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अभिज्ञान-शाकुन्तलम् – श्लोक संख्या 7 (ययातेरिव शर्मिष्ठा...) तक |
अभिज्ञान-शाकुन्तलम् – श्लोक संख्या 7 (ययातेरिव शर्मिष्ठा...) तक
सख्यौ-
हला शकुन्तले, अवसितमण्डनाऽसि। परिधत्स्व
साम्प्रतं क्षौमयुगलम्। (हला सउन्दले, अवसिदामण्डणासि । परिधेहि संपदं खोमजुअलं ।)
व्याकरण
एवं शब्दार्थ-
अवसितमण्डना - अवसितं
समाप्तं मण्डनं भूषणं यस्याः सा = समाप्त हो गया हे मण्डन (रङ्गा सजावट) जिसका (ऐसी
तुम),
अर्थात् (तुम सुसज्जित (सुमण्डित) हो गयी हो) । परिधत्स्व - परि+धा
(आत्मने पद) लोट्+मध्यम पुरुष ए०व० = पहन लो । क्षौमयुगलम् - दो रेशमी वस्त्रों
को ।
दोनों सखि्या- सखी
शकुन्तला,
(तुम) प्रसाधन से परिपूर्ण हो गयी हो (अर्थात् तुम्हारा श्रृङ्गार
(सजावट) पूरा हो गया है) । अब (इन) दो रेशमी-वस्त्रों को पहन लो ।
टिप्पणी-
मांगलिक कर्म में एक वस्त्र के पहनने का निषेध हे -
नैकवासोधरस्तथाः । अतः शकुन्तला के पतिगृहगमन रूप वैध (विधिसम्मत) कर्म मे उसे दो वस्त्र
धारण कराये गये है ।
(शकुन्तलोत्थाय
परिधत्ते) (शकुन्तला उठकर पहनती है) ।
गौतमी-
जाते, एष ते आनन्दपरिवाहिणा चक्षुषा परिष्वजमान
इव गुरुरुपस्थितः । आचारं तावत् प्रतिपद्यस्व ।
(जादे,
एसो दे आणन्दपरिवाहिणा चक्खुणा परिस्सजन्तो विअ गुरूउवडधिदो । आआरं
दाव पडिवज्जस्स ।)
व्याकरणं
एवं शब्दार्थ –
आनन्दपरिवाहिणा -
आ+नन्द्+घञ् - आनन्दः तं साधु परिवाहयति - इति आनन्दपरिवाही - आनन्द्+पेरि+वह+णिच्+णिनि
तेन = आनन्द को बहाने वाले । यह पद चक्षुषा का विशोषण हे । कही- कहीं
आनन्दाश्रुपरिवाहिणा' यह पाठ है उसका अर्थ होगा
आनन्दाश्रु बहाने वाले नेत्र से। परिष्वजमानः - परि+स्वज्ज+शानच् = मानो (तुम्हे)
गले लगाते हुये । आचारम् - आ+चर्+षञ् ~ द्वि°ए०व० = (प्रणामादि) शिष्टाचार की । प्रतिपद्यस्व - प्रति+पद्+लोट्+म०पु०ए०व
० = सम्पन्न करो ।
गौतमी- बेटी, आनन्द को प्रवाहित करने वाली दृष्टि से मानो (तुम्हे) गले लगाते हये ये
तुम्हारे पिता (गुरु) कण्व उपस्थित हे । अतः शिष्टाचार का पालन करो ।
शकुन्तला-(सव्रीडम्)
तात, वन्दे ।
(ताद,
वन्दामि) ।
शकुन्तला-(लज्जा के
साथ) पिताजी, मैं प्रणाम कर रही हूं ।
टिप्पणी-- यहां आचार
से अभिप्राय प्रणाम से है । गोतमी शकुन्तला से पिताः कण्व को प्रणाम करने का
निर्देश दे रही है । बड़ के मिलने या उसके आने पर उठकर (विनत होकर) प्रणामं करना
शिष्टाचार के अन्तर्गत आता है । मनुस्मृति मे कहा गया है कि अपने बड़ का अभिवादन
