श्रीराम-सीता विवाह : गुण मिलान और दिव्य लीला का रहस्य

Sooraj Krishna Shastri
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श्रीराम-सीता विवाह : गुण मिलान और दिव्य लीला का रहस्य
श्रीराम-सीता विवाह : गुण मिलान और दिव्य लीला का रहस्य

यह लेख श्रीराम-सीता के वैवाहिक जीवन के संदर्भ में गहरे भाव और विवेक से भरा हुआ है। मैं इसे शीर्षकों, अनुच्छेदों और उपयुक्त भाषा के साथ एक संगठित और प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ:


श्रीराम-सीता विवाह : गुण मिलान और दिव्य लीला का रहस्य

प्रचलित भ्रांतियों पर एक दृष्टि

आजकल एक विचार धड़ल्ले से फैलाया जा रहा है कि श्रीराम जी ने सीता जी से विवाह तो ३६ गुणों के मिलान के आधार पर किया, लेकिन उनका वैवाहिक जीवन सफल नहीं रहा, और सीता जी जीवन भर दुःख भोगती रहीं।

इस प्रकार की धारणाएँ बिना चिंतन और गहराई से विषय को समझे हुए लोगों द्वारा फैलाई जाती हैं। सच्चा चिंतनशील व्यक्ति श्रीराम जी के चरित्र और उनके अवतार की दिव्यता को समझने का प्रयास करता है।

आइए, इस प्रसंग को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा करें।


श्रीराम का अवतार—धर्म की पुनर्स्थापना के लिए

श्लोक –

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत..."

जब-जब धरती पर अधर्म बढ़ता है, तब-तब भगवान साकार रूप में अवतरित होते हैं। रावण के अत्याचारों से पृथ्वी सहित देवता भी पीड़ित थे। ब्रह्मा जी की स्तुति पर भगवान ने आश्वासन दिया—

"जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा।
तुम्हहि लागि धरिहहुं नर बेसा।"

अर्थात, देवताओं की पीड़ा हरने हेतु भगवान ने मनुष्य रूप में रघुकुल में अवतार लेने की योजना बनाई।


नारद श्राप और लीला की पूर्व-रचना

नारद जी को मोहवश वानर रूप मिलने और मनोरथ विफल होने पर उन्होंने श्रीहरि को श्राप दिया—

"बंचेउ हमहि जवन धरि देहा।
सोई तनु धरहु साप मम ऐहा।।"

इसके अनुसार भगवान को मनुष्य शरीर धारण कर, राजा के घर जन्म लेना था। साथ ही यह भी निश्चित हुआ कि उन्हें पत्नी-वियोग का दुःख सहना पड़ेगा—

"मम अपकार कीन्ह तुम भारी।
नारि बिरह तुम होब दुखारी।।"

अर्थात, श्रीराम जी के जीवन में सीता वियोग का प्रसंग पहले ही निश्चित हो चुका था। यह केवल अभिनय था—लीला थी।


वनवास – पूर्व निर्धारित योजना का अंग

श्रीराम जी को राज्याभिषेक की न प्रसन्नता थी, न ही वनवास का दुःख।

"प्रसन्नतां या न गताभिषेकतः,
तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।।"

वनवास की यह योजना त्रिदेवों की सम्मिलित लीला थी—सरस्वती द्वारा मंथरा को प्रेरित किया गया, कैकेई की बुद्धि बदली गई।

श्रीराम को वनवास जाना ही था, ताकि—

  • लक्ष्मण जी मेघनाद वध हेतु वन में रहें,
  • सीता जी का हरण हो, जिससे राम-रावण युद्ध की भूमिका बने,
  • दशरथ जी की मृत्यु श्रवण के पिता के श्राप से हो।

लीला में सहज अभिनय

वनगमन का श्रीराम जी को कितना आनंद था, इसका सुंदर वर्णन तुलसीदास जी ने किया—

"नव गयंदु रघुबीर मनु, राज अलान समान।
छूट जानि बन गवन सुनी, उर आनंद अधिकान।।"

श्रीराम जी का मन एक बंधे हुए हाथी के समान था, जिसे वनगमन का समाचार सुनकर मुक्ति का आनंद प्राप्त हुआ।


सीता हरण और राम का वियोग—लीला का गूढ़ रहस्य

सीता हरण का कारण भी पूर्व निर्धारित था। श्रीराम जी मारीच को भलीभांति पहचानते थे—

"जदपि उठे प्रभु जानत सब कारन।।"

परंतु लीला के निमित्त उन्होंने मृग की तलाश की।

राम जी का सीता वियोग में दुखी होना ऐसा अभिनय था कि स्वयं सती जी भ्रम में पड़ गईं—

"खोजइ सो कि अग्य इव नारी।
ग्यान धाम श्रीपति असुरारी।"

सती जी के भ्रम से ही यह सिद्ध होता है कि यह अभिनय कितना वास्तविक प्रतीत होता था।


नारद जी की पुनरभिज्ञता और श्रीराम की प्रसन्नता

जब श्रीराम जी पंपा सरोवर पर पहुँचे, नारद जी को विचार हुआ कि श्राप के कारण भगवान अति दुःखी होंगे। परंतु उन्होंने देखा कि—

"अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी।
पुनि नारद बोलेउ मृदु बानी।।"

यह देखकर नारद जी स्वयं भाव-विभोर हो गए।


क्या ३६ गुणों का मेल दुःख का कारण था?

जब श्रीराम जी का सम्पूर्ण जीवन ही लीला है—अवतार के उद्देश्य की पूर्ति के लिए, तो ३६ गुणों का मिलान और विवाह किसी सांसारिक कारण से विफल कैसे हो सकता है?

सीता जी और श्रीराम जी के विवाह में गुणों का मेल था, पर यह विवाह वैष्णव लीला का अंश था। सीता-वियोग एक नियोजित चरित्र विकास था, न कि वैवाहिक असफलता।


उपसंहार : विवेक का प्रयोग करें

किसी भी ग्रंथ या चरित्र की आलोचना से पूर्व यह आवश्यक है कि हम उसका गूढ़ अध्ययन करें। भावनाओं में बहकर या अधूरी जानकारी के आधार पर आलोचना करना उचित नहीं। श्रीराम-सीता का जीवन समर्पण, कर्तव्य और धर्म की उच्चतम मिसाल है।

"भाई, कोई कुछ भी कह दे,
उसका ढिंढोरा पीटने से पहले
स्वयं विचार करना चाहिए।"


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