वैदिक ऋषि: अगस्त्य ऋषि

Sooraj Krishna Shastri
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वैदिक ऋषि: अगस्त्य ऋषि
वैदिक ऋषि: अगस्त्य ऋषि


वैदिक ऋषि: अगस्त्य ऋषि 

अगस्त्य उत्तर और दक्षिण की संस्कृति के बीच समन्वय बनाने वाले ऋषि हैं। इन्हें निर्विवाद रूप से आर्य और आर्येतर जातियों को परस्पर मिलाने का श्रेय भी दिया जाता है। अगस्त्य मूलतः विन्ध्य पर्वत के आसपास रहने वाले थे, लेकिन अपने दल के साथ दुर्गम पहाड़ों पर बसे हुए लोगों को आपस में संगठित करते हुए तमिळ देश में जा बसे। एक परम्परा अगस्त्य को तमिळ भाषा का जनक भी मानती है। इसमें संदेह नहीं कि अगस्त्य आर्य संस्कृति के पोषक थे।

अगस्त्य से हमारा पहला परिचय ऋग्वेद से ही होता है। ऋग्वेद के प्रथम मंडल के अंतिम २७ सूक्त अगस्त्य के ही हैं। प्रथम मंडल के सूक्त १६५ से लेकर सूक्त १९१ तक के रचयिता अगस्त्य हैं। इन सूक्तों में दो दुर्लभ संवाद सूक्त भी हैं। एक अगस्त्य और इन्द्र के बीच है, दूसरा अगस्त्य और पत्नी लोपामुद्रा के बीच। पहले संवाद में अगस्त्य की इन्द्र से सीधी बातचीत हमें अचरज में डाल देती है। श्री अरविन्द के अनुसार इस सूक्त में जो आधारभूत विचार है, उसका संबंध आध्यात्मिक प्रगति की एक अवस्था से है। सूक्त में कुल पाँच ऋचाएँ हैं। प्रथम, तृतीय और चतुर्थ ऋचा में इन्द्र का कथन है, जबकि द्वितीय और पञ्चम ऋचा में अगस्त्य का। इस सूक्त में संशय भी है, समाधान भी। अपनी विचारोत्तेजना के कारण इस सूक्त की महत्ता अब भी ज्यों की त्यों है।  

इस सूक्त की कविता में जो सहज और सरल भाव हैं, वे हमें आकर्षित करते हैं। देखिए, कविता के कुछ अंश। 'वह न अब है,न कल होगा। कौन जानता है उसे जो अद्भुत है, कालातीत है। हम सबकी चेतना में वही चल रहा है निरन्तर, किन्तु वह ध्यान में आता नहीं। लुप्त हो जाता है वह बार-बार, और सारे प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं ।॥१॥ हे इन्द्र! तुम हो तो मुझे दिखाई क्यों नहीं देते? मेरा यत्न असफल क्यों हो जाता बार-बार। मेरे विचारों का पुञ्ज तुम्हारा ही बन्धु है। उसके साथ मिलकर उस महान् सत्य को यहाँ उतार लाओ। हम सभी मर्त्य संघर्ष कर रहे उसे पाने के लिये, तुम हमारे प्रयत्न का वध न करो।।२।। अगस्त्य! तुम मेरे भाई हो, मेरे सखा भी हो। फिर भी तुम्हारे विचार मुझे छू नहीं पाते। जानता हूँ मैं भली भाँति कि तुम अपना मन हमें सौंपना नहीं चाहते।।३।। 

ऋषि अगस्त्य अपनी वैदिक कविताओं में कहते हैं कि हम सब एक नीड़ के पंछी हैं, एक ही ब्रह्म के उपासक हैं। हम प्रगतिशील हों, और हमारे एक-एक कर्म उज्ज्वल हों। वे कहते हैं कि यह देह एक स्वर्णपात्र है, इसमें मधु का संचय करो। अगस्त्य पहले ऋषि है,जिन्होंने बृहस्पति की वंदना गाई-'अनर्वाणं वृषभं मन्द्रजिह्वं बृहस्पतिं वर्धया नव्यमर्कैः। गाथान्यः सुरुचो सय्याद देवा आशृण्वन्ति नव्यमानस्य मर्ताः।।' अगस्त्य पहले ऋषि हैं, जिन्होंने जलचर और थलचर, अल्प विष वाले और बहुत विष वाले अदृश्य कृमियों का पता लगाया। निन्यानवे प्रकार की औषधियाँ भी बताई, जो कृमिनाश के लिये हैं। इस विषय से सन्दर्भित पूरा एक सूक्त (ऋग्वेद:१:१९१) हमारे पास उपलब्ध है।

