राम नवमी विशेष: भगवान श्रीराम – मर्यादा पुरुषोत्तम का आदर्श जीवन

Sooraj Krishna Shastri
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राम नवमी विशेष: भगवान श्रीराम – मर्यादा पुरुषोत्तम का आदर्श जीवन
राम नवमी विशेष: भगवान श्रीराम – मर्यादा पुरुषोत्तम का आदर्श जीवन



राम नवमी विशेष: भगवान श्रीराम – मर्यादा पुरुषोत्तम का आदर्श जीवन

1. भूमिका : अवतारवाद की सनातन परंपरा में श्रीराम का स्थान

इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना, संचालन और नियंत्रण परमात्मा द्वारा ही होता है। यह जगत अत्यंत विलक्षण है, जिसका रहस्य पूर्णतः ज्ञात कर पाना किसी भी जीव के लिए संभव नहीं है। इसी अद्भुत सृष्टि की रक्षा एवं संतुलन के लिए भगवान युग-युग में विभिन्न रूपों में अवतरित होते हैं। वे धरती पर आकर धर्म की पुनःस्थापना करते हैं, अधर्म का नाश करते हैं और पुनः अपने परमधाम लौट जाते हैं। यह आविर्भावक्रम सनातन है। इस दिव्य परंपरा में भगवान श्रीराम का अवतरण विशेष महत्व रखता है। वे न केवल विष्णु के सातवें अवतार हैं, अपितु संपूर्ण मानवता के लिए मर्यादा, नैतिकता और आदर्शों के जीवन्त उदाहरण भी हैं।


2. श्रीराम का व्यक्तित्व : शक्तिशाली, शीलवान और सौंदर्य से युक्त

भगवान श्रीराम का व्यक्तित्व शक्ति, शील और सौंदर्य का अद्भुत समन्वय है। वे युद्ध में पराक्रमी, चरित्र में पावन और सौंदर्य में चंद्रमा जैसे मनोहर हैं। उनका स्वरूप केवल भौतिक रूप से ही नहीं, वरन् आत्मिक दृष्टि से भी परम सौंदर्ययुक्त है।
तुलसीदास जी लिखते हैं –
"कोटि मनोज लजावनिहारे"
(जिसके रूप के सामने करोड़ों कामदेव भी लज्जित हो जाएँ)

वे पीनबाहु, विशाल वक्षःस्थल वाले, गंभीर एवं ओजस्वी हैं। उनकी वाणी को कभी दोहरापन नहीं छूता –
"रामो द्विर्नाभिभाषते" – अर्थात् राम कभी झूठ नहीं बोलते।


3. श्रीराम : धर्म के साक्षात् मूर्तिरूप

श्रीराम केवल एक राजा नहीं, वरन् धर्म के मूर्तिमान स्वरूप हैं। वे नीतिपूर्ण आचरण के माध्यम से धर्म के व्यवहारिक पक्ष को जीवन में उतारने वाले आदर्श पुरुष हैं।
"रामो विग्रहवान् धर्मः" – राम धर्म के साक्षात् अवतार हैं।

उनका प्रत्येक निर्णय, प्रत्येक व्यवहार – चाहे वह राज्य त्यागना हो, वनवास स्वीकार करना हो, या फिर सीता माता का परित्याग – सब कुछ लोकहित और धर्म की मर्यादा के अनुरूप रहा।


4. महर्षि वाल्मीकि और तुलसीदास की दृष्टि में श्रीराम

महर्षि वाल्मीकि ने आदिकाव्य रामायण में श्रीराम के व्यक्तित्व को गहराई से निरूपित किया है। वे उन्हें रूप, गुण, धर्म और व्यवहार से समन्वित आदर्श पुरुष के रूप में प्रस्तुत करते हैं –
"श्रीरामः सत्यवाक्यः च धर्मः च अनुव्रतः" – राम सत्यवचन और धर्म के पथ पर चलने वाले हैं।

तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में श्रीराम को लोकनायक, भक्तवत्सल, करुणानिधान, और समाज के हर संबंध में आदर्श के रूप में स्थापित किया है –
"सुनि सीतापति-सील-सुभाउ"
(सीता के पति श्रीराम के शील और स्वभाव को सुनकर हृदय पुलकित हो जाता है)


