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क्यों चढ़ाते हैं शनि देव को तेल ? श्री शनिदेव और भक्तराज हनुमान की पौराणिक कथा |
क्यों चढ़ाते हैं शनि देव को तेल ? श्री शनिदेव और भक्तराज हनुमान की पौराणिक कथा
भूमिका :
सनातन धर्म में शनिदेव को न्याय के देवता माना गया है जो व्यक्ति के कर्मों के अनुसार फल प्रदान करते हैं। वहीं, भक्तराज हनुमान शक्ति, भक्ति और विनय के मूर्त रूप हैं। यह कथा उस समय की है जब हनुमान श्रीराम के चरणों में लीन होकर ध्यानमग्न थे और शनिदेव अहंकारवश उनका बल आज़माना चाहते थे।
प्रारम्भ : रामसेतु के तट पर ध्यानमग्न हनुमान
एक बार की बात है। श्रीराम भक्त हनुमानजी रामसेतु के समीप सागर किनारे ध्यानमग्न होकर अपने परम आराध्य प्रभु श्रीराम के दिव्य रूप का दर्शन कर रहे थे। वे इस ध्यान में इतने लीन थे कि उन्हें बाह्य जगत की कोई सुध-बुध नहीं थी। उनका शरीर स्थिर था, पर मन श्रीराम के रूप, लीलाओं और नाम में झूम रहा था।
शनिदेव का आगमन और अहंकार
इसी गर्व के आवेग में उनकी दृष्टि ध्यान में लीन वज्रांग बलशाली हनुमान पर पड़ी। शनिदेव के मन में आया कि क्यों न इस वानर योद्धा की परीक्षा ली जाए। उन्होंने युद्ध का निश्चय किया और क्रोधपूर्ण स्वर में हनुमान से बोले:
"ए बंदर! मैं सूर्य का पुत्र शनि हूँ। मैं तुमसे युद्ध करने आया हूँ। खड़े हो जाओ और मुकाबला करो!"
हनुमानजी की विनम्रता
हनुमानजी ने नेत्र खोलकर अत्यन्त शांत स्वर में पूछा —
"प्रभो! आप कौन हैं और यहाँ पधारने का उद्देश्य क्या है?"
शनिदेव ने गर्व से कहा —
"मैं सूर्यपुत्र शनि हूँ। समस्त लोक मुझसे भयभीत रहते हैं। तुम्हारे पराक्रम की बहुत चर्चा सुनी है, अतः मैं तुम्हारी शक्ति की परीक्षा चाहता हूँ। सावधान हो जाओ, मैं तुम्हारी राशि पर आ रहा हूँ।"
हनुमानजी ने अत्यन्त विनम्रता से प्रार्थना की —
"महाराज! मैं वृद्ध हो गया हूँ और श्रीराम के ध्यान में लीन हूँ। कृपा करके अन्यत्र चले जाइए। मैं युद्ध की स्थिति में नहीं हूँ।"
परंतु शनि का अहंकार उन्हें विनय समझने नहीं दे रहा था। उन्होंने व्यंग्यपूर्वक कहा —
"कायरता तुम्हें शोभा नहीं देती। मैं लौटना नहीं जानता। आज तुमसे युद्ध अवश्य करूँगा!"
हनुमानजी का प्रत्युत्तर और शनि का बंधन
जब शनि ने हनुमानजी का हाथ पकड़कर उन्हें खींचना शुरू किया, तब पवनपुत्र ने शांत स्वर में कहा —
"आप नहीं मानेंगे..."
और फिर हनुमानजी ने अपनी अद्भुत लम्बी पूँछ फैलाकर शनिदेव को उसमें लपेटना आरम्भ किया। कुछ ही क्षणों में शक्तिशाली शनि उनकी पूँछ में बंधकर पूर्णतः निष्क्रिय हो गए। उनकी शक्ति, अहंकार और तेज – सब ध्वस्त हो चुका था। वे असहाय हो उठे।
रामसेतु की परिक्रमा और शनि की पीड़ा
हनुमानजी बोले —
"अब रामसेतु की परिक्रमा का समय हो गया है।"
और उन्होंने बंधे हुए शनिदेव को पूँछ में लपेटे हुए तेज गति से परिक्रमा आरम्भ कर दी। दौड़ते समय वे जानबूझकर अपनी पूँछ को पत्थरों पर पटकते, जिससे शनिदेव को असहनीय पीड़ा होने लगी। उनके शरीर से रक्त बहने लगा। उनकी दशा दयनीय हो गई।
शनिदेव की विनती और मुक्ति
अंततः शनिदेव करुण स्वर में पुकार उठे —
"भक्तराज! कृपा कीजिए। मुझे क्षमा कीजिए। अब मेरा अहंकार चूर हो चुका है। कृपया मुझे मुक्त करें।"
हनुमानजी बोले —
"यदि तुम यह वचन दो कि मेरे किसी भी भक्त की राशि पर प्रभाव नहीं डालोगे, तभी मैं तुम्हें मुक्त करूंगा।"
शनि ने वचन दिया —
"मैं निश्चय ही आपके किसी भक्त की राशि पर नहीं आऊँगा। कृपया अब मुझे मुक्त करें।"
तेल चढ़ाने की परंपरा की उत्पत्ति
हनुमानजी ने शनिदेव को बन्धनमुक्त किया। शनि अत्यंत पीड़ित थे। उन्होंने कहा —
"मुझे शरीर पर लगाने के लिए तेल चाहिए। जो मुझे तेल चढ़ाएगा, मैं उसे कष्ट नहीं दूँगा।"
इसी प्रसंग के कारण, आज भी शनिदेव को तेल चढ़ाने की परंपरा है — ताकि वे प्रसन्न रहें और कष्ट न दें।
सारांश :
यह कथा हमें सिखाती है कि —
- अहंकार चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, भक्ति और विनम्रता के आगे टिक नहीं सकता।
- हनुमानजी सच्चे भक्त, वीर, और करुणा के सागर हैं।
- शनि जैसे प्रभावशाली देवता भी जब अहंकार से भर जाते हैं, तो उनका दमन आवश्यक होता है।
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