संस्कृत श्लोक: "सत्यं देवाः समासेन मनुष्यास्त्वनृतं स्मृताः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

Sooraj Krishna Shastri
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संस्कृत श्लोक: "सत्यं देवाः समासेन मनुष्यास्त्वनृतं स्मृताः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
संस्कृत श्लोक: "सत्यं देवाः समासेन मनुष्यास्त्वनृतं स्मृताः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

संस्कृत श्लोक: "सत्यं देवाः समासेन मनुष्यास्त्वनृतं स्मृताः" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद

श्लोक:

सत्यं देवाः समासेन मनुष्यास्त्वनृतं स्मृताः ।
इहैव तस्य देवत्वं यस्य सत्ये स्थिता मतिः ॥


1. हिन्दी अनुवाद:

देवताओं को संक्षेप में सत्य कहा गया है, और मनुष्यों को असत्य कहा गया है। इस संसार में वही देवत्व प्राप्त करता है, जिसकी बुद्धि सदा सत्य में स्थित रहती है।


2. शाब्दिक विश्लेषण:

  • सत्यं (सत्य) → सत्यस्वरूप, शुद्ध, निष्कलंक
  • देवाः (देवता) → दिव्य गुणों से युक्त व्यक्ति, श्रेष्ठ आत्माएँ
  • समासेन (संक्षेप में) → संक्षिप्त रूप में, सार रूप में
  • मनुष्याः (मनुष्य) → सांसारिक प्राणी, मर्त्यलोक के जीव
  • त्वनृतं (असत्य) → असत्य, मिथ्या, कपटयुक्त
  • स्मृताः (कहा गया है) → ऐसा माना गया है, शास्त्रों में उल्लेख किया गया है
  • इहैव (यहीं, इस संसार में) → इसी लोक में, इसी जीवन में
  • तस्य (उसका) → उस व्यक्ति का
  • देवत्वं (दैवी स्वरूप) → दिव्यता, देवता के गुण, श्रेष्ठता
  • यस्य (जिसका) → जिस व्यक्ति का
  • सत्ये (सत्य में) → सत्य के प्रति, सच्चाई के मार्ग पर
  • स्थिता (स्थित है) → जमी हुई, स्थिर
  • मतिः (बुद्धि, विचारधारा) → सोच, चिंतन, निर्णय करने की शक्ति

3. व्याकरणिक संरचना:

  1. "सत्यं देवाः"कर्तृ-कर्तरि समास (सत्य ही देवता हैं)।
  2. "मनुष्यास्त्वनृतं स्मृताः"तत्पुरुष समास (मनुष्य असत्य रूप कहे गए हैं)।
  3. "यस्य सत्ये स्थिता मतिः"षष्ठी तत्पुरुष समास (जिसकी बुद्धि सत्य में स्थित है)।
  4. "इहैव तस्य देवत्वं" – यहाँ अव्ययीभाव समास है, "इह एव" का अर्थ "इसी लोक में" है।

4. व्याख्या:

(i) सत्य और देवत्व का संबंध

  • शास्त्रों के अनुसार, देवता वे होते हैं जो सत्य, धर्म और उच्च नैतिक मूल्यों में स्थित रहते हैं।
  • सत्य केवल बाहरी आचरण का विषय नहीं है, बल्कि मानसिक और आत्मिक स्तर पर भी सत्य के प्रति निष्ठा आवश्यक है।
  • जो व्यक्ति हर परिस्थिति में सत्य का पालन करता है, उसमें दैवीय गुण (Divine Qualities) विकसित हो जाते हैं और वह देवतुल्य बन जाता है।

(ii) मनुष्य और असत्य का संबंध

  • सामान्य रूप से मनुष्यों को असत्य, मोह, छल-कपट और सांसारिक माया में लिप्त कहा गया है।
  • यह असत्य केवल झूठ बोलने तक सीमित नहीं है, बल्कि स्वार्थ, लोभ, अधर्म, और अन्याय को भी इसमें शामिल किया जाता है।
  • जब मनुष्य केवल अपने स्वार्थ को देखने लगता है, तो वह सत्य से विमुख होकर असत्य के मार्ग पर चलने लगता है।

(iii) सत्य में स्थित बुद्धि का प्रभाव

  • जो व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है, उसकी बुद्धि स्थिर रहती है, वह मोह, भय, क्रोध, और लालच से मुक्त होता है।
  • ऐसे व्यक्ति के विचारों में स्थिरता और शुद्धता होती है, जिससे वह इस संसार में ही देवत्व प्राप्त कर सकता है

5. आधुनिक सन्दर्भ में प्रासंगिकता:

(i) नैतिकता और ईमानदारी का महत्व

आज के समय में सत्य के मार्ग पर चलना कठिन होता जा रहा है। लोग झूठ, छल-कपट और धूर्तता से सफल होने की सोचते हैं। लेकिन सत्यप्रिय व्यक्ति ही समाज में दीर्घकाल तक सम्मान पाता है।

(ii) सत्य से आत्मिक और मानसिक शांति

  • झूठ बोलने वाला व्यक्ति हमेशा चिंता में रहता है, जबकि सत्यवादी व्यक्ति निडर होता है।
  • सत्य की साधना करने से मानसिक शांति, संतोष और आत्मिक उन्नति मिलती है।

(iii) सत्य और नेतृत्व

  • महान व्यक्तित्व जैसे महात्मा गांधी, अब्राहम लिंकन, रामकृष्ण परमहंस, और संत तुलसीदास ने सत्य को ही अपने जीवन का आधार बनाया और समाज के लिए प्रेरणा बने।
  • जो नेता या व्यक्ति सत्य के मार्ग पर चलता है, वह जनता का सच्चा सेवक और पथ-प्रदर्शक बनता है।

6. निष्कर्ष:

  • सत्य देवत्व की ओर ले जाता है, और असत्य मनुष्य को अधोगति की ओर
  • जो व्यक्ति सत्य में स्थित रहता है, वह इसी जीवन में दिव्य गुणों से युक्त होकर महानता प्राप्त कर सकता है।
  • इस श्लोक का संदेश है कि हम सत्य, न्याय और नैतिकता के मार्ग पर चलें, जिससे हमें आत्मिक शांति, समाज में सम्मान और जीवन में सच्ची सफलता प्राप्त हो।

भावार्थ:

👉 जो सत्य में स्थित है, वही देवत्व प्राप्त करता है।
👉 देवत्व कहीं बाहर नहीं, बल्कि सत्य, धर्म और नैतिकता के पालन में है।
👉 इसलिए सत्य के मार्ग पर चलना ही हमें मनुष्यता से देवत्व की ओर ले जाता है।

"सत्यमेव जयते" – सत्य की ही सदा विजय होती है।

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