5. श्रीराम का जीवन : संयम, सहिष्णुता और समभाव की जीवंत प्रेरणा

श्रीराम जीवन के सुख-दुख, जय-पराजय, लाभ-हानि – सभी परिस्थितियों में समभाव रखते हैं। जब उन्हें राज्याभिषेक की घोषणा हुई तब वे प्रसन्न न हुए, और जब वनवास की कठोर सूचना मिली, तब भी उनके मुख पर कोई विषाद नहीं था। वे स्थितप्रज्ञ हैं –
"सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।"

उनका जीवन संयम, त्याग और सहिष्णुता की पराकाष्ठा है। उन्होंने सीता को खोया, भाई से अलग हुए, लेकिन धर्म का मार्ग कभी नहीं छोड़ा।


6. श्रीराम : जीवन के विविध संबंधों में आदर्श

तुलसीदास जी ने श्रीराम को निम्नलिखित रूपों में आदर्श बताया है:

  • आदर्श पुत्र – जिन्होंने पिता के वचनों की मर्यादा हेतु राज्य त्याग दिया।
  • आदर्श भ्राता – जिनका लक्ष्मण से अपूर्व प्रेम और भरत के प्रति आदर अतुलनीय है।
  • आदर्श पति – जिन्होंने सीता के लिए समुद्र पर सेतु बनवाया और लंका विजय की।
  • आदर्श मित्र – जिन्होंने निषादराज, सुग्रीव, विभीषण आदि को प्रगाढ़ मित्रता दी।
  • आदर्श राजा – जिनके राज्य को रामराज्य कहा गया, जहाँ सुख, समृद्धि और न्याय था।

7. रामराज्य : लोकहित और धर्म पर आधारित आदर्श शासन

रामराज्य केवल एक राज्य नहीं, अपितु एक आदर्श सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था है। उसमें शासन का उद्देश्य केवल सत्ता नहीं था, बल्कि लोक कल्याण था। वहां कोई दुःखी, भूखा या शोषित नहीं था –
"नहिं दरिद्र को दुखी कोई"

रामराज्य में सत्य, दया, न्याय, करुणा और धर्म – ये सभी तत्व शासन की आत्मा थे।


8. श्रीराम का त्याग : जनहित में व्यक्तिगत सुखों का विसर्जन

श्रीराम ने साक्षात् प्राणप्रिय पत्नी जानकी का परित्याग भी जनमत के अनुरूप किया। यह त्याग मात्र व्यक्तिगत नहीं, बल्कि शासन, नीति और लोकमर्यादा के संरक्षण हेतु था। उन्होंने कभी अपनी सुख-सुविधा को प्राथमिकता नहीं दी, बल्कि सदैव समाज की भावना को सर्वोपरि रखा।


9. श्रीराम : अधर्म पर धर्म की विजय के प्रतीक

श्रीराम का संपूर्ण जीवन अधर्म, अन्याय, असत्य और अनीति के विरुद्ध संघर्ष का पर्याय है। उन्होंने अहल्या का उद्धार किया, राक्षसी प्रवृत्तियों का दमन किया, और रावण जैसे अधर्मी का अंत कर सत्य की स्थापना की।
आज भी जब हम सामाजिक बुराइयों, भ्रष्टाचार, अधर्म और मूल्यहीनता से जूझ रहे हैं, तब श्रीराम का आदर्श चरित्र हमें नैतिक विजय की प्रेरणा देता है।


10. उपसंहार : राममय जीवन की आवश्यकता

भगवान श्रीराम केवल एक ऐतिहासिक पात्र नहीं हैं, वे भारतीय जनमानस की आत्मा हैं। वे प्रत्येक व्यक्ति के अंतर्मन में विद्यमान हैं। उनका जीवनचरित्र केवल पूजा या स्मरण हेतु नहीं, अपितु अनुकरणीय और आत्मसात करने योग्य है। यदि हम श्रीराम को अपने विचारों, आचरण, व्यवहार और नीतियों में उतार लें, तभी हमारा जीवन सार्थक होगा।

"यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।
तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।।"

रामायण और श्रीराम का आदर्श युगों तक अक्षुण्ण रहेगा। हमें चाहिए कि हम उन्हें केवल मंदिरों में ही नहीं, अपने हृदय-मंदिरों में भी स्थापित करें और जीवन को राममय बनाकर मर्यादा, धर्म और न्याय की पुनर्स्थापना करें।

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