तथा नित्य उनकी सेवा करने वाले की आयु, विद्या,
यश एवं बल बढ़ता है—
अभिवादनशीलस्य
नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि
तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ॥
काश्यपः-
वत्से, कण्व-- बेटी,
ययातेरिव
शर्मिष्ठा भर्तुर्बहुमता भव ।
सुतं त्वमपि सम्राजं
सेव पूरुमवाप्नुहि ॥७॥
अन्वय-
शर्मिष्ठा ययातेः इव भर्तुः बहुमता भव, सा पूरुम् इव त्वम् अपि सम्राजं सुतम् अवाप्नुहि ।
शब्दार्थ
- शर्मिष्ठा = शर्मिष्ठा । ययातेः इव = ययाति की भाति ।
भर्तुः = पति की । .. बहुमता = माननीया, अति प्रिय
(रानी) । भव = बनो । सा = उसने । पूरुम् इव = पूरु को जैसे (प्राप्त किया था) । त्वम् अपि = तुम भी । सप्राजम् = (उसी प्रकार)
सम्राट् । सुतम् = पुत्र को। अवाप्नुहि = प्राप्त करो ।
अनुवाद-
शर्मिष्ठा (जिस प्रकार) ययाति की अत्यन्त प्रिय थी उसी प्रकार तुम भी (अपने) पति
की अत्यन्त प्रिय होओ (बनो) ओर (शर्मिष्ठा) ने परु (नामक पुत्र) को (जैसे प्राप्त
किया था) तुम भी (उसी प्रकार) सम्राट् पुत्र को प्राप्त करो ।
संस्कृत
व्याख्या- शर्मिष्ठा - वृषपर्वदुहिता, ययातेः इव - प्रसिद्धस्य राज्ञः इव, भर्तुः - पत्युः
बहुमता भव - प्रियतमा भव, सा - शर्मिष्ठा, पूरुम् इव - पूरुनामानं पुत्रम् इव, त्वम् अपि -
त्वं शकुन्तला अपि, सम्राजं - चक्रवर्तिनम् , सुतं - पुत्रम् , अवाप्नुहि - प्राप्नुहि ।
संस्कृत
सरलार्थः- कण्वाशीर्गचनस्यायमभिप्रायः- यथा शमिष्ठा
स्वपत्युर्ययातेरतिप्रियाऽऽ सीत्, तथेव त्वं
स्वभरतुर्दष्यन्तस्य प्रियतमा भव । यथा च सा (शर्मिष्ठा) सम्राजं पुत्रं पूरुं
जनयामास, तथैव त्वमपि (त्वं शकुन्तलाऽपि)
चक्रवतिनंतनयमाप्नुहि ।
व्याकरण-
बहुमता - बहु अधिकं यथा स्यात् तथा मता - बहु+मन्+क्त+टाप् = माननीया ।
सप्राजम् - सम्+राज्+क्रिप् द्वि०ए०व० = सम्राट को । अवाप्नुहि - अव्+आप्+लो° ्वि°पु°ए०व० = प्राप्त करो ।
क्तस्य च वर्तमाने' सूत्र से “भर्तृ शब्द मे षष्ठी (भर्तुः)
हुई है ।
अलङ्कार-
इस श्लोक में पूर्णोपमा अलङ्कार है । उपमेय शकुन्तला है, उपमान शर्मिष्ठा है, पुत्रप्राप्ति, पतिप्रम प्राप्ति आदि साधारण धर्म है एवं इवः वाचक शब्द है ।
छन्द-
श्लोक मे "अनुष्टुप्" छन्द है ।
टिप्पणी-(१) प्राचीन
कथा के अनुसारं दानवराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ओर वृषपर्वा के गुरु
शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी थी । एक बार भ्रेमवश देवयानी ने शर्मिष्ठा की साड़ी
