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महादेव की चिंता और नारायण की लीला |
महादेव की चिंता और नारायण की लीला
एक बार देवर्षि नारद भ्रमण करते-करते कैलाश पहुँचे। परंतु इस बार वहाँ का वातावरण सामान्य नहीं था। कैलाश सदैव उल्लास और चैतन्य से भरा रहता था, किंतु इस बार न तो वह परमशांति दिख रही थी, न ही परमानंद की लहरें प्रवाहित हो रही थीं। नारद की प्रवृत्ति सदैव परिस्थितियों को गहराई से समझने की रही है। यह परिवर्तन देख वे चिंतित हो उठे और शीघ्रता से महादेव के पास पहुँचे।
शिव की अद्भुत मुद्रा
वहाँ उन्होंने देखा कि शिव एक शिला पर अनमने से बैठे हैं—एक पैर मोड़े, दूसरा नीचे लटकाए, मोड़े हुए पैर पर कोहनी टिकाए, और हथेली पर ठुड्डी रखे। उनकी जटाएँ एक ओर झुकी हुई थीं, और उन पर स्थित चंद्रमा भी असंतुलित-सा प्रतीत हो रहा था। उनके गले का वासुकी नाग भी जैसे-तैसे अपने को स्थिर रखने का प्रयास कर रहा था।
नारद ने आदरपूर्वक ‘नारायण, नारायण’ कहकर शिव का अभिवादन किया, किंतु यह क्या! महादेव ने न तो नेत्र खोले और न ही अधरों पर सदैव की भाँति मुस्कान खिली। यह उनके लिए प्रथम अवसर था, जब शिव ने नारायण का स्मरण सुनकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। अबकी बार नारद ने तनिक ऊँचे स्वर में पुनः अभिवादन किया, किंतु परिणाम वही रहा—महादेव उसी चिंतामग्न मुद्रा में स्थिर रहे।
वासुकी का उत्तर
तभी वासुकी नाग धीरे-धीरे सरकते हुए उनके गले से उतरकर देवर्षि के पास आए और देवरूप धारण कर प्रणाम करते हुए बोले—
"देवर्षि, कैलाश पर आपका स्वागत है! कृपया विराजें।"
नारद मुस्कराए और बोले—
"मेरे चरण तो रथ के पहिए हैं, मित्र! मैं खड़ा ही भला। तुम तो यह बताओ कि कैलाश को क्या हुआ है? महादेव इस भाँति चिंतित क्यों हैं? और तुम यहाँ कैसे? आचार्य नंदी कहाँ हैं?"
वासुकी मुस्कराए और बोले—
"यह सब आपके नारायण की कृपा है! वे भूलोक में लीलाएँ कर रहे हैं, और इधर अन्य सारे लोक खाली हो रहे हैं। सबको ही ब्रज जाना है। नंदी भी वहीं गए हैं।"
नारद चकित हुए—
"तो फिर महादेव को किस चिंता ने घेर रखा है?"
वासुकी ने उत्तर दिया—
"महादेव इस बात से व्याकुल हैं कि इस बार कृष्णावतार में उनके लिए कोई स्थान, कोई सेवा निर्धारित नहीं हुई! पिछली बार जब वे अंशावतार रूप में थे, तब भले ही वानर रूप में वे श्रीराम की सेवा में उपस्थित थे, किंतु इस बार, जब नारायण पूर्णावतार में अवतरित हुए हैं, तो तमाम ऋषि-मुनि, देवता, गंधर्व तक गोप-गोपियों के रूप में जन्म लेकर श्रीकृष्ण की लीलाओं में भागीदार बन रहे हैं। किंतु स्वयं विष्णुवल्लभ के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया! महेश्वर इस बात से अत्यंत चिंतित हैं कि वे इस मधुरतम लीला के प्रत्यक्ष साक्षी और सहभागी नहीं बन पाएँगे।"
नारायण का संदेश
वासुकी की बात सुनकर नारद मुस्करा उठे। वे तुरंत शिव के समीप गए और तनिक ऊँचे स्वर में बोले—
"कृष्ण ने आपको स्मरण किया है, देवाधिदेव!"
शिव का मुखमंडल उसी क्षण प्रसन्नता से दमक उठा। वे उत्सुकता से बोले—
"क्या? क्या कहा उन्होंने?"
नारद ने उत्तर दिया—
"महादेव! श्रीकृष्ण तो अभी शिशु हैं, वे स्वयं आपको कैसे पुकारेंगे? परंतु नारायण ने कहा है कि जाकर मृत्युंजय से कहो कि कृष्ण के प्राण संकट में हैं—उन्हें बचाइए!"
महादेव ने तत्परता से कहा—
"तो बताइए, मुझे क्या करना होगा?"
नारद ने उत्तर दिया—
"एक स्त्री कृष्ण को दुग्धपान के बहाने विष पिलाने जा रही है। कृष्ण तो शिशु हैं, उनके लिए तो दूध ही पीना उचित है। नारायण ने कहा है कि महादेव को विष पीने का अभ्यास है। अवसर आने पर वे श्रीकृष्ण के अधरों पर विराजमान हो जाएँ और स्वयं विष पी लें, जबकि कृष्ण केवल दूध पिएँ।"
महादेव ठठाकर हँस पड़े—
"मुझे विष पीने का अभ्यास है, इसलिए मैं विष पी लूँ? और क्षीरसागर में रहने वाले नारायण को दूध प्रिय है, इसलिए वे दूध पीएँगे? सही है! अच्छा, तो ऐसा ही होगा!"
शिव की सेवा और नारायण का वरदान
समय आया, पूतना आई, और मारी गई।
कुछ समय पश्चात नारद पुनः कैलाश आए। इस बार शिव पूर्ण प्रसन्नता के साथ मुस्कराते हुए उनका स्वागत कर बोले—
"कहिए देवर्षि, अभी और कितना विष पीना है मुझे? वैसे यह कितनी आश्चर्यजनक बात है न, कि क्षीरसागर में रहने वाले का भक्त दूसरों को विषपान का निमंत्रण देता है!"
नारद ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया—
"महादेव! आपके इस कटाक्ष को नारायण भूले नहीं हैं। मैं जो कहने जा रहा हूँ, यह उन्हीं के शब्द हैं। उन्होंने कहा—
'लगता है, महादेव विष पी-पीकर थक गए हैं और अब वे दूध की आकांक्षा रखते हैं। इस कल्प में, और आने वाले सभी कल्पों में, मेरे भक्त उनकी इस लालसा को पूर्ण करेंगे। जो भी व्यक्ति अपने जीवन में मात्र एक बार भी दूध की कुछ बूँदें शिव को अर्पित करेगा, वह मेरे हृदय में वास करेगा।'"
धन्य शिव! धन्य नारायण!
॥ ॐ विष्णवे नमः ॥
॥ ॐ नमो नीलकण्ठाय ॥