Secularism(धर्मनिरपेक्षता) vs. Religious Neutrality(धार्मिक तटस्थता):Understanding the Difference, Politics, राजनीति, भागवत दर्शन सूरज कृष्ण शास्त्री।
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Secularism(धर्मनिरपेक्षता) vs. Religious Neutrality(धार्मिक तटस्थता):Understanding the Difference. |
Secularism(धर्मनिरपेक्षता) vs. Religious Neutrality(धार्मिक तटस्थता):Understanding the Difference.
यहाँ प्रस्तुत पाठ एक राजनीतिक-वैचारिक टिप्पणी है जो तथाकथित "सेक्युलरिज़्म" की व्यावहारिकता और उसके दुष्परिणामों पर आधारित एक दृष्टिकोण को सामने रखता है। इस पर आधारित एक विस्तृत लेख निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है:
"सेक्युलरिज़्म का असली चेहरा: अधीर रंजन चौधरी और यूसुफ पठान प्रकरण से झलकता सत्य"
भूमिका
भारतीय राजनीति में सेक्युलरिज़्म एक ऐसा शब्द बन चुका है, जिसकी व्याख्या अक्सर अवसरवादी संदर्भों में की जाती है। यह शब्द संविधान में धार्मिक निरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव का प्रतीक है, किंतु राजनीतिक मंच पर यह 'मुस्लिम तुष्टिकरण' और 'हिंदू नेतृत्व के बहिष्कार' के पर्याय के रूप में प्रकट होता आया है। इस सन्दर्भ में अधीर रंजन चौधरी और यूसुफ पठान का मामला आज की सेक्युलर राजनीति की नंगई को उजागर करता है।
बहरामपुर की राजनीति और अधीर रंजन चौधरी
अधीर रंजन चौधरी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, बीते 25 वर्षों से पश्चिम बंगाल की मुस्लिम बहुल बहरामपुर लोकसभा सीट से सांसद रहे हैं। उन्होंने स्वयं को एक कट्टर सेक्युलर नेता के रूप में प्रस्तुत किया, जो लगातार हिंदुत्व विचारधारा और भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ मुखर रहे। यह भी उल्लेखनीय है कि अधीर बाबू ने अपने निर्वाचन क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं के समर्थन से निरंतर जीत हासिल की। उन्होंने कई बार बीजेपी को मुस्लिम-विरोधी कहकर खारिज किया और स्वयं को मुसलमानों के हितैषी के रूप में प्रस्तुत किया।
टीएमसी की रणनीति: यूसुफ पठान को उम्मीदवार बनाना
2024 के आम चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने एक चौंकाने वाला कदम उठाते हुए बहरामपुर सीट से यूसुफ पठान को उम्मीदवार बनाया। यूसुफ पठान एक पूर्व क्रिकेटर हैं, मूल रूप से गुजरात से हैं, न तो बंगाली भाषा जानते हैं, न बंगाल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से उनका कोई वास्ता है। वे न कभी बहरामपुर रहे, न उस क्षेत्र की सामाजिक-राजनीतिक जड़ों से जुड़े रहे।
इसके बावजूद, मुस्लिम मतदाताओं ने एक गैर-बंगाली, बाहरी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए समर्थन दिया क्योंकि वह एक मुस्लिम उम्मीदवार था। यह निर्णय एक अनुभवी और स्थानीय नेता, अधीर चौधरी के खिलाफ गया, जिन्होंने सालों तक सेक्युलरिज्म के नाम पर मुसलमानों के हित में राजनीति की।
बहरामपुर में संकट और यूसुफ पठान की अनुपस्थिति
आज जब बहरामपुर सांप्रदायिक तनाव और हिंसा से जूझ रहा है, तब जनता अपने प्रतिनिधि की उपस्थिति की अपेक्षा कर रही है। परंतु यूसुफ पठान इस संवेदनशील घड़ी में बंगाल से दूर आईपीएल जैसे आयोजनों में व्यस्त हैं। यह न सिर्फ उनके नेतृत्व की गंभीरता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि उनकी उम्मीदवारी राजनीतिक तुष्टिकरण और सांकेतिक मुस्लिम प्रतिनिधित्व का प्रतीक मात्र थी।
सेक्युलरिज़्म या राजनीतिक अवसरवाद?
इस पूरे घटनाक्रम से यह प्रश्न उठता है — क्या यह सेक्युलरिज़्म है, जहाँ किसी क्षेत्र की सामाजिक-सांस्कृतिक समझ रखने वाले हिंदू नेता को केवल इसलिए दरकिनार कर दिया जाता है क्योंकि एक धर्मविशेष से संबंधित बाहरी व्यक्ति को आगे लाया गया? अधीर चौधरी जैसे नेता, जिन्होंने वर्षों तक मुस्लिम मतदाताओं के लिए संघर्ष किया, उन्हें जब तवज्जो नहीं मिली, तो यह इस तथाकथित सेक्युलरिज़्म की नैतिक दिवालियापन को दर्शाता है।
भविष्य की दिशा: चेतावनी या अवसर?
यह उदाहरण उन सभी सेक्युलर हिंदू नेताओं के लिए चेतावनी है जो आज भी अपने अस्तित्व को मुसलमानों की तुष्टि में खोजते हैं। वे यह समझ लें कि जब बहुमत बदलता है, तब प्राथमिकताएँ भी बदल जाती हैं। सेक्युलरिज़्म की यह धारा अंततः उन्हें ही बाहर का रास्ता दिखा सकती है।
निष्कर्ष
सेक्युलरिज़्म की आड़ में हो रहे इस प्रकार के राजनीतिक प्रयोग न केवल लोकतंत्र को खोखला करते हैं, बल्कि वोट बैंक राजनीति की भयावहता को भी उजागर करते हैं। अधीर रंजन चौधरी का अनुभव इस यथार्थ का जीवंत प्रमाण है — "जब तुष्टिकरण प्राथमिकता बन जाता है, तो न्याय, अनुभव और निष्ठा को पीछे छोड़ दिया जाता है।"
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