कथा: संतवेश निष्ठ हंस – एक अद्भुत भक्ति-गाथा

Sooraj Krishna Shastri
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कथा: संतवेश निष्ठ हंस – एक अद्भुत भक्ति-गाथा
कथा: संतवेश निष्ठ हंस – एक अद्भुत भक्ति-गाथा


 प्रस्तुत कथा अत्यंत भावपूर्ण, शिक्षाप्रद और भक्तिभाव से परिपूर्ण है। इसे व्यवस्थित, विस्तृत, तथा प्रभावशाली भाषा में प्रस्तुत किया गया है, ताकि इसका नैतिक पक्ष और आध्यात्मिक संदेश गहराई से स्पष्ट हो सके—


🍁कथा: संतवेश निष्ठ हंस – एक अद्भुत भक्ति-गाथा 🍁

राजा का रोग और हंसों की औषधि

एक समय की बात है—एक राजा को कुष्ठ रोग हो गया। राजवैद्यों ने परामर्श करके बताया कि इस असाध्य रोग का उपचार केवल उसी औषधि से संभव है, जो एक विशेष प्रकार के हंसों को मारकर तैयार की जाती है। वे हंस एक पवित्र सरोवर—मानसरोवर—में रहते थे, जो साधु-संतों के आवागमन से पूत-पावन हो चुका था।

हंसों में विकसित हुई भक्ति और विवेक

संतों के सत्संग और उनके प्रभाव से वहाँ के हंस भी भक्ति से परिपूर्ण हो गए थे। वे साधु-संतों के प्रतीक चिन्हों—तिलक, कंठी (तुलसी की माला), और मुख में हरिनाम—का विशेष सम्मान करते थे। उन्हें इन चिन्हों में भगवद्भाव की अनुभूति होती थी।

सैनिकों का छल और हंसों की निष्ठा

राजा की आज्ञा से चार सैनिक (बधिक) मानसरोवर पर हंसों को पकड़ने पहुँचे, परंतु जैसे ही वे पास आते, हंस भयभीत होकर उड़ जाते। सैनिकों ने देखा कि जब कोई संत वेषधारी व्यक्ति सरोवर के निकट जाता है, तब हंस निर्भय होकर समीप आते हैं। यह रहस्य जानकर सैनिकों ने वैष्णव वेश धारण किया और पुनः मानसरोवर पहुँचे।

लेकिन हंसों का आंतरिक विवेक जागृत था। उन्होंने पहचान लिया कि ये संत नहीं, छलपूर्वक वेश धारण करने वाले बधिक हैं। फिर भी, वैष्णव वेश के प्रति आदर और निष्ठा के कारण उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। सैनिक उन्हें पकड़कर राजा के पास ले आए।

भगवान का अवतरण और राजा की परीक्षा

हंसों की वेश निष्ठा देखकर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने एक वैद्य का रूप धारण किया और नगर में घोषणा की:

"मैं कुष्ठ एवं सभी असाध्य रोगों का उपचार जानता हूँ।"

राजा को जब यह समाचार मिला, तो भगवान को बुलवाया गया। वैद्यरूप भगवान ने राजा से कहा—

“आप इन पवित्र पक्षियों को मुक्त करें, मैं आपको तत्काल रोगमुक्त कर दूँगा।”

परंतु राजा ने हठपूर्वक कहा—

“ये हंस बड़ी कठिनाई से प्राप्त हुए हैं। पहले मेरा रोग ठीक कीजिए, फिर मैं इन्हें छोड़ दूँगा।”

भगवान मुस्कराए, अपनी झोली से औषधि निकाली, उसे पिसवाकर राजाके शरीर पर मलवाया। चमत्कार हुआ—राजा का कुष्ठ पूरी तरह नष्ट हो गया। वह अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने वचन निभाते हुए हंसों को मुक्त कर दिया।

सैनिकों का हृदय परिवर्तन

इस अद्भुत घटना ने उन चारों सैनिकों को भीतर तक झकझोर दिया। उन्होंने मन में विचार किया—

"जिन हंसों ने केवल वैष्णव वेश के प्रति श्रद्धा रखी, उन्हीं के कारण उनके प्राण भी बच गए। हम तो मनुष्य हैं, फिर इस पवित्र वेश का त्याग कैसे करें?"

यह भावान्तर इतना प्रबल हुआ कि वे सैनिक सच्चे संत बन गए। उन्होंने कभी इस वेश को नहीं छोड़ा, और उनकी बुद्धि भगवान की भक्ति में स्थिर हो गई।


श्री नाभादास जी गोस्वामी का उपदेश

इस चरित्र से श्री नाभादास गोस्वामी का यह मत उद्भासित होता है—

हमें सभी वैष्णववेश धारियों का आदर करना चाहिए, क्योंकि उस वेश में श्रद्धा रखना स्वयं भक्ति का आदान है।

यदि किसी व्यक्ति में भक्ति के बाह्य लक्षण (जैसे तिलक, तुलसी, हरिनाम) दृष्टिगोचर न हों, तब भी यह मानना चाहिए कि उसमें भक्ति अंतर्निहित रूप में विद्यमान है, जो भविष्य में प्रकट हो सकती है। ऐसा सोचकर उसका भी सम्मान करना चाहिए, क्योंकि भक्ति का अनादर करने से स्वयं की भक्ति का ह्रास हो सकता है


भावार्थ एवं शिक्षा

  • सच्चा सम्मान वेश का नहीं, उस वेश के प्रति निष्ठा और आदर का होना चाहिए।
  • भक्ति का स्वरूप केवल बाह्य चिन्हों में नहीं, बल्कि आंतरिक श्रद्धा, समर्पण और व्यवहार में होता है।
  • सज्जनों का संग न केवल मनुष्यों को, बल्कि पशु-पक्षियों को भी दिव्यता की ओर ले जाता है।
  • भक्ति छिपी हुई ज्वाला है, जो कभी भी प्रकट हो सकती है। इसलिए प्रत्येक जीव का सम्मान करें।

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