भागवत कथा: स्यमन्तक मणि की कथा, भागवत

Sooraj Krishna Shastri
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भागवत कथा: स्यमन्तक मणि की कथा, भागवत
भागवत कथा: स्यमन्तक मणि की कथा, भागवत


भागवत कथा: स्यमन्तक मणि की कथा, भागवत

स्यमंतक मणि की कथा श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंध (अध्याय 56 और 57) में वर्णित है। यह कथा भगवान श्रीकृष्ण की लीला और उनके न्यायप्रिय स्वभाव का अद्भुत उदाहरण है। यह मणि धन, सुख, और समृद्धि की प्रतीक थी, लेकिन इसे लेकर कई संघर्ष हुए। श्रीकृष्ण ने इस मणि को लेकर उत्पन्न विवादों को समाप्त कर धर्म और न्याय की स्थापना की।

स्यमंतक मणि कथा का विस्तार:

1. स्यमंतक मणि का परिचय:

स्यमंतक मणि सूर्यदेव की एक दिव्य मणि थी, जिसे उन्होंने सत्राजित नामक यदुवंशी राजा को दिया था। यह मणि अद्भुत थी और इसे धारण करने वाले को प्रतिदिन आठ भार (लगभग 170 पाउंड) सोना प्रदान करती थी।

श्लोक: सत्राजिच्छ्रियं लब्ध्वा सूर्याद्धरतलप्रभाम्। न्यवेशयत् स्वकं गेहमभूत्सूर्योपमद्युतिः॥ (श्रीमद्भागवत 10.56.3)

अर्थ: सत्राजित ने सूर्यदेव की कृपा से स्यमंतक मणि प्राप्त की, जिससे उसका तेज सूर्य के समान हो गया।


2. श्रीकृष्ण का सत्राजित को सुझाव:

सत्राजित ने मणि को अपने पास ही रखा, जबकि श्रीकृष्ण ने सुझाव दिया कि इस मणि को द्वारका के राजा उग्रसेन को सौंप देना चाहिए ताकि इसका लाभ समस्त यदुवंशियों को मिल सके। लेकिन सत्राजित ने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।


3. मणि के कारण प्रसन्नता और दुख:

सत्राजित का भाई प्रसेन मणि पहनकर शिकार के लिए गया, लेकिन जंगल में उसे एक शेर ने मार डाला और मणि छीन ली। बाद में वह शेर जाम्बवान (रामायण के जाम्बवान) द्वारा मारा गया, और जाम्बवान ने मणि अपने गुफा में सुरक्षित रख ली।

श्लोक: तं सिंहो हत्वा जगृहे मणिं च जाम्बवान्ददौ गहने स्वशैले। (श्रीमद्भागवत 10.56.10)

अर्थ: शेर ने प्रसेन को मारकर मणि छीन ली, और शेर को जाम्बवान ने मारकर मणि को अपनी गुफा में सुरक्षित रखा।


4. श्रीकृष्ण पर आरोप:

प्रसेन के न लौटने पर, सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर मणि चोरी करने का झूठा आरोप लगाया। श्रीकृष्ण ने इस अपमान को सहन किया और सत्य की खोज के लिए स्वयं जंगल गए।

श्लोक: तत्कृष्णं मन्यते सर्वः सत्राजित्कृतदोषवत्। स त्रयीं च निबोधाय जगाम द्रष्टुमाययौ॥ (श्रीमद्भागवत 10.56.12)

अर्थ: सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर मणि चोरी करने का दोषारोपण किया, लेकिन श्रीकृष्ण ने सत्य का पता लगाने का निश्चय किया।


5. श्रीकृष्ण का जाम्बवान से युद्ध:

श्रीकृष्ण ने जंगल में प्रसेन के शव और शेर के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए जाम्बवान की गुफा तक पहुंच गए। जाम्बवान ने श्रीकृष्ण को पहचान नहीं पाया और दोनों के बीच 21 दिनों तक घोर युद्ध हुआ। अंततः जाम्बवान ने श्रीकृष्ण को पहचान लिया और मणि लौटा दी।

श्लोक: कृतं च तेन कृष्णेन द्वाविंशत्यां युगेन वै। जाम्बवान्विजयो प्राप्तस्तं च पार्थिवमणिं हरेः॥ (श्रीमद्भागवत 10.56.17)

अर्थ: 21 दिनों के कठिन युद्ध के बाद, जाम्बवान ने श्रीकृष्ण को पहचान लिया और मणि उन्हें समर्पित की।


6. श्रीकृष्ण का सत्य की स्थापना:

श्रीकृष्ण ने स्यमंतक मणि को द्वारका लौटाकर सत्राजित को सौंप दिया और झूठे आरोपों का खंडन किया। सत्राजित ने अपनी गलती स्वीकार की और अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।

श्लोक: ददौ सत्यां च कृष्णाय सत्राजित्सह पार्थिवम्। मणिं च तेन संरक्ष्य स्वसद्मनि न्यवेशयत्॥ (श्रीमद्भागवत 10.56.34)

अर्थ: सत्राजित ने अपनी पुत्री सत्यभामा और मणि श्रीकृष्ण को भेंट कर अपनी गलती का प्रायश्चित किया।


स्यमंतक मणि से संबंधित अन्य घटनाएं:

1. सत्राजित का वध:

बाद में सत्राजित का वध शतधन्वा नामक व्यक्ति ने कर दिया, जो मणि को चुराना चाहता था। शतधन्वा ने मणि छिपा दी और भाग गया। श्रीकृष्ण और बलराम ने उसका पीछा कर उसे मार डाला, लेकिन मणि उन्हें नहीं मिली।

2. मणि का पुनः प्राप्त होना:

बाद में श्रीकृष्ण को पता चला कि मणि अकृतवर्ण नामक व्यक्ति के पास है। श्रीकृष्ण ने मणि को पुनः प्राप्त कर लिया और इसे उग्रसेन को सौंप दिया।


स्यमंतक मणि कथा का संदेश:

  1. धर्म और सत्य की स्थापना: श्रीकृष्ण ने झूठे आरोपों और अन्याय का सामना करते हुए भी धर्म और सत्य को स्थापित किया।
  2. अहंकार का नाश: सत्राजित का मणि को अपने पास रखने का अहंकार ही उसके कष्टों का कारण बना। अंततः उसने अपनी गलती स्वीकार की।
  3. समर्पण और क्षमा: जाम्बवान ने अपनी गलती स्वीकार कर श्रीकृष्ण को मणि सौंपी और अपनी पुत्री जाम्बवती का विवाह भी श्रीकृष्ण से किया।
  4. राजनीतिक और सामाजिक न्याय: श्रीकृष्ण ने मणि को व्यक्तिगत उपयोग में न रखते हुए इसे उग्रसेन को सौंप दिया, जिससे समाज में समृद्धि और न्याय बना रहे।

निष्कर्ष:

स्यमंतक मणि की कथा श्रीकृष्ण की न्यायप्रियता और धर्म की स्थापना के प्रति उनकी निष्ठा का परिचायक है। यह कथा सिखाती है कि सत्य और धर्म का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए, चाहे परिस्थितियां कितनी भी कठिन क्यों न हों। यह कथा भक्ति, समर्पण और अहंकार से मुक्त होने का संदेश देती है।


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