। जो इसे वश में नहीं कर पाते, वे इस संसार में मित्र, शत्रु और उदासीन व्यक्तियों के साथ व्यर्थ में ही संघर्ष करते रहते हैं।


श्लोक 49:

देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वा
ममाहमित्यन्धधियो मनुष्याः।
एषोऽहमन्योऽयमिति भ्रमेण
दुरन्तपारे तमसि भ्रमन्ति ॥

हिन्दी अनुवाद:

इस देह को ही मन का स्वरूप मानकर, अज्ञानी मनुष्य ‘मैं’ और ‘मेरा’ की भावना से भ्रमित रहते हैं। वे ‘मैं यह हूँ’ और ‘वह दूसरा है’ – ऐसे भेदभाव के कारण अज्ञान रूपी घोर अंधकार में भटकते रहते हैं।


श्लोक 50:

जनस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनश्चात्र हि भौमयोस्तत्।
जिह्वां क्वचित्सन्दशति स्वदद्भि-
स्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत् ॥

हिन्दी अनुवाद:

यदि सुख-दुःख का कारण अन्य लोग हैं, तो आत्मा का इसमें क्या दोष? जैसे जीभ गलती से अपने ही दाँतों से कट जाती है, तो उस पीड़ा के लिए कोई दाँत पर क्रोध नहीं करता।


श्लोक 57:

एतां स आस्थाय परात्मनिष्ठा-
ध्यासितां पूर्वतमैर्महर्षिभिः।
अहं तरिष्यामि दुरन्तपारं
तमो मुकुन्दाङ्घ्रिनिषेवयैव ॥

हिन्दी अनुवाद:

जो महर्षियों द्वारा आचरण में लाई गई इस परमात्मा में निष्ठा रूपी साधना को अपनाते हैं, वे इस अज्ञान के सागर को पार कर सकते हैं। मैं भी इसी मार्ग को अपनाकर इस अंधकारमय संसार-सागर को पार करूँगा, केवल भगवान मुकुंद के चरणों की सेवा के द्वारा।


श्रीभगवानुवाच (भगवान श्रीकृष्ण ने कहा)

श्लोक 58:

निर्विद्य नष्टद्रविणे गतक्लमः
प्रव्रज्य गां पर्यटमान इत्थम्।
निराकृतोऽसद्भिरपि स्वधर्मा-
दकम्पितोऽमूं मुनिराह गाथाम् ॥

हिन्दी अनुवाद:

जो व्यक्ति संसार से विरक्त होकर, धन-सम्पत्ति खोकर और सभी कष्टों को सहन कर, इस पृथ्वी पर संन्यासी के रूप में विचरण करता है, उसे असत् लोग अपमानित कर सकते हैं, लेकिन वह अपने धर्म से विचलित नहीं होता।


श्लोक 59:

सुखदुःखप्रदो नान्यः पुरुषस्यात्मविभ्रमः।
मित्रोदासीनरिपवः संसारस्तमसः कृतः ॥

हिन्दी अनुवाद:

मनुष्य के सुख-दुःख का कोई बाहरी कारण नहीं है, बल्कि यह आत्मा का भ्रम है। संसार में मित्र, शत्रु और उदासीन की धारणा केवल अज्ञानता के कारण उत्पन्न होती है।


श्लोक 60:

तस्मात्सर्वात्मना तात निगृहाण मनो धिया।
मय्यावेशितया युक्त एतावान्योगसङ्ग्रहः ॥

हिन्दी अनुवाद:

इसलिए, हे तात! अपने मन को पूरी बुद्धि से वश में करो और उसे मुझमें ही लगा दो। यही योग का सार है।

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