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संस्कृत श्लोक: "शत्रुणा न हि सन्दध्यात् सुश्लिष्टेनापि सन्धिना" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद |
संस्कृत श्लोक: "शत्रुणा न हि सन्दध्यात् सुश्लिष्टेनापि सन्धिना" का अर्थ और हिन्दी अनुवाद
जय श्री राम! सुप्रभातम्!
प्रस्तुत श्लोक अत्यंत गूढ़ नीति का बोध कराता है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:
श्लोकः
शत्रुणा न हि सन्दध्यात् सुश्लिष्टेनापि सन्धिना ।
सुतप्तमपि पानीयं शमयत्येव पावकम् ॥
शाब्दिक विश्लेषण
- शत्रुणा – शत्रु के साथ
- न हि सन्दध्यात् – कदापि सन्धि (संधि करना) नहीं करनी चाहिए
- सुश्लिष्टेनापि सन्धिना – चाहे वह सन्धि अत्यन्त स्नेहपूर्वक क्यों न की गई हो
- सुतप्तमपि पानीयं – अत्यधिक उष्ण (गर्म) जल भी
- शमयति एव – निश्चय ही शांत कर देता है
- पावकम् – अग्नि को
हिंदी भावार्थ
शत्रु के साथ कभी भी मेल या संधि नहीं करनी चाहिए, चाहे वह कितने भी प्रेमपूर्वक क्यों न की गई हो। जैसे कि गरम जल भी अग्नि को बुझा देता है, वैसे ही शत्रु के साथ किया गया प्रेम भी अंततः अपने उद्देश्य को सिद्ध करता है – वह आपको हानि ही पहुँचाता है।
आधुनिक सन्दर्भ
यह नीति श्लोक चाणक्य की गूढ़ राजनीतिक दृष्टि को प्रकट करता है। आज के संदर्भ में, यह सन्देश हमें यह सिखाता है कि –
- यदि कोई व्यक्ति, संस्था या राष्ट्र मूलतः आपके विरुद्ध है और अवसर की प्रतीक्षा में है, तो उसके साथ मात्र स्नेह और विनम्रता के आधार पर सम्बन्ध स्थापित करना बुद्धिमत्ता नहीं होगी।
- जैसे गर्म जल भी अग्नि को बुझा सकता है, वैसे ही दिखावटी स्नेह भी आपके स्वाभिमान या उद्देश्य को नष्ट कर सकता है।
- इसलिए विवेक से, अनुभव से, और इतिहास को देखकर निर्णय करना चाहिए – न कि केवल भावना से।
संक्षिप्त बालकथा: “साँप और किसान”
एक बार एक किसान को खेत में काम करते समय एक ठंड से कांपता साँप मिला। किसान को दया आई, उसने उसे अपने आंचल में रख लिया और घर ले आया। घर पहुँचकर जैसे ही साँप को गर्मी मिली, उसने किसान को डस लिया।
किसान ने अंतिम साँस लेते हुए कहा –
“मैंने सोचा स्नेह से तू बदल जाएगा, पर तू तो अपनी प्रकृति पर ही रहा।”
नीति:
शत्रु की मूल प्रवृत्ति को समझे बिना केवल करुणा या स्नेह से उस पर भरोसा करना आत्मघाती होता है।
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