मधु और कैटभ: एक महायुद्ध की गाथा

Sooraj Krishna Shastri
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मधु और कैटभ: एक महायुद्ध की गाथा
मधु और कैटभ: एक महायुद्ध की गाथा


मधु और कैटभ: एक महायुद्ध की गाथा 

जब सृष्टि का आरंभ हुआ, चारों ओर केवल अनंत जल ही था। जल के इस विशाल विस्तार के मध्य भगवान विष्णु क्षीरसागर में योगनिद्रा में लीन थे। उनके नाभि से एक दिव्य कमल प्रकट हुआ, और उसी कमल से ब्रह्मा जी का प्राकट्य हुआ। ब्रह्मा जी को सृष्टि की रचना का दायित्व सौंपा गया, और वे अपने कार्य में तल्लीन हो गए।

असुरों का जन्म एवं वेदों की चोरी

इसी कालखंड में भगवान विष्णु के कानों के मैल से दो शक्तिशाली असुर उत्पन्न हुए—मधु और कैटभ। वे जन्मजात ही प्रचंड बलशाली, मायावी और अहंकारी थे। उनके मन में देवताओं के प्रति वैरभाव उत्पन्न हुआ, और उन्होंने संपूर्ण ब्रह्मांड को चुनौती देना प्रारंभ कर दिया।

उनकी शक्ति केवल उनके बल तक ही सीमित नहीं थी; वे अत्यंत चतुर भी थे। उन्होंने अपने मायावी प्रभाव से वेदों को चुरा लिया और उन्हें आदिम महासागर के गहरे जल में छिपा दिया। वेदों के अभाव में ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना करने में असमर्थ हो गए। वे अत्यंत व्याकुल हो उठे और संकटमोचन भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे।

भगवान विष्णु का जागरण

उस समय भगवान विष्णु योगनिद्रा में थे। ब्रह्मा जी ने उनके समक्ष करुण पुकार की, परंतु भगवान विष्णु गहन निद्रा में थे। यह देखकर ब्रह्मा जी ने देवी योगमाया की स्तुति की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर योगमाया प्रकट हुईं और भगवान विष्णु को जगाया।

भगवान विष्णु ने अपनी योगशक्ति से स्थिति को समझा और तुरंत महासागर में प्रवेश कर मधु और कैटभ का सामना करने के लिए प्रस्तुत हुए।

महायुद्ध का आरंभ

जैसे ही भगवान विष्णु महासागर के भीतर पहुँचे, मधु और कैटभ ने उन्हें देखा और अहंकारपूर्वक अट्टहास किया। वे बोले—
"हे विष्णु! हम अपराजेय हैं। हमें कोई पराजित नहीं कर सकता। यदि तुममें साहस है तो आओ और हमसे युद्ध करो!"

भगवान विष्णु ने उनकी चुनौती स्वीकार की और भयंकर युद्ध आरंभ हो गया। यह कोई साधारण युद्ध नहीं था, बल्कि पाँच सहस्र वर्षों तक चलता रहा। महासागर की लहरें इस युद्ध की तीव्रता से कांप उठीं, दिशाएँ गूँज उठीं, और संपूर्ण ब्रह्मांड इस महासंग्राम का साक्षी बना।

मधु और कैटभ निरंतर अपने शरीर को विस्तृत कर रहे थे। कभी वे हजार योजन (लगभग आठ हजार मील) तक विशाल हो जाते, तो कभी सूक्ष्म रूप धारण कर भगवान विष्णु को चकित करने का प्रयास करते। परंतु भगवान विष्णु अपनी दिव्य माया से उनकी प्रत्येक चाल को विफल कर रहे थे।

भगवान विष्णु की चतुराई

युद्ध के दौरान भगवान विष्णु ने अनुभव किया कि मधु और कैटभ के अहंकार को भंग किए बिना उन्हें पराजित करना कठिन है। अतः उन्होंने एक युक्ति सोची।

भगवान विष्णु ने मधु और कैटभ को संबोधित करते हुए कहा—
"हे मधु और कैटभ! तुम दोनों अत्यंत पराक्रमी योद्धा हो। तुम्हारा युद्धकौशल अद्वितीय है। मैं तुमसे अत्यंत प्रभावित हूँ। इसलिए मैं तुम्हें वरदान देना चाहता हूँ। किंतु इसके बदले में मुझे भी एक वरदान दो।"

अत्यधिक अहंकार से भरे हुए मधु और कैटभ ने सोचा कि भगवान विष्णु उनके सामने अपनी हार स्वीकार कर चुके हैं। वे गर्व से बोले—
"हम तुम्हारी इच्छा पूरी करेंगे, विष्णु! कहो, क्या चाहते हो?"

भगवान विष्णु मंद स्मित करते हुए बोले—
"मैं तुम्हें वध करने के लिए केवल वहीं प्रहार करूँगा, जहाँ तुम अनुमति दोगे।"

मधु और कैटभ को अपने बल और चातुर्य पर अत्यधिक गर्व था। उन्होंने उपहास करते हुए कहा—
"हम चाहते हैं कि हमारी मृत्यु केवल वहाँ हो, जहाँ जल न हो!"

असुरों का संहार और मधुसूदन नाम की प्राप्ति

भगवान विष्णु उनके इस कथन को सुनकर मुस्कुराए। उन्होंने तत्काल अपनी विशाल जांघों को जल से ऊपर उठाया और उन्हें ठोस भूमि का स्वरूप दे दिया। जैसे ही मधु और कैटभ ने अपनी काया को और अधिक विशाल बनाया, भगवान विष्णु ने अपनी जांघों पर उन्हें गिरा लिया।

अगले ही क्षण भगवान विष्णु ने अपने दिव्य सुदर्शन चक्र का प्रयोग किया और एक ही वार में दोनों असुरों के शीश काट दिए।

मधु-कैटभ के शरीर का विभाजन

कहते हैं कि मधु और कैटभ के शरीर के टुकड़े बारह भागों में विभक्त होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इन्हें पृथ्वी की बारह भूकंपीय प्लेटों का प्रतीक माना जाता है, जो आज भी पृथ्वी के भूगर्भीय संतुलन को दर्शाती हैं।

धर्म की स्थापना एवं भगवान विष्णु का गौरव

इस महायुद्ध के पश्चात भगवान विष्णु को दो विशेष उपाधियाँ प्राप्त हुईं—

  1. मधुसूदन (मधु का संहारक)
  2. कैटभजित (कैटभ पर विजय प्राप्त करने वाला)

इस कथा का संदेश अत्यंत गूढ़ है—
"अहंकार, अधर्म और अन्याय कितना भी प्रबल क्यों न हो, उसका अंत निश्चित है। और जब भी अधर्म बढ़ता है, तब भगवान विष्णु जैसे रक्षक धर्म की पुनः स्थापना के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।"

॥ श्री हरि को नमन ॥


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