भागवत कथा: श्रीकृष्ण के जीवन की अंतिम घटनाओं का वर्णन

Sooraj Krishna Shastri
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भागवत कथा: श्रीकृष्ण के जीवन की अंतिम घटनाओं का वर्णन
भागवत कथा: श्रीकृष्ण के जीवन की अंतिम घटनाओं का वर्णन



भागवत कथा: श्रीकृष्ण के जीवन की अंतिम घटनाओं का वर्णन

1. यदुवंश का विनाश (यदुवंश संहार):

ऐश्वर्य का अहंकार:

यदुवंश धर्मपरायण, वीर और समृद्ध था। किन्तु समय के साथ उनकी शक्ति अहंकार में बदल गई। उन्होंने स्वयं को अजेय मान लिया और धर्म से विचलित हो गए।

साम्ब की लीला और ऋषियों का शाप:

साम्ब—जांबवती और श्रीकृष्ण के पुत्र—ने अन्य युवकों के साथ मिलकर दुर्वासा, वशिष्ठ, नारद आदि ऋषियों का उपहास किया। उन्होंने साम्ब को स्त्री-वेष में सजाया और ऋषियों से पूछा—"हे मुनियों! यह स्त्री गर्भवती है। कृपया बताइए, इसे क्या उत्पन्न होगा?"

ऋषियों ने दिव्य दृष्टि से देख लिया और बोले:

"यह मूर्खता भारी पडे़गी। इसके गर्भ से एक मूसल उत्पन्न होगा, जिससे तुम्हारा वंश ही नष्ट हो जाएगा।"

मूसल की घटना:

साम्ब के गर्भ से सचमुच एक लोहे का मूसल उत्पन्न हुआ। भयभीत होकर यदुवंशी उस मूसल को पीस कर समुद्र में फेंक देते हैं, लेकिन वह चूर्ण समुद्र तट पर सरकंडों के रूप में उग आता है।

संघर्ष की लीला:

भगवान श्रीकृष्ण द्वारका में उत्सव हेतु समुद्र तट पर समस्त यदुवंशियों को ले जाते हैं। वहां मदिरापान के प्रभाव में उनका विवाद होता है और वे उन्हीं सरकंडों से एक-दूसरे का संहार कर देते हैं।

यह लीला संकेत देती है कि अधर्म का बीज जब स्वयं भीतर पनपता है, तो वह बाहरी विनाश नहीं—आत्मविनाश का कारण बनता है।


2. द्वारका का पतन:

यदुवंश के विनाश के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शेष परिवारजन और प्रिय नागरिकों को सुरक्षा हेतु इंद्रप्रस्थ जाने की आज्ञा दी। द्वारका जो समुद्र की गोद में बसी दिव्य नगरी थी, वह अंततः समुद्र में समा गई।

प्रतीकात्मक दृष्टि:

  • द्वारका का डूबना दिखाता है कि अहंकार, विलास और भोग से बसी कोई भी नगरी, चाहे कितनी ही दिव्य क्यों न हो, विनाश के अधीन है।

  • भगवान ने यह सब अपनी योगमाया से रचकर कालचक्र के स्वाभाविक प्रवाह में ढाल दिया।


3. भगवान श्रीकृष्ण का पृथ्वी से प्रस्थान:

प्रभास-तीर्थ की यात्रा:

विनाश के पश्चात श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम के साथ प्रभास क्षेत्र (वर्तमान सौराष्ट्र) जाते हैं। वहाँ उन्होंने स्नान, जप, ध्यान और ब्राह्मणों को दान देकर जीवन की पूर्णता को दर्शाया।

बलराम का योगप्रवेश:

बलराम जी समुद्र किनारे बैठकर ध्यान में लीन हो गए और एक उज्ज्वल श्वेत नाग (अनंत शेष) का रूप धारण कर लोकदृष्टि से अंतर्धान हो गए।

श्रीकृष्ण का अंतःकरण-स्थित ध्यान:

श्रीकृष्ण एक पीपल के नीचे ध्यानस्थ होकर बैठे। बहेलिया जरा, जो शिकार की खोज में था, उनके चरण को हिरण समझ कर बाण चला देता है।

श्रीकृष्ण ने बाण लगने को कोई शोकजनक घटना न मानकर उसे अपनी लीला का अंत मानकर स्वीकार किया।

जरा को क्षमा:

भगवान ने बहेलिया जरा से कहा:
"डरो मत। यह सब पूर्व जन्म का कर्म है। तुम बालि हो, जिसने मेरे राम रूप में मारे जाने पर प्रतिशोध लिया है। अब तुम वैकुंठ को जाओगे।"

यह संवाद कर्मफल, क्षमा और पुनर्जन्म के सिद्धांतों को गहराई से स्पष्ट करता है।

योगमाया से देहत्याग:

श्रीकृष्ण अपने शरीर को वैसे ही त्यागते हैं जैसे कोई योगी चेतना को सहस्रार से बाहर कर दे। उनके शरीर का कहीं अंतिम संस्कार नहीं हुआ—वे स्वयं अपनी योगमाया में विलीन होकर वैकुंठ लौट गए।


4. अर्जुन का अनुभव और क्षणिकता का बोध:

अर्जुन का आगमन:

भगवान के कहे अनुसार अर्जुन द्वारका आते हैं। वे श्रीकृष्ण के परिवार के शेष स्त्रियों और बच्चों को लेकर इंद्रप्रस्थ की ओर निकलते हैं। मार्ग में डाकुओं ने हमला किया।

अर्जुन का विवश अनुभव:

जब अर्जुन ने अपने दिव्य अस्त्र चलाने चाहे, वे निष्फल हो गए। तब उन्हें अनुभूति हुई कि—

"भगवान ही मेरे बल के आधार थे। अब उनके बिना, मैं मात्र एक सामान्य मनुष्य रह गया हूँ।"


दार्शनिक और आध्यात्मिक संदेश:

  1. लीला और लौकिकता का अंत:

    • भगवान श्रीकृष्ण का जन्म, कर्म और प्रस्थान, तीनों ही लीला रूप हैं—वे न जन्मते हैं न मरते हैं।

  2. काल की गति और धर्म की रक्षा:

    • जब यदुवंश धर्म से विमुख हो गया, तब भगवान ने स्वयं उसे समाप्त किया, यह दर्शाता है कि धर्म का रक्षा हेतु धर्मसंस्थापनार्थाय लीला बदलती रहती है।

  3. वैराग्य की प्रेरणा:

    • संसार की अस्थिरता, द्वारका का पतन, यदुवंश का अंत, अर्जुन की शक्तिहीनता—ये सभी हमें वैराग्य और भगवान पर आश्रय की ओर प्रेरित करते हैं।

  4. भक्तियोग का मर्म:

    • अर्जुन की अनुभूति हमें बताती है कि सच्चा बल भगवत्-सम्बन्ध में है। जब तक भगवान साथ हैं, जीवन में स्थिरता है; उनके बिना सब माया है।


📜 निष्कर्ष:

श्रीमद्भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण की अंतिम लीलाएं इस बात को सिद्ध करती हैं कि—

"भगवान स्वयं कालरूप में कार्य करते हैं। जब कार्य पूर्ण हो जाता है, वे मौन होकर दृश्य से हट जाते हैं, परन्तु उनका प्रभाव चिरकाल तक भक्तों के हृदय में बना रहता है।"

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