पहन ली थी जिससे कुपित होकर शर्मिष्ठा ने उसे अपमानित किया । अपमान से शुक्राचार्य
क्रुद्ध हो गये । जिन्हे मनाने के लिये वृषपर्वा ने अपनी पुत्री शर्मिष्ठा को
देवयानी की सेविका के रूप में दे दिया । देवयानी का विवाह जब चन्द्रवंशी ययाति के
साथ हुआ तो सेविका के रूप मे शर्मिष्ठा भी उसके साथ भेजी गयी । शर्मिष्ठा के
सौन्दर्य पर मुग्ध होकर ययाति ने उसके साथ गान्धर्व विवाह कर लिया । फलस्वरूप वह
(शर्मिष्ठा) ययाति की विशेष प्रिय पात्र बन गयी । शर्मिष्ठा से (पूरु नामक पुत्र
हुआ । देवयानी के पिता शुक्राचार्य ने ययाति के व्यवहार से कुपित होकर उन्हे वृद्ध
होने का शाप दे दिया । पिता ययाति की इच्छा के अनुरूप उनके पाँच पुत्रो मे से किसी
ने अपने पिता की वृद्धता को नहीं लिया परन्तु पितृभक्त “पुरु' ने पिता की वृद्धता अपने ऊपर ले ली । पित्रभक्ति के फलस्वरूप ही वह
पुरुवंश का संस्थापक सप्रार् हुआ । (२) कण्व के इस आशीर्वादमूलक श्लोक कौ महत्ता
इस बात मे हे कि उसमे ओपम्य विधान अतिशय चारु एवं सार्थक है- (क) शर्मिष्ठा का
ययाति के साथ गान्धर्व विवाह हुआ था उसी प्रकार शकुन्तला का भी दुष्यन्त के साथ
गान्धर्वं विवाह हुआ । (ख) शकुन्तला जिस प्रकार दुष्यन्त' की
अनेक रानियों के मध्य राजा को अधिक प्रिय थी, उसी प्रकार
ययाति की दो रानियो मे शर्मिष्ठा उन्हे अधिक प्रिय थी। (ग) शर्मिष्ठा ने सम्राट
पुत्र पूरु" को जन्म दिया था, उसी प्रकार शकुन्तला ने
“भरतः नामक सम्रार् (पुत्र) को जन्म दिया । (३) सम्राजम् - मनुस्मृति मे सम्राट्
का यह लक्षण दिया गया है-येनेष्टं राजसूयेन मण्डलस्येश्वरश्च यः । शास्ति
यश्चज्ञया राज्ञः स सम्राट् (अथ राजकर्म) अर्थात् जिसने राजसूय यज्ञ किया हो,
जो मण्डल का स्वामी हो ओर जो राजाओं को जीतकर उनके ऊपर शासन करता हे,
वह सम्राट् कहा जाता ह । अमरकोष की रामाश्रयी टीका के अनुसार
तीन लोग सम्राट पद के अधिकारी है
१. राजसूय यज्ञ करने वाला - राजसूययज्ञकर्ता सम्राट', २.
द्वादश राजमण्डल का स्वामी - द्वादश राजमण्डलस्येश्वरोऽपि सम्राट्", ३. सब राजाओं का शासक - 'सर्वनृपतीनां शासकोऽपि
सम्राट्" । (४) इस श्लोक में इष्ट की उपलब्धि होने के कारण 'क्रम' नामक गर्भ सन्धि का अङ्ग है लक्षण -
"तत्त्वोपलब्धिरिष्टस्य क्रम इत्यभिधीयतेः । (५) ' सुतं
त्वमपि सम्राजं का आशीर्वाद दिये जाने से "आशीः" नामक
नाटकीय अलङ्कार हे । लक्षण ~ आशीरिष्टजनाशंसा ।'
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