अगस्त्य की वैदिक कविताओं में अगस्त्य-लोपामुद्रा संवाद सचमुच अनुपम है। यह ऋग्वेद के प्रथम मंडल के सूक्त (ऋग्वेद १:१७९) में है। इस सूक्त में लोपामुद्रा  और अगस्त्य के बीच संक्षिप्त सा संवाद है, किन्तु अनूठा। शुरू की दो ऋचाओं में लोपामुद्रा अगस्त्य के सामने दाम्पत्य जीवन के समुचित निर्वाह को लेकर गम्भीर प्रश्न खड़े करती है, और बाद की चार ऋचाओं में ऋषि अगस्त्य लोपामुद्रा का मान रखते हुए भी दाम्पत्य जीवन के उच्चतम लक्ष्य की ओर ध्यान आकृष्ट करने में सफल होते हैं। इस सूक्त में दाम्पत्य के प्रचलित अर्थ का उन्नयन है। यह उन्नयन ही वेद है। पति-पत्नी का यह आपसी वार्तालाप भारतीय साहित्य में अप्रतिम माना जाता है। यह रही वह संवाद-कविता-


कितने वर्ष बीत गये,

दिन-रात उठाती रही घर का बोझ,

श्रम करते-करते बूढ़ी हुईं इच्छाएँ,

अरे अगस्त्य! सुंदरता छिन गई

आयु बीतने के साथ,

इस पर भी नहीं निभा पा रहे वे वचन

जो दिये थे सप्तपदी में तुमने कभी।॥१॥


तब से अब तक

तुम खड़े हो अपने ब्रह्मचर्य में,

ज्ञानियों के बीच उठे-बैठे।

ज्ञान का कोई अंत नहीं, अगस्त्य!

जीवन का अंत तो सामने है,

क्या अब भी मैं निराश होऊँ॥२॥


तुम अनृत नहीं बोल रही, लोपामुद्रा!

तुमने श्रम किया है तो तुम ही

देवों से रक्षित हुई, मैं नहीं ।

श्रम से जीत लिया तुमने यह संसार।

सौ वर्ष जियेंगे हम दोनों

और भोगेंगे वे सुख निश्चिन्त हो कर,

जो हमारी कामना में हैं॥३॥


किन्तु यह काम

केवल जन्म-मृत्यु के लिये नहीं,

दाम्पत्य केवल भोग के लिये नहीं,

लोपामुद्रा! अधीर मत होओ,

धैर्य से उठो ऊपर,

छूने का यत्न करो उसे

जो हम दोनों का साध्य है॥४॥


आओ, लोपामुद्रा!

हम दोनों अपने हृदय अमृत से भर लें,

मनुष्य तो कामनाओं का दास है,

नीचे गिरना बहुत सरल है,

ऊपर उठना ही दम्पति की चरितार्थता॥५॥


मैं खोद रहा हूँ कुदाल से

देवपुत्रों की चेतन ऊर्जा को।

सत्य की किरणों से हम बनाएंगे घर,

जहाँ हम होंगे,लोपामुद्रा!

और जीवन को अर्थ देंगे॥६॥

अगस्त्य सप्तर्षियों में से एक हैं, पृथक् रूप से भी अत्यंत प्रभावशाली ऋषि हैं। विद्वानों ने अगस्त्य की व्युत्पत्ति 'अगं पर्वतं स्तम्भयति इति अगस्त्यः' अर्थात् जो पर्वतों को स्तम्भित कर दे। यह किंवदन्ती है कि अगस्त्य ऋषि ने विन्ध्याचल की पर्वतमालाओं में से दक्षिण भारत में पहुँचने का सरल मार्ग बनाते हुए अपनी मंत्र-शक्ति से विन्ध्याचल पर्वत को झुका दिया था। अपनी मंत्रशक्ति से ही पूरा का समुद्र पी जाने की किंवदन्ती भी प्रचलित है।

अगस्त्य ऋषि आर्य संस्कृति के पुरोधा होने के कारण नित्य वंदनीय हैं।

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